इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ क्यों शैक्षिक संस्थानों में क्वीयर समुदाय की पहचान और अधिकारों की मान्यता की है तत्काल ज़रूरत?

क्यों शैक्षिक संस्थानों में क्वीयर समुदाय की पहचान और अधिकारों की मान्यता की है तत्काल ज़रूरत?

भारतीय स्कूल अब भी पितृसत्तात्मक और हेटेरोसेक्शुअल मान्यताओं के ढांचे में गहराई से जकड़े हैं। बच्चों को बहुत छोटी उम्र से ही ‘लड़का-लड़की’ के सख्त खांचों में ढाल दिया जाता है। उनके पहनावे, चाल-ढाल, बोलचाल और यहां तक कि खेलने के तरीक़ों से भी उनका जेंडर तय कर दिया जाता है।

“मैं यह शब्दों में बता नहीं कर सकती कि न्यूयॉर्क के कॉलेज कैंपस में चलते हुए जब मैं हर कोने, हर हॉलवे और यहां तक कि प्रशासनिक इमारतों पर भी इंद्रधनुषी झंडा लहराते देखती हूं तो ये मुझे कितना सुखद और सुरक्षित महसूस कराता है। ये झंडे मुझे दिखाते हैं कि मेरी पहचान देखी और सम्मानित की जा रही है।” कोलंबिया यूनिवर्सिटी गई एक भारतीय छात्रा के ये शब्द उस अंतर को दिखाते हैं कि समावेशी वातावरण कैसा महसूस कराता है और अदृश्यता कैसी लगती है। भारत के स्कूलों और कॉलेजों में क्वीयर पहचान को अक्सर वैध मानी ही नहीं जाती और अक्सर इसे विकृति, विद्रोह या किसी रोग के रूप में देखा जाता है। वर्ल्ड वैल्यूज सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 64 प्रतिशत लोग होमोसेक्सुअलिटी को कभी भी स्वीकारने योग्य नहीं मानते। भारतीय शैक्षिक संस्थान अब भी पितृसत्तात्मक और हेटेरोसेक्शुअल मान्यताओं के ढांचे में गहराई से जकड़े हैं।

बच्चों को बहुत छोटी उम्र से ही ‘लड़का-लड़की’ के सख्त खांचों में ढाल दिया जाता है। उनके पहनावे, चाल-ढाल, बोलचाल और यहां तक कि खेलने के तरीक़ों से भी उनका जेंडर तय कर दिया जाता है। अमेरिकी मनोरोग महामारी विज्ञानी, लेखक, प्रोफेसर इलान मेयर के विकसित माइनॉरिटी स्ट्रेस थ्योरी के अनुसार, हाशिए पर रह रहे समुदायों के लोगों को केवल बाहरी भेदभाव ही नहीं, बल्कि सामाजिक बहिष्कार, आत्मसंदेह और अपनी पहचान को बार-बार छिपाने की मानसिक थकान का भी सामना करना पड़ता है। जब शैक्षणिक संस्थान उनकी अस्मिता को नज़रअंदाज़ करते हैं या उसे मज़ाक का विषय बनाते हैं, तो इसका सीधा असर उनके मानसिक स्वास्थ्य, आत्मविश्वास और शैक्षणिक प्रदर्शन पर पड़ता है।

भारतीय शैक्षिक संस्थान अब भी पितृसत्तात्मक और हेटेरोसेक्शुअल मान्यताओं के ढांचे में गहराई से जकड़े हैं। बच्चों को बहुत छोटी उम्र से ही ‘लड़का-लड़की’ के सख्त खांचों में ढाल दिया जाता है। उनके पहनावे, चाल-ढाल, बोलचाल और यहां तक कि खेलने के तरीक़ों से भी उनका जेंडर तय कर दिया जाता है।

