समाजकैंपस कैसे स्कूलों में मौजूद जातिवाद और धार्मिक कट्टरता बच्चों के शिक्षा का हक़ छीन रही है

कैसे स्कूलों में मौजूद जातिवाद और धार्मिक कट्टरता बच्चों के शिक्षा का हक़ छीन रही है

एक आंकड़े के अनुसार, 65 फ़ीसद दलित बच्चे जिनके साथ स्कूल में जाति के आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न हुआ उनके मार्क्स कम हो गए और इनमें से 40 फीसद में तनाव और डिप्रेशन की समस्या देखी गई। यही नहीं लंबे समय तक भेदभाव और उत्पीड़न के चलते दलित समुदाय के बच्चों में स्कूल ड्रॉप आउट रेट भी ज़्यादा देखा गया।

किसी भी समाज में शिक्षा को बदलाव का सबसे बड़ा ज़रिया माना जाता है। यह उम्मीद की जाती है कि शिक्षा से ही सभी मनुष्यों को स्वतंत्रता, समानता और गरिमापूर्ण जीवन जीने का मौका मिलेगा। स्कूल, कॉलेज समेत तमाम शैक्षणिक संस्थानों से बच्चों को प्रेम, दोस्ती और इंसानियत सिखाने और समझाने की उम्मीद रहती है। लेकिन जब यही संस्थान जातिवाद, धार्मिक नफ़रत और भेदभाव को और बढ़ाने का ज़रिया बन जाएं तो यह बेहद चिंता का विषय बन जाता है। समाज से ग़ैर बराबरी और भेदभाव को दूर करने के लिए आज से 75 साल पहले ही संविधान बनाया गया। इसके इतने अरसे बीतने के बावजूद आज भी वंचित, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भेदभाव और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। ख़ासकर स्कूल-कॉलेजों में जब इस तरह की घटनाएं आम हो जाती हैं तो यह न सिर्फ़ बच्चों के मानसिक विकास पर असर डालता है बल्कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे को भी कमज़ोर करता है।

जाति और धर्म के शिकंजे में जकड़ा समाज

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देश के संविधान और क़ानून की नज़र में भले ही देश के सभी नागरिक बराबर हैं लेकिन समाज आज भी सदियों पुरानी रूढ़िवादी पित्तृसत्तात्मक मानसिकता से चलता है, जिसमें जाति, धर्म और जेंडर के आधार पर एक को दूसरे से कमतर समझा जाता है। ज़मीनी स्तर पर आज भी क़ानून के बजाय समाज के ठेकेदारों का बोलबाला है, जो भेदभावपूर्ण नियमों को संस्कृति और परंपरा के नाम पर बनाए रखना चाहते हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 सबको समान दर्ज़ा देता है, अनुच्छेद 15 जाति, धर्म, जेंडर और दूसरे आधारों पर होने वाले भेदभाव को रोकता है। वहीं अनुच्छेद 17 छुआछूत पर रोक लगाने से जुड़ा हुआ है।

स्कूलों में सवर्ण शिक्षक बच्चों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। उनको यह लगता है कि ये योग्य नहीं है और सरकार इन्हें बेवजह सुविधाएं दे रही। इनडायरेक्ट ताने सुनाना और नीचे दिखाना इनके लिए आम बात है।

साथ ही नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955, तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के बावजूद आए दिन ऐसी ख़बरें देखने को मिलती हैं, जिसमें दलित या अल्पसंख्यक होने की वजह से लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। इसमें स्कूलों में दलित और वंचित समुदाय के बच्चों को अलग बिठाकर खाना खिलाना, अपने बर्तन अलग रखना शामिल है। यही नहीं इन बच्चों से सफाई का काम भी करवाया जाता है जो उसी क्लास के कथित उच्च जाति के बच्चों से कभी नहीं कराया जाता। इसके साथ ही इन्हें ऐसी ग्रुप एक्टिविटी और खेलों से अलग कर दिया जाता है जिसमें एक दूसरे को छूने की संभावना होती है। 

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द प्रिंट में प्रकाशित तमिलनाडु अस्पृश्यता उन्मूलन मोर्चा की रिपोर्ट में पाया गया कि राज्य के लगभग 30 फीसद स्कूलों में दलित छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है। उन्हें अलग लाइन में बैठकर भोजन करने के लिए मजबूर किया जाता है। कलाई में बैंड से अलग से पहचान सुनिश्चित की जाती है, यही नहीं उनसे शौचालय साफ करने जैसे काम तक करवाए जाते हैं। मधुपुर, झारखंड की सामाजिक कार्यकर्ता रजनी मुर्मू ने इस मुद्दे पर अपने विचार साझा किया, “जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ नियम क़ानून बनने से जनता में कुछ हद तक जागरूकता आई है लेकिन लोग अब भी पूर्वाग्रह और रूढ़ियों से ग्रसित हैं। दलित, आदिवासी समुदाय को अपने से कमतर समझते हैं। स्कूलों में रसोईया की जाति काफ़ी मायने रखती है। इसके साथ ही बच्चे भी जाति के आधार पर अपने सहपाठियों से दूरी मेंटेन करते हैं। टीचर भी वंचित जातियों के बच्चों को ग़लत तरीके से ट्रीट करते हैं। आज के जनरेशन के युवा टीचर्स में भी इस तरह के जातिगत पूर्वाग्रह देखना बेहद निराशाजनक है।”

