इतिहास अनुपमा पुचिमांडा: भारतीय महिला अंपायरिंग की एक नारीवादी मिसाल |#IndianWomenInHistory

अनुपमा पुचिमांडा: भारतीय महिला अंपायरिंग की एक नारीवादी मिसाल |#IndianWomenInHistory

अनुपमा पुचिमांडा भारत की पहली महिला हॉकी मैच की अंपायर थीं, जिन्होंने अपने जीवन में 90 से अधिक अंतरराष्ट्रीय और 100 से अधिक घरेलू मैचों का संचालन किया।

भारत में खेलों को लेकर अब भले ही माहौल थोड़ा बदला हो, लेकिन लंबे समय तक इस क्षेत्र में पुरुषों का बोलबाला रहा है, महिलाओं को घर की चारदीवारी से निकलकर खेल के मैदान तक पहुंचने के लिए काफी पाबंदियों से होकर गुजरना पड़ता है। जब कोई महिला किसी बड़ी या निर्णायक भूमिका में आना चाहती हैं, तो उन्हें कई सामाजिक और पारिवारिक रुकावटों का सामना करना पड़ता है।  ऐसे माहौल में किसी महिला का खिलाड़ी से अंपायर बनने तक का सफर तय करना सिर्फ एक उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह समाज की रूढ़िवादी सोच को चुनौती देने वाला एक कदम है।

 यह दिखाता है कि महिलाएं सिर्फ खेल की भागीदार नहीं, बल्कि नेतृत्व और फैसले लेने की भूमिका में भी पूरी तरह सक्षम हैं। अनुपमा पुचिमांडा का जीवन इसी साहस, संघर्ष और बदलाव की कहानी है। उन्होंने न केवल भारत की पहली महिला हॉकी अंपायर बनने का गौरव हासिल किया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। उन्होंने उस पितृसत्तात्मक संरचना को चुनौती दी जो लड़कियों को सीमित भूमिकाओं में देखती है। उनकी शुरुआती यात्रा यह दिखाती है कि अगर महिलाओं  को संस्थागत सहयोग और प्रोत्साहन मिले, तो वे न केवल पारंपरिक सीमाओं को तोड़ सकती हैं,  बल्कि उसके साथ ही बदलाव की वाहक भी बन सकती हैं।

उन्होंने न केवल भारत की पहली महिला हॉकी अंपायर बनने का गौरव हासिल किया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। उन्होंने उस पितृसत्तात्मक संरचना को चुनौती दी जो लड़कियों को सीमित भूमिकाओं में देखती है।

शुरुआती जीवन 

अनुपमा का जन्म साल 1980 में कर्नाटक के कोडगु ज़िले के एक साधारण परिवार में हुआ था। उन्हें बचपन से ही खेलों में गहरी रुचि थी। 9 साल की उम्र में उन्होंने स्पोर्ट्स स्कूल कुडिगे में दाखिला लिया, जहां उनके खेल कौशल को सही दिशा मिलनी शुरू हुई। 13 साल की उम्र में वे मडिकेरी के  भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआई ) सेंटर से जुड़ गईं। यह वह समय था जब अधिकांश लड़कियों को पारंपरिक घरेलू भूमिकाओं की ओर प्रोत्साहित किया जाता था। उन्होंने मैंगलोर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की, जहां वे विश्वविद्यालय की हॉकी टीम का हिस्सा रहीं। यहीं से  शुरू हुआ उनका खिलाड़ी से अंपायर बनने तक का सफर। साल 1995 में उन्होंने कर्नाटक राज्य की ओर से सब-जूनियर और सीनियर राष्ट्रीय हॉकी चैंपियनशिप में भाग लिया। यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धा से जोड़ दिया।

संघर्ष से पहचान तक का सफर 

तस्वीर साभार : Deccan Herald

विश्वविद्यालय स्तर पर खेलते हुए उन्होंने न केवल अपने खेल को निखारा बल्कि यह भी जाना कि महिलाओं के लिए खेल का मैदान उतना आसान नहीं है। हालांकि वह राष्ट्रीय टीम में चयनित नहीं हो सकीं,लेकिन इस सफर ने उन्हें यह समझने में मदद की कि खेलों में लड़कियों को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने देखा कि महिला खिलाड़ियों के लिए अच्छे संसाधन बहुत कम होते हैं, उनकी मदद करने वाले रोल मॉडल भी कम होते हैं, और कई बार उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय चुपचाप पीछे कर दिया जाता है। ये सभी बाधाएं उन रूढ़िवादी भेदभावों का हिस्सा हैं जो महिलाओं के लिए खेल को एक पेशे के रूप में अपनाना कठिन बनाते हैं। उन्होंने इन चुनौतियों को न केवल पहचाना, बल्कि उन्हें पार कर एक सशक्त नारीवादी उदाहरण पेश किया।

विश्वविद्यालय स्तर पर खेलते हुए उन्होंने न केवल अपने खेल को निखारा बल्कि यह भी जाना कि महिलाओं के लिए खेल का मैदान उतना आसान नहीं है। हालांकि वह राष्ट्रीय टीम में चयनित नहीं हो सकीं,लेकिन इस सफर ने उन्हें यह समझने में मदद की कि खेलों में लड़कियों को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

