इंटरसेक्शनलजाति सवर्ण नजरिए से ‘जातिवाद’ को दिखाती बॉलीवुड को क्यों बदलने की जरूरत है?

सवर्ण नजरिए से ‘जातिवाद’ को दिखाती बॉलीवुड को क्यों बदलने की जरूरत है?

जातिवाद को गांव तक सीमित समस्या बताकर प्रस्तुत किया गया, जैसे 2001 में आई सुपरहिट फिल्म ‘लगान’ में दलित किरदार ‘कचरा’ को हाशिए पर रखा गया। न सिर्फ यहां किरदार को स्टेरीओटाइप किया गया बल्कि किरदार को एक जातिवादी नाम देने से भी फिल्म निर्देशक नहीं चूके।

बीते दिनों ‘संतोष’ और ‘फुले’ जैसी फ़िल्मों की भारत में रिलीज़ पर सेंसर बोर्ड की भूमिका ने यह बहस फिर से छेड़ दी कि बॉलीवुड में जातिवाद को अब तक किस तरह दिखाया जाता रहा है और उसे किस हद तक सीमित  किया जाता रहा है। जातिवाद भारत की एक गंभीर राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं में से एक है। साल 1940 के दशक से 1960 के बीच पॉपुलर हिन्दी सिनेमा में दलित पात्र और उनके मुद्दे लगभग गायब रहे, जबकि राजनीति में सामाजिक न्याय की चर्चा तेज़ हो रही थी। फ़िल्मों में जातिगत भेदभाव को कभी-कभार दिखाया गया भी तो कथित सवर्ण नजरिए से।

‘अछूत कन्या’ (1936) और ‘सुजाता’ (1959) जैसी फ़िल्मों ने दलित पात्रों को सहानुभूति के साथ जरूर दिखाया, लेकिन उन्हें एक निष्क्रिय, पीड़ित और बेबस पात्र के रूप में पेश किया गया, जिन्हें कथित ऊंची जातियों की मदद की ज़रूरत होती है। ‘सुजाता’ में दलित लड़की को तभी स्वीकार किया गया जब वह ब्राह्मणवादी आदर्शों पर खरी उतरती है। इन फ़िल्मों ने जातिवाद को सिर्फ़ निजी समस्या के रूप में दिखाया, उसकी सामाजिक और संरचनात्मक जड़ों की अनदेखी की। इस दौर का सिनेमा जातिगत रूढ़ियों को तोड़ने के बजाय, कई बार उन्हें और मज़बूत करता रहा।

जातिवाद को गांव तक सीमित समस्या बताकर प्रस्तुत किया गया, जैसे 2001 में आई सुपरहिट फिल्म ‘लगान’ में दलित किरदार ‘कचरा’ को हाशिए पर रखा गया। न सिर्फ यहां किरदार को स्टेरीओटाइप किया गया बल्कि किरदार को एक जातिवादी नाम देने से भी फिल्म निर्देशक नहीं चुके।

लोकप्रिय बनाम समानांतर सिनेमा में दलित प्रतिनिधित्व

तस्वीर साभार: FreeVoice

साल 1970–90 के दशक में पॉपुलर सिनेमा और समानांतर सिनेमा ने सामाजिक अन्याय, भ्रष्ट सत्ता और वर्ग के संघर्ष को दिखाया। इस दौर की फिल्मों जैसे ज़ंजीर, दीवार और कूली ने सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले ‘एंग्री यंग मैन’ को केंद्र में रखा, लेकिन इसमें जाति के पहलू को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया। नायक की पहचान केवल वर्ग संघर्ष तक सीमित रही। वहीं, समानांतर या ‘न्यू वेव’ सिनेमा ने दलित अनुभवों को अधिक यथार्थवादी रूप में दिखाने की कोशिश की। साल 1974 में आई अंकुर, 1985 की दामुल, साल 1981 की सद्गति, 1984 की गिद्ध  जैसी फिल्मों में ज़मींदारी शोषण, जातीय हिंसा और बंधुआ मज़दूरी जैसे मुद्दे उठाए गए। श्याम बेनेगल की अंकुर में जाति और सत्ता के गहरे संबंध को दिखाया गया। हालांकि, इन फिल्मों ने सामाजिक सच्चाइयों को उजागर किया, लेकिन इनकी पहुंच सीमित रही। साथ ही, दलित आंदोलन की का मूल, भाव और बदलाव की आवाज़ों को पर्दे पर जगह नहीं मिली। दलित पात्रों को केवल पीड़ित, ग़रीब और हाशिए पर ही दिखाया गया, न कि बदलाव के नेतृत्वकर्ता के रूप में।

