बॉलीवुड में ज्यादातर प्रेम कहानियां सपनों, रंगों और सुखद अंत पर खत्म होती हैं, लेकिन फिल्म धड़क 2 कुछ अलग है। यह सिर्फ दो लोगों के प्यार की कहानी नहीं है, बल्कि उस समाज की सच्चाई दिखाती है जहां जाति, वर्ग और पहचान आज भी रिश्तों को तय करते हैं। यह फिल्म यह सोचने पर मजबूर करती है कि असली लड़ाई प्यार के अंदर नहीं, बल्कि उस समाज में है जो उसे मानने से इनकार करता है। असल में, लड़ाई तो विचारों की है। टीवी, किताबें, विज्ञापन और सिनेमा ये सब मिलकर लोगों के सोचने का तरीका तय करते हैं।
सिनेमा केवल समाज की सच्चाई को परदे पर उतारने का माध्यम नहीं है, बल्कि उसमें उसे नए रूप, नई व्याख्या और कभी-कभी नई दिशा देने की ताकत भी होती है। जब यह खबर सामने आई कि यह फिल्म दलित समाज की कहानी कहती है, तो सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने वाले लोगों में उम्मीद और उत्साह दोनों जगे। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि जिस मंच पर उनकी कहानियां लंबे समय तक दबाई गईं, वहीं अब उनके संघर्ष और अनुभव को जगह मिलना एक सकारात्मक संकेत है। लेकिन यह उत्साह तभी सार्थक होगा, जब हम यह भी परखें कि फिल्म में दिखाया गया यथार्थ असल ज़िंदगी के कितना करीब है।
यह फिल्म यह सोचने पर मजबूर करती है कि असली लड़ाई प्यार के अंदर नहीं, बल्कि उस समाज में है जो उसे मानने से इनकार करता है। असल में, लड़ाई तो विचारों की है। टीवी, किताबें, विज्ञापन और सिनेमा ये सब मिलकर लोगों के सोचने का तरीका तय करते हैं।
फिल्मों के रीमेक में दलित यथार्थ का बदलता चित्र

साल 2018 में आई धड़क फिल्म यह दावा करती है कि यह मराठी फ़िल्म सैराट से ली गई है। साल 2016 में बनी मराठी फिल्म सैराट एक मछुआरे युवक प्रशांत काले और तथाकथित उच्च जाति (पाटिल) की युवती अर्चना की प्रेम कहानी है। वहीं धड़क में दलित समुदाय के लोगों पर हो रहे शोषण और यातनाओं को गायब कर दिया गया । यानी सैराट, जो दलित लड़के का तात्या ‘पाटिल’ की बेटी से प्यार करने, और आखिरी अंजाम की कहानी है। वहीं हिंदी फ़िल्म सिर्फ एक अंतरजातीय प्रेम कहानी और ऑनर किलिंग को दिखाती है। हिंदी फिल्मों में यातनाओं और शोषित वर्ग के दुखों को पीछे कर दिया जाता है। किसी भी लेखक और निर्देशक को इतनी छूट होती है कि वे कहानी में जगह और समय के हिसाब से बदलाव करें, लेकिन इतना भी न बदलें कि उसका असली मतलब ही खत्म हो जाए।
धड़क 2 साल 2025 की हिंदी रोमांटिक ड्रामा फिल्म है। इसे शाज़िया इकबाल ने लिखा और निर्देशित किया है। इसमें सिद्धांत चतुर्वेदी और त्रिप्ति डिमरी मुख्य भूमिकाओं में हैं। यह तमिल फिल्म परियेरुम पेरुमल का रीमेक है। इसमें नीलेश अहिरवार नाम का एक दलित लड़का मुख्य अभिनयकर्ता की भूमिका में है। वह पढ़ाई करने जाता है, और फिल्म की कहानी उसी लड़के के इर्द-गिर्द घूमती है। साथ ही, इसमें एक और किरदार की कहानी भी चलती है, जो जाति व्यवस्था को बनाए रखना अपना कर्तव्य मानता है। जहां पेरुमल में हीरो की पृष्ठभूमि गांव से जुड़ी रहती है और वह अंत तक गांव में ही रहता है, वहीं धड़क 2 में लड़के का परिवार जातीय भेदभाव से बचने के लिए शहर आ जाते हैं, लेकिन वहां भी उन्हें सिर्फ मलिन बस्ती में ही जगह मिलती है, जो हकीकत है। जब इन बस्तियों को तोड़ा जाता है, तो मुख्यधारा का मीडिया चुप हो जाता है। यह फिल्म में अच्छा रचनात्मक प्रयोग था। हां, अगर बस्ती का माहौल थोड़ा और दिखाया जाता, तो जातीय भेदभाव के कारण मुश्किलों भरा जीवन जी रहे लोगों का दर्द और साफ तरिके से सामने आता।