शिक्षा से वंचित, स्कूलिंग और चुप्पी की सामाजिक रचना

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

साल 2011 की जनगणना में ट्रांसजेंडर समुदाय की औसत साक्षरता दर मात्र 57.06 फीसद है, जबकि बिहार में यह 44.3 फीसद और झारखंड में 47.58 फीसद पाया गया। ये आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि शिक्षा प्रणाली एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के छात्रों के लिए कितनी कठिन और बहिष्करणकारी है। इंस्टिट्यूट ऑफ़ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ़ इंडिया से जुड़ी अश्वा (नाम बदला हुआ) ने बताया कि पाँचवीं कक्षा में उनकी टीचर ने उनकी डायरी पढ़ ली, जिसमें उन्होंने अपनी पहचान के बारे में लिखा था। टीचर ने यह दूसरों को भी पढ़ा दी और क्लास में सभी से कहा कि उनसे दूरी बनाए रखें। यह अनुभव दिखाता है कि जब स्कूल जैसे सुरक्षित माने जाने वाले स्थानों पर भेदभाव और दमन होता है, तो वह किसी की आज़ादी और आत्म-अभिव्यक्ति की क्षमता को गहराई से चोट पहुंचाता है। एलजीबीटीक्यू+ युवाओं में मानसिक स्वास्थ्य समस्या का संकट गंभीर है। द इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट अनुसार, इन युवाओं में अवसाद और चिंता आम युवाओं की तुलना में 1.75 गुना अधिक है, जबकि ट्रांसजेंडर युवाओं में यह 2.4 गुना तक पहुंच जाता है।

पाँचवीं कक्षा में उनकी टीचर ने उनकी डायरी पढ़ ली, जिसमें उन्होंने अपनी पहचान के बारे में लिखा था। टीचर ने यह दूसरों को भी पढ़ा दी और क्लास में सभी से कहा कि उनसे दूरी बनाए रखें। यह अनुभव दिखाता है कि जब स्कूल जैसे सुरक्षित माने जाने वाले स्थानों पर भेदभाव और दमन होता है, तो वह किसी की आज़ादी और आत्म-अभिव्यक्ति की क्षमता को गहराई से चोट पहुंचाता है।

उच्च शैक्षिक संस्थानों में क्या है हालात

भारतीय उच्च शिक्षण संस्थान अक्सर खुद को उदार और समावेशी बताते हैं लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इससे बिल्कुल अलग है। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज के छात्र ने अपना अनुभव साझा करते हुए कागते हैं, “मेडिकल संस्थानों में अपनी पहचान बताना केवल पेशेवर नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक आत्महत्या से मौत जैसी होती है। मेरे अस्पताल के मनोरोग विभाग के प्रमुख गरीब मरीज़ों के प्रति बेहद असंवेदनशील थे, ख़ासकर उन लोगों के प्रति, जिनके मेडिकल इतिहास में क्वीयर व्यवहार दर्ज था। उन्होंने खुले ओपीडी में उनका मज़ाक उड़ाया और उन्हें शर्मिंदा किया।”

भारतीय स्कूलों और कॉलेजों में सहायता समूह, प्रशिक्षित काउंसलर और जेंडर-संवेदनशील शिकायत तंत्र की कमी के कारण एलजीबीटीक्यू+ विद्यार्थी सुरक्षित विकल्प से आज भी वंचित हैं। जब एंटी-बुलीइंग और एंटी-एंटी सेक्शूअल हैरेसमेंट नीतियां केवल नाम मात्र की हों, तो उनकी स्थिति और भी असुरक्षित हो जाती है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

ऐसे माहौल में क्वीयर विद्यार्थी अपनी पहचान खुलकर साझा करने से हिचकते हैं क्योंकि यह केवल निजी निर्णय नहीं रह जाता, बल्कि उनके शैक्षणिक मूल्यांकन, पेशेवर छवि और करियर की दिशा पर गंभीर असर डाल सकता है। इसी तरह, आईआईटी कानपुर के एक विद्यार्थी का अनुभव भी इस वास्तविकता को उजागर करता है। वह कहते हैं, “हमारे संस्थान में आज भी कोई क्वीयर व्यक्ति खुलकर सामने नहीं आता क्योंकि लोग खुलेआम यह तक कह देते हैं कि गे लोगों को गोली मार देनी चाहिए और इस पर कोई विरोध नहीं करता।” यह स्थिति दिखाती है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में समावेश और सम्मान के दावे तभी सार्थक होंगे, जब क्वीयर विद्यार्थियों के लिए सुरक्षित, संवेदनशील और पूर्वाग्रह मुक्त वातावरण सुनिश्चित किया जाए।