साल 2004 में उन्होंने  कर्नाटक की पहली महिला हॉकी अंपायर के रूप में इतिहास रचा। वह मिड-फील्ड और राइट फ्लैंक में खेलती थीं। वह कर्नाटक राज्य में हॉकी के खेल के विकास में शामिल थीं और कर्नाटक राज्य हॉकी संघ की कार्यकारी सदस्य के रूप में कार्यरत थीं। साल 2004 में उन्होंने जापान के गिफू शहर में आयोजित चार-देशों के अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में अंपायरिंग की शुरुआत की। साल  2005 में उन्होंने  सैंटियागो, चिली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ  एफआईएच  जूनियर महिला वर्ल्ड कप और ईस्ट एशियन गेम्स जैसे महत्वपूर्ण आयोजनों में अंपायरिंग की। उन्हें एफआईएच  ने दस उभरते अंपायरों में शामिल किया । यह साफ़ तौर पर दिखता है कि उनकी प्रतिभा को न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी मान्यता मिली। इस अंतरराष्ट्रीय मंच पर उनकी उपस्थिति यह दिखाती है कि जब महिलाओं को बराबरी का अवसर और संस्थागत सहयोग मिलता है, तो वे वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भी अपनी जगह बना सकती हैं। यह सच्चा नारीवादी सशक्तिकरण था, जो केवल प्रतीकों तक सीमित नहीं था, बल्कि व्यावहारिक रूप से प्रभावशाली था।

पुरस्कार और सम्मान 

तस्वीर साभार : Kodava Clan

साल 2006 में वह कॉमनवेल्थ गेम्स (मेलबर्न) में अंपायरिंग करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। यह उपलब्धि केवल एक व्यक्तिगत सफलता नहीं थी,  बल्कि यह उन सभी महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी जो खेलों में निर्णायक भूमिकाओं में आना चाहती थीं। साल 2007 में उन्हें भारत की सर्वश्रेष्ठ महिला अंपायर का पुरस्कार से नवाजा गया। साल 2011 में, वह उन कई लोगों में से एक थीं जिन्हें खेल में उनकी उपलब्धियों के लिए बेंगलुरु शहर से नम्मा बेंगलुरु पुरस्कार मिला था। उन्होंने मध्य अमेरिकी और कैरेबियाई खेलों, एशियाई खेलों में भी अंपायरिंग की। साल 2013 में उन्होंने विमेंस एशिया कप और हीरो हॉकी वर्ल्ड लीग जैसे कई अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंटों में अंपायरिंग की और भारत का प्रतिनिधित्व किया।

उन्होंने अपने जीवन में 90 से अधिक अंतरराष्ट्रीय और 100 से अधिक घरेलू मैचों का संचालन किया। इसके साथ ही, वह कर्नाटक राज्य हॉकी संघ की कार्यकारी समिति की सदस्य भी बनीं और महिला अंपायरों के प्रशिक्षण और विकास में अपनी  भूमिका निभाई।

उन्होंने अपने जीवन में 90 से अधिक अंतरराष्ट्रीय और 100 से अधिक घरेलू मैचों का संचालन किया। इसके साथ ही, वह कर्नाटक राज्य हॉकी संघ की कार्यकारी समिति की सदस्य भी बनीं और महिला अंपायरों के प्रशिक्षण और विकास में अपनी  भूमिका निभाई। अपने काम  के माध्यम से उन्होंने महिला नेतृत्व को संस्थागत ढांचे में स्थायित्व दिया, जो नारीवाद का एक प्रमुख उद्देश्य है। 40 वर्ष की आयु में वह कोविड‑19 से संक्रमित हुईं और 18 अप्रैल 2021 को बेंगलुरु में उनकी मृत्यु हो गई । उनका जीवन केवल खेल की दुनिया में ही नहीं, बल्कि भारतीय समाज की जेंडर राजनीति में भी महत्वपूर्ण योगदान के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा। अनुपमा पुचिमांडा का जीवन सिर्फ एक सफल महिला अंपायर की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक ऐसे बदलाव की मिसाल है, जो पितृसत्तात्मक और पुरुष-प्रधान खेल संस्कृति को चुनौती देता है। उन्होंने न सिर्फ खुद के लिए रास्ता बनाया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक रास्ता तैयार  किया।

तस्वीर साभार : Star Of Mysore

उनके प्रयासों ने यह साबित किया कि महिलाएं निर्णायक भूमिकाओं में न केवल भाग ले सकती हैं, बल्कि नेतृत्व भी कर सकती हैं। खेल के मैदान में उनका संघर्ष, संस्थागत सीमाओं को पार करने की जिद और महिलाओं के लिए नए रास्ते खोलने का उनका प्रयास यह सब नारीवादी आंदोलन की व्यावहारिक अभिव्यक्ति है। उनके संघर्ष और मेहनत से यह देखने को मिलता है,  कि लैंगिक समानता केवल बातों का विषय नहीं है, बल्कि उसे व्यवहार में उतारना भी ज़रूरी है। आज जब हम खेलों में लैंगिक समानता की बात करते हैं, तो अनुपमा का नाम उस सूची में सबसे आगे आता है, जिन्होंने मैदान के भीतर और बाहर, दोनों जगह महिलाओं के लिए संभावनाओं के नए दरवाज़े खोले। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि अगर अवसर, सहयोग और हौसला मिले, तो महिलाएं किसी भी क्षेत्र में इतिहास रच सकती हैं। वह एक ऐसी विरासत छोड़ गईं हैं, जो हर उस लड़की को प्रेरित करती है जो फैसले लेने की भूमिका में आना चाहती है चाहे फिर वो मैदान हो या फिर समाज हर जगह बराबरी का होना ज़रूरी है। 

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content