संस्कृतिसिनेमा सितारे ज़मीन पर: संवेदनशीलता से बुनी गई एक सरल लेकिन असरदार फिल्म

सितारे ज़मीन पर: संवेदनशीलता से बुनी गई एक सरल लेकिन असरदार फिल्म

आरएस प्रसन्ना द्वारा निर्देशित और दिव्य निधि शर्मा द्वारा लिखित ‘सितारे ज़मीन पर’ फ़िल्म, यह साल 2018 की स्पेनिश फिल्म ‘चैंपियंस’ की आधिकारिक रीमेक है और इसे साल 2007 की फिल्म ‘तारे ज़मीन पर’ की एक तरह ही अगली कड़ी माना जा सकता है।

फिल्में सिर्फ मनोरंजन का ज़रिया ही नहीं होतीं, बल्कि कई बार वो हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं। जब हम किसी फिल्म में सिर्फ कहानी नहीं, दिल छू लेने वाले एहसास भी देखते हैं, तो वो हमारे दिल और दिमाग में हमेशा के लिए बस जाती हैं। ‘सितारे ज़मीन पर उन्हीं में से एक फ़िल्म है जिसे आरएस प्रसन्ना ने निर्देशित किया है और दिव्य निधि शर्मा ने लिखा है। यह फिल्म साल 2018 की स्पेनिश फिल्म ‘चैंपियंस’ की आधिकारिक रीमेक है और इसे साल 2007 की फिल्म ‘तारे ज़मीन पर’ की तरह ही अगली कड़ी माना जा सकता है। जहां पहली फिल्म में डिस्लेक्सिया और बच्चों की पढ़ाई से जुड़ी परेशानियों को दिखाया गया था, वहीं ये नई फिल्म डाउन सिंड्रोम और ऑटिज़्म का सामना कर रहे लोगों की कहानी है, जो एक बास्केटबॉल टीम का हिस्सा हैं। इस बार कहानी स्कूल की बजाय खेल के मैदान पर रची गई है। जो सिर्फ बच्चों की नहीं हम सबकी कहानी है। यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि हर एक इंसान खास होता है, भले ही उसकी दुनिया थोड़ी अलग क्यों न हो। 

सज़ा एक नई शुरुआत बन गई

फ़िल्म की कहानी सिम्पल है इसमें गुलशन अरोड़ा (आमिर खान) एक दबंग बास्केटबॉल कोच है। जिसे उसकी किसी गलती की बजह से नौकरी से निलंबित कर दिया जाता है। नशे में गाड़ी चलाने के कारण उस पर कोर्ट केस हो जाता है, उसने जीवन में पहली बार कोई कानूनी ग़लती की होती है। ऐसे में कोर्ट उसे सीधा जेल नहीं भेजना चाहता, तो कोर्ट तय करता है कि उसे कम्युनिटी सेंटर में एक बास्केटबॉल कोच के रूप में 3 महीने सर्विस देनी होगी। जहां न केवल उसके टैलेंट का सदुपयोग होगा बल्कि इसी बहाने उसके भीतर भी कुछ बदलाव होंगे। उसे राष्ट्रीय बास्केटबॉल टूर्नामेंट में प्रतिस्पर्धा करने के लिए बौद्धिक रूप से विकलांग या डाउन सिंड्रोम का सामना कर खिलाड़ियों की एक टीम को प्रशिक्षित करना होता है। इस कोचिंग के दौरान गुलशन एक भावनात्मक परिवर्तन से गुज़रता है, जैसे-जैसे वो बच्चों को समझना शुरू करता है, उनसे एक जुड़ाव महसूस करने लगता है और फ़िल्म के अंत तक बच्चों को सीखाने की जगह, ख़ुद भी उनसे बहुत सारी चीज़ें सीखता है। 

आरएस प्रसन्ना द्वारा निर्देशित और दिव्य निधि शर्मा द्वारा लिखित ‘सितारे ज़मीन पर’ यह फ़िल्म, साल 2018 की स्पेनिश फिल्म ‘चैंपियंस’ की आधिकारिक रीमेक है और इसे साल 2007 की फिल्म ‘तारे ज़मीन पर’ की एक तरह ही अगली कड़ी माना जा सकता है।