धड़क 2 साल 2025 की हिंदी रोमांटिक ड्रामा फिल्म है। इसे शाज़िया इकबाल ने लिखा और निर्देशित किया है। इसमें सिद्धांत चतुर्वेदी और त्रिप्ति डिमरी मुख्य भूमिकाओं में हैं। यह तमिल फिल्म परियेरुम पेरुमल का रीमेक है।
जातीय भेदभाव के खिलाफ लड़ाई

चाहे फिल्म सैराट हो, फैंड्री हो या परियेरुम पेरुमल, इनमें आशिक हमेशा दलित लड़का होता है। दलित लड़की क्यों नहीं? उसका संघर्ष क्यों नहीं दिखाया जाता? यह पितृसत्ता का असर है कि पढ़ाई के लिए बाहर जाने का मौका अक्सर दलित समुदाय के लड़के को ही मिलता है। यह छोटी बात नहीं, लेकिन पितृसत्ता का संकेत है। दलित समुदाय की लड़की के हिस्से में ऐसी कहानी नहीं आती जिसमें प्यार हो, संघर्ष हो और वह लड़ती हुई दिखे। शायद इसके लिए हमें अभी और इंतजार करना पड़ेगा ।
फिल्म में किरदारों को दिखाने में जल्दीबाजी की गई है। शुरू में ही लड़का–लड़की का प्यार शुरू हो जाता है, जिससे थोड़ी बनावट लगती है। नायिका को बहुत सीधी या भोली दिखाया गया है जैसे वह जातीय भेदभाव के बारे में नहीं जानती है। लेकिन हमेशा अनजान लड़की ही प्यार क्यों करती है? ऐसा कैसे हो सकता है कि पूरा परिवार जानता हो और लड़की न जानती हो। यह या तो हमारी शिक्षा व्यवस्था की कमी है, जिसने सामाजिक अन्याय का इतिहास ही मिटा दिया है। जानने वाली लड़की भी तो प्यार कर सकती है, ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ को चुनौती देते हुए।
चाहे फिल्म सैराट हो, फैंड्री हो या परियेरुम पेरुमल, इनमें आशिक हमेशा दलित लड़का होता है। दलित लड़की क्यों नहीं? उसका संघर्ष क्यों नहीं दिखाया जाता? यह पितृसत्ता का असर है कि पढ़ाई के लिए बाहर जाने का मौका अक्सर दलित समुदाय के लड़के को ही मिलता है।
दलित छात्रों पर अत्याचार और उनकी सच्चाई

सीधे तौर पर दलित छात्रों पर अत्याचार करना मुश्किल होता है, इसलिए यह काम अक्सर अप्रत्यक्ष तरीके से किया जाता है। फिल्म में एक दलित समुदाय के लड़के के साथ हो रहे ऐसे ही सच को दिखाया गया है, जो आखिर तक दर्शकों को झकझोर देता है। इस तरह की बर्बरता का नतीजा कई बार लोगों की हत्या के रूप में सामने आता है। फिल्म में भी अंत में एक दलित समुदाय के कार्यकर्ता की हत्या दिखाई गई है, जिसे समाज तथाकथित आत्महत्या से मौत कह देता है। अगर इस पीड़ा को फिल्म में थोड़ा और जगह मिलती, तो संदेश और साफ तरीके से पहुंचता।
उसे अपनी जाति के बारे में छुपाना पड़ता है ताकि सार्वजनिक जगहों पर बिना हीन भावना के खड़ा हो सकें। मुर्दहिया, मणिकर्णिका और जूठन में भी यह दिखता है। जैसे प्रो. तुलसीराम को अपना नाम बदलकर तुलसीराम शर्मा रखना पड़ा। फिल्म के नायक की जिंदगी में भी यही दर्द है अपना नाम, पिता का काम या घर का पता बताते समय शर्म और हिचक महसूस होना। लेकिन एक बात खटकती है जब फिल्म में नायक के पिता कहते हैं कि उन्होंने नाचने के लिए समाज से संघर्ष किया। जबकि हकीकत यह है कि दलितों के पास काम के ज्यादा विकल्प नहीं होते। उन्हें अपने स्वाभिमान को दबाकर जो काम मिलता है, वही करना पड़ता है। विकल्प न होना ही दलित के जीवन की सच्चाई है।