मेडिकल संस्थानों में अपनी पहचान बताना केवल पेशेवर नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक आत्महत्या से मौत जैसी होती है। मेरे अस्पताल के मनोरोग विभाग के प्रमुख गरीब मरीज़ों के प्रति बेहद असंवेदनशील थे, ख़ासकर उन लोगों के प्रति, जिनके मेडिकल इतिहास में क्वीयर व्यवहार दर्ज था।

सामुदायिक प्रतिरोध और सहायक समूहों की ताक़त

जहां अनेक शैक्षणिक संस्थान अब भी हाशिये पर खड़े विद्यार्थियों के लिए असुरक्षित और असंवेदनशील बने हुए हैं, वहीं कुछ कैंपस ऐसे भी हैं जहां क्वीयर विद्यार्थी समुदायों ने अपने संगठनात्मक प्रयासों से प्रतिरोध और उम्मीद के लिए एक मज़बूत ज़मीन तैयार की है। आईआईटी दिल्ली का इंद्रधनु और आईआईएसईआर पुणे का सतरंगी जैसे समूह केवल भावनात्मक सहारा देने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे संस्थागत बदलाव की मांग के मज़बूत केंद्र बन चुके हैं। आईआईटी दिल्ली के एक क्वीयर छात्र बताते हैं, “हमारे समूह ने जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट्स और समावेशी नीतियों के लिए लंबा संघर्ष किया। आज अगर कोई कैंपस में होमोफोबिक टिप्पणी करता है, तो उसे अनुशासनात्मक कार्रवाई का डर होता है।” जब अलग-अलग पहचानों वाले समूह बराबरी और सम्मानजनक संवाद में आते हैं, तो उनके बीच मौजूद पूर्वाग्रह और भेदभाव कम होने लगते हैं। हालांकि इनके बावजूद, ऐसे प्रयासों को अक्सर संस्थागत रूप से ‘राजनीतिक’ या ‘अनुशासनहीन’ कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। एक छात्र अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, “हमें कैंपस में मीटिंग के लिए कोई जगह नहीं दी जाती, इसलिए हमें बाहर मिलना पड़ता है।”

शैक्षणिक पाठ्यक्रम और समावेशन

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

पाठ्यक्रम केवल ज्ञान नहीं देता, वह दृष्टिकोण भी गढ़ता है। जब क्वीयर अनुभवों, लैंगिक पहचान और यौनिक विविधता पर कोई सामग्री पाठ्यचर्या में शामिल नहीं होती, तो विद्यार्थियों को यह संदेश दिया जाता है कि इन अनुभवों का कोई सामाजिक, नैतिक या बौद्धिक महत्व नहीं है। भोपाल की रहने वाली एक क्वीयर छात्रा बताती हैं, “जब हिंदी के अध्यापक ने यमक अलंकार का यह उदाहरण दिया- सजना है मुझे सजना के लिए…तो उन्होंने आगे जोड़ा कि अब यह ‘सजनी के लिए’ भी हो सकता है। नौवीं कक्षा में यह पहली बार था जब मैंने ऐसी संभावना देखी, जो मुझे पहले कभी सोची भी नहीं थी। तब भले ही मैं यौनिकता का पहचान नहीं जानती थी, लेकिन यह मेरे लिए दुनिया को नए नज़रिए से देखने का मौका था।” वहीं, ट्रांस छात्रा द्रौपदी घोष, जो आज नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़ में शोध कर रही हैं, कहती हैं, “मैंने स्कूल में पढ़ा था ‘जेंडर एक सामाजिक संरचना है, लेकिन सेक्स जैविक है।’ उस पंक्ति को क्लास में किसी ने ध्यान से नहीं पढ़ा। शिक्षक ने उसे समझाना ज़रूरी नहीं समझा और सहपाठियों ने भी नज़रअंदाज़ कर दिया। लेकिन मेरे लिए वही एक वाक्य मेरी यात्रा की शुरुआत बन गयी। मैंने अकेले रास्ता ढूंढ़ा, लेकिन वह पंक्ति मेरे साथ रही।”

हमारे समूह ने जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट्स और समावेशी नीतियों के लिए लंबा संघर्ष किया। आज अगर कोई कैंपस में होमोफोबिक टिप्पणी करता है, तो उसे अनुशासनात्मक कार्रवाई का डर होता है।