द प्रिंट में प्रकाशित तमिलनाडु अस्पृश्यता उन्मूलन मोर्चा की रिपोर्ट में पाया गया कि राज्य के लगभग 30 फीसद स्कूलों में दलित छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है। उन्हें अलग लाइन में बैठकर भोजन करने के लिए मजबूर किया जाता है।

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स्कूलों में जातिवाद और धार्मिक भेदभाव

धार्मिक कट्टरता और भेदभाव से जुड़ा हालिया मामला कर्नाटक का है। यहां के बेलगावी जिले के स्कूल में मुस्लिम प्रिंसिपल का ट्रांसफर करवाने के लिए कट्टर धार्मिक लोगों ने पानी की टंकी में ज़हर मिला दिया। इससे 11 छात्रों की तबीयत खराब हो गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की ख़बर के अनुसार पकड़े गए तीनों आरोपियों सागर पाटिल, कृष्णा मदार और मगनगौड़ा पाटिल में से सागर पाटिल श्रीराम सेना का प्रमुख था। अगस्त में ही कर्नाटक के बागलकोट जिले के एक सरकारी हाई स्कूल में छात्रों में प्रिंसिपल के ख़िलाफ़ जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सामूहिक धरना प्रदर्शन भी किया। सिर्फ़ कर्नाटक ही नहीं देश के अलग-अलग राज्यों में जाति- धर्म के आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएं आए दिन देखने को मिलती रहती हैं। 

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सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) में प्रकाशित 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश के बरेली में दलित नाबालिक छात्र को फल तोड़ने से मना करने पर उसके शिक्षक ने बेरहमी से पिटाई कर दी थी। प्रदेश की ही एक और घटना में कक्षा एक में पढ़ने वाले 6 साल के दलित बच्चे को उसके शिक्षकों ने स्कूल का शौचालय साफ करने के लिए मजबूर किया। इस तरह की घटनाएं आए दिन देश के कोने-कोने से आती रहती हैं जहां जाति के आधार पर दलित और वंचित समुदाय के बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। कभी उनको मिड डे मील में सबसे आख़िर में खाना मिलता है तो कभी अलग लाइन में बिठा दिया जाता है। कभी कभी स्कूल के सहपाठी अपमानित करते हैं तो कभी ख़ुद शिक्षक ही भेदभाव करते हैं।

जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ नियम क़ानून बनने से जनता में कुछ हद तक जागरूकता आई है लेकिन लोग अब भी पूर्वाग्रह और रूढ़ियों से ग्रसित हैं। दलित, आदिवासी समुदाय को अपने से कमतर समझते हैं। स्कूलों में रसोईया की जाति काफ़ी मायने रखती है। इसके साथ ही बच्चे भी जाति के आधार पर अपने सहपाठियों से दूरी मेंटेन करते हैं।

कानपुर, उत्तर प्रदेश के शिक्षक पंकज कुमार (बदला हुआ नाम) ने बातचीत में बताया, “स्कूलों में सवर्ण शिक्षक बच्चों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। उनको यह लगता है कि ये योग्य नहीं है और सरकार इन्हें बेवजह सुविधाएं दे रही। इनडायरेक्ट ताने सुनाना और नीचे दिखाना इनके लिए आम बात है। यही नहीं स्कूल में पढ़ने वाले सामान्य वर्ग के बच्चे भी अपने दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों का मज़ाक उड़ाते हैं और उनसे दूरी बनाकर चलते हैं। स्कूलों में भेदभाव रोकने के लिए पूरे समाज से जाति और धर्म को लेकर पूर्वाग्रह को ख़त्म करना होगा जो एक लंबी प्रक्रिया है।”