फिल्म में एक दलित समुदाय के लड़के के साथ हो रहे ऐसे ही सच को दिखाया गया है, जो आखिर तक दर्शकों को झकझोर देता है। इस तरह की बर्बरता का नतीजा कई बार लोगों की हत्या के रूप में सामने आता है।
फिल्म का आदर्शवादी अंत और असलियत की कमी
शुरुआत को औसत कहा जा सकता है, लेकिन पटकथा का मध्य हिस्सा मजबूत है। संवाद और बेहतर हो सकते थे, जैसे मराठी और तमिल फिल्मों में देखने को मिलता है। कई जगह संवाद और कलाकारों के भाव मेल नहीं खाते, जबकि कुछ जगह संवाद सीधे असर करते हैं और गहरी चोट छोड़ते हैं। जैसे एक संवाद, “समझते ही तो नहीं हैं, सपने देखते रहते हैं रोटी–बेटी के संबंध बनाने के।” कभी-कभी ऐसा होता है कि जब कोई भाव अपनी तीव्रता पर होता है और दर्शक उसे महसूस कर रहा होता है, तभी अचानक दूसरा तेज़ भाव वाला दृश्य आ जाता है, जो थोड़ा अटपटा लगता है। शुरुआत में फ्लैशबैक दिखाकर उन ग्रामीण हालात को बताया जा सकता था, जिनकी वजह से परिवार को पलायन करना पड़ा। क्योंकि इसका जिक्र किया गया था, तो बेहतर होता अगर इसे जगह दी जाती। फिल्म के बीच में लड़की भी पितृसत्ता को चुनौती देती है, जो कई लोगों को चुभता है। दलित समुदाय की महिलाओं को फिल्मों में ज्यादा जगह नहीं मिली, जबकि मिलनी चाहिए थी।

अगर उन्हें फिल्म फैंड्री जितनी जगह मिलती, तो मुद्दा पूरी तरह सामने आता। नहीं तो यह कहानी सिर्फ दलित पुरुषों की रह जाएगी, दलित समुदाय की नहीं, फिल्म का अंत आदर्शवादी हो गया। बिल्कुल प्रेमचंद की शुरुआती कहानियों की तरह दलित लड़का परीक्षा दे रहा है, पेन बंद हो जाता है। तभी ‘दिल बदल चुका’ तथाकथित उच्च जाति का लड़का उसे पेन दे देता है और परीक्षा हॉल में उपकार कर जाता है और मज़ेदार बात यह कि यह सब 60 सेकेंड से भी कम में हो जाता है। सोचिए, दर्शक के हाथ क्या आया? परियेरुम पेरुमल का आखिर हिस्सा देखेंगे तो उसके संवाद में जो गुस्सा दिखता है वो हर दलित के अंदर मौजूद है, हिंदी सिनेमा में वो गायब हो जाता है। संगीत ने कहानी को कोई खास गति नहीं दी। एक संगीत में दलित पीड़ा दिखी। प्यार वाले गीत भी विमर्श को विस्तार दे सकते थे। लेकिन इस मामले में चूक गए।
धड़क 2 एक महत्वपूर्ण फिल्म है जो हिंदी सिनेमा में दलित विमर्श और सामाजिक असमानताओं को सामने लाने की कोशिश करती है। यह सिर्फ एक प्रेम कहानी नहीं, बल्कि जाति, पितृसत्ता और सामाजिक भेदभाव जैसे गहरे मुद्दों पर सवाल उठाती है। फिल्म ने दलित समुदाय की जिंदगियों के दर्द और संघर्ष को पर्दे पर लाने का साहस दिखाया है, हालांकि कुछ जगह इसे और गहराई से दिखाने की जरूरत थी। नारीवादी दृष्टिकोण से देखें तो यह फिल्म दलित महिलाओं की आवाज़ और उनके अनुभवों को भी उजागर करने की दिशा में एक पहला कदम है, लेकिन अभी इस क्षेत्र में और काम होने की जरूरत है। अंत में, धड़क 2 हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि समाज में बदलाव तभी संभव है जब हम सिर्फ प्रेम की खूबसूरती ही नहीं, बल्कि उससे जुड़े अन्याय और असमानताओं को भी समझें और उन्हें चुनौती दें। सिनेमा ऐसे विमर्श को जन-जन तक पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम है, जिसे सही दिशा में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