ध्यान देने वाली बात है कि गुलशन यूं तो ख़ुद की हाइट को लेकर बहुत संवेदनशील है। लेकिन उसे टिंगू कहे जाने पर बहुत गुस्सा होता है और अक़्सर यह बोलते हुए नज़र आता है कि उसकी एवरेज हाइट है, वो छोटा नहीं है। लेकिन खुद बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों को वो पागल कहता है। आमिर अपने अभिनय के जादू से इस क़िरदार को उसकी विरोधाभास सोच के साथ परदे पर अच्छे से पेश करते हैं। जो खुद को दूसरों से अलग मानने को तैयार नहीं था, वही उन लोगों को अपनाता है जो थोड़े अलग हैं यह देखना वाकई दिलचस्प है। यह फ़िल्म आम धारणाओं को तोड़ने का काम करती है।

तस्वीर साभार : Indian Express

साथ ही बास्केटबॉल जैसे खेल में अपेक्षित यानि तय की गई लंबाई से छोटे कद वाले खिलाड़ी और कोच की बैकस्टोरी और समाज की गलत धारणा कि बौद्धिक अक्षमता वाले व्यक्ति सामान्य जीवन नहीं जी सकते जैसे विषयों को भी साथ लेकर चलती है। यह फ़िल्म अंत तक यकीन दिलाने की कोशिश करती है कि ‘सबका अपना अपना नॉर्मल होता है’ और दर्शकों को यकीन दिलाने में कामयाब भी होती है। एक दर्शक के तौर पर फिल्म का सबसे असरदार हिस्सा इसका क्लाइमैक्स है, जब सितारे टीम फाइनल मैच हार जाती है, तो पहले ये हार बुरी लगती है क्योंकि हम सब गुलशन की नज़र से मैच देख रहे होते हैं। लेकिन, जब टीम कहती है कि हम भी जीत गए, हम ‘सेकेंड’ आए हैं, तब सिर्फ गुलशन का नहीं, बल्कि हर उस दर्शक का जो ये फिल्म देख रहा होता है, उसका नजरिया बदलता है।

जब सितारे टीम फाइनल मैच हार जाती है, तो पहले ये हार बुरी लगती है क्योंकि हम सब गुलशन की नज़र से मैच देख रहे होते हैं। लेकिन, जब टीम कहती है कि हम भी जीत गए, हम ‘सेकेंड’ आए हैं, तब सिर्फ गुलशन का नहीं, बल्कि हर उस दर्शक का जो ये फिल्म देख रहा होता है, उसका नजरिया बदलता है। देख रहा होता है।

किरदार कहानी से नहीं अनुभव से जुड़े हैं

तस्वीर साभार : The News Minute

यह फिल्म एक अच्छा संदेश देती है और साथ ही दर्शकों को बौद्धिक विकलांगता (आईडी ) के बारे में समझाने का काम भी बहुत आसान तरीके से करती है। इसकी सबसे खास बात है इसका समावेशिता पर ज़ोर देना कि आईडी वाले व्यक्ति भी काम करने में सक्षम होते हैं, अपनी ज़िंदगी आजादी से और अपने हिसाब से जी सकते हैं। फिल्म खिलाड़ियों की स्थितियों की विशेषताओं को संवेदनशील रूप से पेश करती है। बिना उन्हें किसी लेबल तक सीमित किए जैसे बंटू (वेदांत शर्मा) का बार-बार कान खुजलाना, गुड्डू (गोपीकृष्णन के वर्मा) का पानी से डरना, शर्माजी (ऋषि शाहनी) का न बोल पाना, और हरगोविंद (नमन मिश्रा) का हल्का लेकिन समझने में मुश्किल होना, इन सभी बातों को फिल्म में एक बीमारी या समस्या की तरह नहीं, बल्कि उनके स्वभाव और व्यक्तित्व का हिस्सा दिखाया गया है। फिल्म में भावनाओं को जोश के साथ मिलाकर दिखाया गया है और कहीं भी ज़रूरत से ज़्यादा समझाने या भाषण देने वाला अंदाज़ नहीं अपनाया गया। बौद्धिक विकलांगता को कुछ आसान और साफ़ शब्दों के ज़रिए समझाया गया है, जिससे बात सीधे दिल तक पहुंचती है।