यदि पाठ्यचर्या सटीक, जागरूक और संवेदनशील भाषा में तैयार की जाए, तो यह एलजीबीटीक्यू+ विद्यार्थियों के लिए केवल जानकारी का स्रोत नहीं, बल्कि आत्मपहचान और आत्मविश्वास का जरिया भी बन सकती है। इस विषय पर केंद्रीय विद्यालय की एक क्वीयर शिक्षिका अनामिका (नाम बदला हुआ) कहती हैं, “मैं नारीवाद, हाशियाकरण और स्टीरियोटाइप जैसे मुद्दों को कभी नज़रअंदाज़ नहीं करती। कोशिश रहती है कि बच्चे सहानुभूति के साथ सोचें। अगर कोई बच्चा ऐसे विचार रखता है, तो बाकी विद्यार्थियों को शामिल करके समझाती हूं कि विविध सोच समाज के लिए क्यों ज़रूरी है।” असल में शिक्षकों को खुद समर्थन और प्रशिक्षण की आवश्यकता है, ताकि वे बिना डर या पूर्वाग्रह के समावेशी शिक्षा दे सकें। वहीं जब छात्र किसी ऐसे शिक्षक को देखते हैं, जो खुद क्वीयर है और इसपर खुलकर बातचीत कर रहे हैं, तो एक संभावना बन जाता है कि वे भी अपने वास्तविक अस्तित्व के साथ इस व्यवस्था में स्वीकार्य और सम्मानित स्थान पा सकते हैं।

क्वीयर अनुकूल कैंपस की ज़रूरत

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए सुश्रिता

शैक्षणिक संस्थानों के लिए यह जरूरी है कि वे क्वीयर पहचानों को केवल स्वीकार ही न करें, बल्कि उन्हें संरचनात्मक रूप से जगह भी दें। दुनिया के कई देशों में यह कदम नीतिगत स्तर पर उठाया जा चुका है। उदाहरण के तौर पर, जेंडर-न्यूट्रल शौचालय और हॉस्टल की वैकल्पिक व्यवस्थाएं अब अंतरराष्ट्रीय मानकों का हिस्सा हैं। इसी तरह, सभी विषयों के पाठ्यक्रम में क्वीयर अनुभवों को शामिल करना केवल विविधता की स्वीकृति नहीं है, बल्कि शैक्षिक दुनिया की हेट्रोनॉर्मेटिव सीमाओं को तोड़ने का प्रयास है। विद्यार्थियों के लिए कानूनी रूप से नाम और जेंडर पहचान में बदलाव की सुविधा को संस्थागत सहयोग से जोड़ा जाना चाहिए, ताकि वे अपने दस्तावेज़ों और वास्तविक पहचान के बीच लगातार संघर्ष न करें।

जब हिंदी के अध्यापक ने यमक अलंकार का यह उदाहरण दिया- सजना है मुझे सजना के लिए…तो उन्होंने आगे जोड़ा कि अब यह ‘सजनी के लिए’ भी हो सकता है। नौवीं कक्षा में यह पहली बार था जब मैंने ऐसी संभावना देखी, जो मुझे पहले कभी सोची भी नहीं थी।

मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को क्वीयर संवेदनशील दृष्टिकोण से प्रशिक्षित किया जाना बुनियादी ज़िम्मेदारी है। खासतौर पर तब, जब क्वीयर विद्यार्थी माइनॉरिटी स्ट्रेस, जेंडर डिस्फोरिया और सामाजिक अस्वीकृति जैसे जटिल मनोवैज्ञानिक अनुभवों से जूझते हैं। हर शैक्षणिक संस्थान में स्पष्ट एंटी-बुलीइंग और एंटी-डिस्क्रिमिनेशन नीतियां होनी चाहिए, जो केवल दंड देने तक सीमित न हों, बल्कि संवेदनशीलता और संवाद को भी बढ़ावा दें। राज्यस्तरीय स्तर पर क्वीयर विद्यार्थियों के नामांकन, ड्रॉपआउट और अकादमिक प्रदर्शन से जुड़े डेटा को नियमित रूप से एकत्र और विश्लेषित किया जाना चाहिए। भारत में इस दिशा में अब भी राजनीतिक और संस्थागत इच्छाशक्ति की कमी है। जब तक यह इच्छाशक्ति नहीं आती, हमारी शिक्षा व्यवस्था समान अवसर नहीं, बल्कि विशेषाधिकार की व्यवस्था बनी रहेगी।

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