भेदभाव का सामाजिक असर 

स्कूल में शिक्षकों के द्वारा इस तरह के भेदभाव किए जाते हैं जिससे दलित और वंचित समुदाय के बच्चों में हीन भावना जन्म लेती है और उनका आत्मविश्वास भी घटने लगता है। इन घटनाओं का असर क्लास में मौजूद कथित उच्च वर्ग के बच्चों पर भी पड़ता है और उनके अंदर ऊंच नीच की भावना को बढ़ावा मिलता है क्योंकि बच्चों के मन में अक्सर यह धारणा होती है कि शिक्षक जो करते हैं ठीक ही करते हैं। बहुत सारे बच्चे शिक्षकों को अपना आदर्श मानते हैं ऐसे में उन्हीं के द्वारा इस तरह की अमानवीय हरकतें बेहद अफ़सोसजनक हैं, जिनमें सुधार किया जाना ज़रूरी है। इस तरह के भेदभाव से बच्चों की पढ़ाई भी बुरी तरह से प्रभावित होती है।

स्कूल में शिक्षकों के द्वारा इस तरह के भेदभाव किए जाते हैं जिससे दलित और वंचित समुदाय के बच्चों में हीन भावना जन्म लेती है और उनका आत्मविश्वास भी घटने लगता है।

आईआईडीएस के एक आंकड़े के अनुसार, 65 फ़ीसद दलित बच्चे जिनके साथ स्कूल में जाति के आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न हुआ उनके मार्क्स कम हो गए और इनमें से 40 फीसद में तनाव और डिप्रेशन की समस्या देखी गई। यही नहीं लंबे समय तक भेदभाव और उत्पीड़न के चलते दलित समुदाय के बच्चों में स्कूल ड्रॉप आउट रेट भी ज़्यादा देखा गया। शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार एससी एसटी छात्रों की सेकेंडरी लेवल पर ड्रॉप आउट रेट 17.2 फीसद है जबकि राष्ट्रीय औसत 12.6 फीसद है। इससे स्पष्ट होता है कि इस तरह की घटनाएं व्यक्ति को निजी तौर पर ही नहीं बल्कि उसके परिवार और समाज को भी नुकसान पहुंचाती हैं। जब स्कूल जहां भविष्य का निर्माण होता है वहीं इस तरह से भेदभाव की नींव डाली जाएगी तो आने वाली पीढ़ी से भी बदलाव की उम्मीद कम हो जाती है।

क्या हो सकता है समाधान?

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हमें यह समझना होगा कि देश का संविधान और क़ानून किसी भी तरह के नियम और परंपराओं से बढ़कर है। धर्म और संस्कृति के नाम पर ग़ैरबराबरी और शोषण किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। अब चूंकि देश के शिक्षक ही आने वाली पीढ़ियों आपके भविष्य की नींव रखते हैं ऐसे में उन्हें संवेदनशील ज़िम्मेदार और जवाबदेह बनाना होगा। इसका एक बेहतरीन उदाहरण केरल का एंटी कास्ट वर्कशॉप है जो 2023 में आयोजित किया गया था। इसके माध्यम से 10000 शिक्षकों को एंटी कास्ट की ट्रेनिंग दी गई। इसी तरह जाति, धर्म, जेंडर या सेक्सुअलिटी के आधार पर संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षकों को ट्रेनिंग देने की ज़रूरत है। जिससे वे बच्चों के लिए किसी भी तरह के भेदभाव से दूर एक ऐसा माहौल बनाएं जिसमें सभी अपने आप को सहज और सुरक्षित महसूस कर सकें। स्कूल के पाठ्यक्रम में बदलाव की ज़रूरत है जिसमें संविधान के मूल्यों को शामिल किया जाना चाहिए।

आईआईडीएस के एक आंकड़े के अनुसार, 65 फ़ीसद दलित बच्चे जिनके साथ स्कूल में जाति के आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न हुआ उनके मार्क्स कम हो गए और इनमें से 40 फीसद में तनाव और डिप्रेशन की समस्या देखी गई।

तमिलनाडु का जाति विहीन स्कूल मॉडल इसकी एक अच्छी मिसाल है। इसके अलावा हर स्कूल में एंटी डिस्क्रिमिनेशन सेल और काउंसलिंग सेंटर होना चाहिए जहां बच्चा किसी भी तरह की भेदभाव होने पर अपनी बात रख सके। बच्चों को गुमनाम तरीके से शिकायत रखने का भी मौका मिलना जरूरी है जिससे वे बिना किसी डर और हिचक के अपनी बात कह सकें। स्कूलों में बच्चों को सामूहिक गतिविधियों में शामिल किया जाना चाहिए जिससे एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह को ख़त्म कर मेल-जोल बढ़ाया जा सके। इसके साथ ही पैरेंट टीचर मीटिंग में जाति, धर्म के मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए जिससे समस्या को अच्छी तरह से समझा जाए और समाधान निकाला जा सके। इन सब के अलावा समाज में बड़े पैमाने पर जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए जिससे बराबरी पर आधारित समाज बना सकें। क्योंकि शिक्षक हों या विद्यार्थी सभी इसी समाज की उपज हैं और उनका असर पूरे समाज पर पड़ता है।

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