1990 और 2000 के दशक का बॉलीवुड और जातिगत चित्रण

तस्वीर साभार: The Print

साल 1990 के बाद बॉलीवुड ने वैश्वीकरण और शहरी मध्यवर्ग की ओर रुख किया। फ़िल्मों में आदर्श, सपनों से भरी ज़िंदगियां दिखीं, लेकिन जातिवाद और जाति के मुद्दे लगभग नदारद रही। किरदारों की जाति का ज़िक्र नहीं होता था, लेकिन वे आमतौर पर सवर्ण जातियों से होते थे। दलित पात्र अक्सर नौकर, ड्राइवर या मज़ाकिया साइड रोल में दिखते, वो भी स्टीरियोटिपिकल अंदाज़ में। इसके अलावा, जातिवाद को गांव तक सीमित समस्या बताकर प्रस्तुत किया गया, जैसे 2001 में आई सुपरहिट फिल्म ‘लगान’ में दलित किरदार ‘कचरा’ को हाशिए पर रखा गया। न सिर्फ यहां किरदार को स्टेरीओटाइप किया गया बल्कि किरदार को एक जातिवादी नाम देने से भी फिल्म निर्देशक नहीं चूके।

‘बैंडिट क्वीन’ (1994), ‘आरक्षण’ (2011) जैसी फ़िल्मों से शुरू होकर ‘मसान’ (2015), ‘मुक्काबाज़’ (2017), ‘सोनचिरैया’ (2019), ‘झुंड’ (2022) और ‘संतोष’ (2024) जैसी फ़िल्में दलित जीवन, प्रेम, खेल, और सत्ता के भीतर जातिवाद के असर को गहराई से दिखाती हैं।

हालांकि अपवाद भी थे। साल 1994 में आई  ‘बैंडिट क्वीन’ ने दलित और महिला होने के दोहरे शोषण को साहसिक रूप से दिखाया। उसी साल आई फिल्म ‘तर्पण’ और 1999 में आई ‘शूल’ ने भी जातिगत भेदभावों को संस्थागत संदर्भों में छुआ। ‘हासिल’, ‘हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी’, और ‘गुलाल’ जैसी फ़िल्मों ने राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को उठाया, लेकिन इनमें हाशिए के समुदायों को या तो पूरी तरह ग़ायब रखा गया या बैकग्राउंड में सीमित कर दिया गया। इन फ़िल्मों में सत्ता और संघर्ष की कहानियों का केंद्र फिर भी ऊंची जातियों के पात्र ही रहे।

2010 के बाद की हिन्दी फ़िल्मों में जातिवाद

तस्वीर साभार: Indian Express

21वीं सदी में हिन्दी सिनेमा में जातिवाद को लेकर नया दृष्टिकोण उभरा है। अब कई फ़िल्में दलित किरदारों को स्टीरियोटाइप से हटकर, सोचने-विचारने वाले, संघर्षशील इंसानों के रूप में पेश कर रही हैं। ‘बैंडिट क्वीन’ (1994), ‘आरक्षण’ (2011) जैसी फ़िल्मों से शुरू होकर ‘मसान’ (2015), ‘मुक्काबाज़’ (2017), ‘सोनचिरैया’ (2019), ‘झुंड’ (2022) और ‘संतोष’ (2024) जैसी फ़िल्में दलित जीवन, प्रेम, खेल, और सत्ता के भीतर जातिवाद के असर को गहराई से दिखाती हैं। ‘आर्टिकल 15’ (2019) जातीय हिंसा और सिस्टम में जातिवाद की गहराई को उजागर करती है।

फ़िल्म में दलित समुदाय को एकरूप न दिखाकर, उनके अंदर की विविधता को समझने की कोशिश की गई है। साल 2015 की ‘NH10’ और 2011 की ‘आरक्षण’ जैसी फ़िल्में जातिवाद पर बात तो करती हैं, लेकिन समावेशी दृष्टिकोण के बजाय एक सवर्ण नजरिए से समस्याओं को आंकने की कोशिश करती है। ‘आरक्षण’ में आरक्षण को संवैधानिक अधिकार की जगह नैतिक बहस के रूप में दिखाया गया है, जिससे उसका असर कमजोर हो जाता है। अब की फ़िल्में सिर्फ़ जाति को मुद्दा बनाकर नहीं, बल्कि उसके पीछे के सामाजिक ढांचों और वर्गीय राजनीति को भी सामने लाने की कोशिश कर रही हैं।

साल 2015 की ