भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका अक्सर पारंपरिक दायरों तक सीमित रही है, जहां उस दौर में लड़कियों को स्कूल जाने, अपनी पसंद का काम करने और अपनी बात कहने की आजादी नहीं थी। पितृसत्ता, जातिगत भेदभाव और सामाजिक रूढ़िवादी सोच के बीच, महिलाओं के सपनों और अधिकारों पर कई तरह की बंदिशें थीं। लेकिन ऐसे माहौल में भी कुछ महिलाएं इन रुकावटों को तोड़कर न केवल अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी एक नया रास्ता बनाया। रोज केरकेट्टा ऐसी ही एक प्रेरणादायी शख्सियत थीं।
वे झारखंड की प्रसिद्ध आदिवासी लेखिका, शिक्षाविद, मानवाधिकार कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जिन्होंने आदिवासी पहचान, संस्कृति और अधिकारों की आवाज को स्थानीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया। रोज का जीवन इस बात का उदाहरण है कि शिक्षा और जागरूकता से कैसे व्यक्ति अपने समय की सीमाओं को चुनौती दे सकता है। उन्होंने न सिर्फ खुद पढ़ाई की, बल्कि समाज के हाशिये पर रह रहे लोगों, खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए शिक्षा और अधिकारों की लड़ाई लड़ी। वे जल, जंगल, जमीन और आदिवासी पहचान की प्रमुख आवाज रहीं। उनका काम और सोच आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देती है कि बदलाव संभव है बस हिम्मत और मेहनत की जरूरत है।
वे झारखंड की प्रसिद्ध आदिवासी लेखिका, शिक्षाविद, मानवाधिकार कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जिन्होंने आदिवासी पहचान, संस्कृति और अधिकारों की आवाज को स्थानीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया।
शुरुआती जीवन और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान

रोज केरकेट्टा का जन्म 5 दिसंबर 1940 को झारखंड के सिमडेगा जिले के कइसरा सुंदरा टोली गांव में आदिवासी परिवार में हुआ था। उनकी माँ का नाम मर्था केरकेट्टा था और पिता का नाम एतो खड़िया था। उनके पिता एक शिक्षक, नेता, समाज सुधारक और संस्कृति के प्रेमी थे। परिवार में शुरू से शिक्षा और सांस्कृतिक माहौल था, जिस वजह से रोज को भी समाज के लिए न्याय और अपनी संस्कृति के प्रति कुछ करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने अपनी शुरूआती शिक्षा कोंडरा (गुमला जिला), खूंटी टोला और सिमडेगा जिला से प्राप्त की। स्नातक की शिक्षा उन्होंंने बी.ए कॉलेज सिम़़डेगा से और पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई रांची विश्वविद्यालय से पूरी की। रांची विश्वविद्यालय से ही खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा आदिवासी भाषा, संस्कृति, साहित्य और महिलाओं के अधिकार को समर्पित किया। उन्होंने खड़िया भाषा को न केवल लेखन के माध्यम से जीवंत रखा, बल्कि उसके संरक्षण के लिए भी लगातार प्रयास किए।
उन्होंने उस दौर में अपनी पढ़ाई पूरी की जब आदिवासी, दलित और ग्रामीण समुदायों को समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता था। हाशिये पर रह रहे समुदाय के लोगों को जातिगत आधार पर तथाकथित ऊंचा और नीचा मान कर कामों का विभाजन किया जाता था। शिक्षा को उस समय केवल तथाकथित उच्च जातियों का अधिकार माना जाता था। ऐसे भेदभावपूर्ण माहौल में वो न केवल खुद पढ़ीं, बल्कि उन्होंने समाज के अन्य हाशिये पर खड़े समुदायों के लिए शिक्षा की मशाल भी जलाई। उन्होंने विशेष रूप से बिहार और झारखंड के सुदूरवर्ती इलाकों में ग्रामीण, आदिवासी और ‘बिरहोड़’ जैसी जनजातियों के बीच जागरूकता फैलाने का काम किया। महिलाओं और बच्चों की शिक्षा को अपनी प्राथमिकता में रखा और कई परियोजनाएं चलाईं। जिनका उद्देश्य था समाज में फैले ऊंच-नीच और जातिगत भेदभाव को खत्म करना।
उन्होंने उस दौर में अपनी पढ़ाई पूरी की जब आदिवासी, दलित और ग्रामीण समुदायों को समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता था। हाशिये पर रह रहे समुदाय के लोगों को जातिगत आधार पर तथाकथित ऊंचा और नीचा मान कर कामों का विभाजन किया जाता था।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक कार्यों में योगदान

वह झारखंड आदिवासी महिला सम्मेलन की संस्थापक थीं और साल 1986 से 1989 तक अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर इसके संचालन का काम संभालती रहीं। वे समाज के विकास, नई नीतियों के निर्माण, महिलाओं और वंचित समुदायों के अधिकारों के लिए समर्पित रहीं। वे कई राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से जुड़ी रहीं और निरंतर हाशिये पर रह रहे व्यक्तियों से जुडी समस्याओं के बारे में बात करती रहीं। उन्हें देश-विदेश के विभिन्न मंचों पर आदिवासी महिलाओं, बच्चों, शिक्षा और सांस्कृतिक मुद्दों पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया जाता था। इन सम्मेलनों में वे जेंडर संवेदनशीलता, मानवाधिकार, आदिवासी संपत्ति के अधिकार, पलायन और हिंसा जैसे गंभीर मुद्दों पर अपने विचार साझा करती थीं। उनकी भाषा में जमीनी सच्चाई, अनुभव और प्रतिबद्धता झलकती थी। उनकी सक्रियता केवल लेखन तक सीमित नहीं थी, बल्कि उनकी भागीदारी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर विभिन्न सम्मेलनों में बराबरी से दर्ज होती रही।
राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने कई महत्वपूर्ण आयोजनों में भाग लिया, जिनमें रांची में आयोजित आदिवासी सम्मेलन, बेंगलुरु, दिल्ली, कोलकाता और छत्तीसगढ़ में हुए मानवाधिकार विषयक आयोजन शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने पटना, रांची और कोलकाता में आयोजित राष्ट्रीय नारी मुक्ति संघर्ष सम्मेलन में भी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज की। उनका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत अच्छा योगदान रहा है। साल 1994 में बर्लिन में हुए आदिवासी दशक के उद्घाटन समारोह में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया। इसके अलावा, वे वर्ल्ड सोशल फोरम और इंडियन सोशल फोरम जैसे बड़े वैश्विक मंचों पर भी सक्रिय रहीं। इन आयोजनों में उन्होंने जेंडर, जमीन के अधिकार, शिक्षा, पलायन, उत्पीड़न और सांस्कृतिक संरक्षण जैसे मुद्दों पर अपनी मजबूत और साफ आवाज़ दुनिया के सामने रखी। इससे आदिवासी विषयों या विमर्श को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली।
राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने कई महत्वपूर्ण आयोजनों में भाग लिया, जिनमें रांची में आयोजित आदिवासी सम्मेलन, बेंगलुरु, दिल्ली, कोलकाता और छत्तीसगढ़ में हुए मानवाधिकार विषयक आयोजन शामिल हैं।
साहित्यिक योगदान और पुरस्कार

रोज न केवल एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं, बल्कि एक अत्यंत समर्पित और संवेदनशील लेखिका भी थीं। उन्होंने हिंदी और खड़िया भाषा में कई तरह के लेख लिखे । उनके साहित्य से हमें जीवन के संघर्ष, निरंतरता और मनपसंद कार्यों को बिना रुके करते रहने की प्रेरणा मिलती है। उन्होंने प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया भाषा में अनुवाद किया, जो एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कृति है। इसके अतिरिक्त उन्होंने खड़िया निंबध संग्रह तथा खड़िया भाषा में गद्य पाठ भी लिखे। उनकी लिखी हुई प्यारा मास्टर एक प्रेरणादायक जीवनी है, जो आदिवासी समाज की सोच और जागरूकता को दिखाती है। उनका लेखन व्यापक विषयों को समेटे हुए है, जिसमें हिंदी कहानी संग्रह, नाटक संग्रह, खड़िया लोक कथाएं, कविताएं, निबंध, शोध ग्रंथ और बाल साहित्य शामिल हैं। उन्होंने आंधी दुनिया नामक महिलाओं की त्रैमासिक पत्रिका का संपादन भी किया, जो महिला मुद्दों पर केंद्रित एक सशक्त मंच था। साल 2008 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें पहला रानी दुर्गावती राष्ट्रीय सम्मान दिया। इसके अलावा उन्हें कई बार क्षेत्रीय और राज्य स्तर के पुरस्कार भी मिले। 17 अप्रैल 2025 में उनकी मृत्यु हो गई लेकिन अपनी रचनाओं और सामाजिक कार्यों के माध्यम से वो हमेशा याद की जाएंगी।
रोज केरकेट्टा का जीवन और काम भारतीय समाज में विशेष रूप से आदिवासी समुदाय और महिलाओं के लिए प्रेरणादायक उदाहरण हैं। पितृसत्ता, जातिगत भेदभाव और सामाजिक रूढ़िवाद के बीच उन्होंने शिक्षा, जागरूकता और सक्रियता के माध्यम से अपने अधिकारों और पहचान की लड़ाई लड़ी। उनका संघर्ष केवल व्यक्तिगत सफलता तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने पूरे आदिवासी समाज को संगठित कर उनके सांस्कृतिक, सामाजिक और शैक्षिक अधिकारों को मजबूती से आगे बढ़ाया। रोज ने न केवल खड़िया भाषा और संस्कृति के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए शिक्षा को एक सशक्त माध्यम बनाया। उन्होंने अपने लेखन, सामाजिक कार्य और नेतृत्व से आदिवासी महिलाओं और बच्चों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में काम किया। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उनकी सक्रिय भागीदारी ने आदिवासी मुद्दों को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई। उनका योगदान आदिवासी समुदाय और महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई में एक स्थायी धरोहर के रूप में याद रखा जाएगा।