साथ ही अन्य सहयोगी कास्ट में सुनीता (जेनेलिया डी सुजा), प्रीतो (डॉली आहलुवालिया), करतार पाजी ( गुरपाल सिंह), पासवान (दीपराज राणा) और दौलत जी (ब्रिजेन्द्र कला) ने भी बढ़िया काम किया है। हालांकि ब्रिजेन्द्र कला जैसे बेहतरीन कलाकार को कास्ट करके उनका इस्तेमाल ही नहीं किया गया है। केवल क्लाइमेक्स से पहले एक सीन में उनको कुछ डॉयलोग दिए गए हैं पर वो भी न के बराबर हैं। जेनेलिया के किरदार में वो डेप्थ नहीं है। लेकिन जज अनुपमा के रूप में तराना राजा जब भी आमिर के साथ स्क्रीन शेयर करती हैं, तब- तब आप अपनी हंसी रोक नहीं पाओगे। आरएस प्रसन्ना ने वाक़ई में ऑटिज़्म और डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे व्यक्तियों के साथ मिलकर अच्छा काम किया है। इससे कहानी में सभी किरदारों के अनुभवों को पहचान मिलती है। ऐसे में दर्शक भी उनसे सीधा जुड़ाव महसूस कर पाते हैं। 

इसकी सबसे खास बात है इसका समावेशिता पर ज़ोर देना कि आईडी वाले व्यक्ति भी काम करने में सक्षम होते हैं, अपनी ज़िंदगी आजादी से और अपने हिसाब से जी सकते हैं।

सच्चाई की झलक लेकिन पूरी तस्वीर नहीं

तस्वीर साभार : Filmi Beat

इस फिल्म की कास्टिंग बहुत अच्छे से की गई है चाहे सुनीता के किरदार के लिए जेनेलिया जैसी उम्र से छोटी दिखने वाली एक्ट्रेस को लेना हो या फिर ऑटिज़्म और डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे, असली लोगों को फिल्म में शामिल करना ये फैसले आसान नहीं थे। इसके लिए फिल्म की तारीफ़ की जानी चाहिए। इसमें कई चीज़ें अच्छी हैं, लेकिन कुछ कमियां भी हैं। फिल्म में जिन लोगों की कहानी दिखाई गई है, उनकी ज़िंदगी को सिर्फ इस तरह दिखाया गया है कि वे समाज के लिए कितने उपयोगी हो सकते हैं। ताकि आम लोग उन्हें आसानी से अपना सकें।

लेकिन ऐसा करते हुए उनके रोज़मर्रा के असली संघर्षों को फिल्म में जगह नहीं दी गई है, जो थोड़ी कमी महसूस होती है। फ़िल्म में गुलशन पिता नहीं बनना चाहते हैं। शुरुआती कारण तो उनका बचपन का ट्रॉमा लगता है जिसके बाद उन्हें लगता है कि शायद वे अच्छे पिता नहीं बन सकते। लेकिन बीच में कहीं वो 40 साल की उम्र के बाद प्रेगनेंसी में आने वाली दिक्कत और उसके बाद डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चा होने के डर को बयान करते हैं। ये काफ़ी नाखुश करने वाली बात लगी। क्योंकि एक ओर आप उनका ट्रांसफॉर्मेशन दिखा रहे हैं इसी बीच यह बयान उनके किरदार से मेल नहीं खा रहा। मेकर्स क्या दिखाना चाह रहे थे समझना मुश्किल है। ये सीन आमिर के क़िरदार के व्यवहार में सकारात्मक इम्प्रूवमेंट पर सवाल पैदा करता है।

साथ ही हर हाल में बौद्धिक अक्षमता वाले बच्चों को खुश दिखाकर कहीं न कहीं उनकी अच्छी छवि बनाकर एक नई रूढ़िवादिता को बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन ओवरऑल फ़िल्म एक अच्छा संदेश देती है जिसे अपने प्रयास के लिए देखा जाना चाहिए और सराहा जाना चाहिए। सितारे ज़मीन पर एक दिल को छू लेने वाली फिल्म है, जो हमें सिखाती है कि हर इंसान खास होता है चाहे वो किसी भी स्थिति में क्यों न हो। यह फिल्म हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम दूसरों को कैसे देखते हैं और कैसे उनके साथ व्यवहार करते हैं। फिल्म में डाउन सिंड्रोम और ऑटिज़्म का सामना कर रहे बच्चों को सिर्फ दया का पात्र नहीं, बल्कि समझदार और मजबूत दिखाया गया है। यह एक अच्छा संदेश देती है कि यह लोग भी अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जी सकते हैं। हां असली मुश्किलों को ज़्यादा गहराई से नहीं दिखाया गया है लेकिन फिर भी, यह फिल्म अपने संदेश और ईमानदारी की वजह से सराहे जाने के काबिल है। यह फिल्म बताती है कि जीत सिर्फ नंबर लाने में नहीं होती, बल्कि खुद को और दूसरों को समझने में होती है। इसलिए ‘सितारे ज़मीन पर’ एक ज़रूरी फिल्म है जो हर किसी को एक बार ज़रूर देखनी चाहिए।

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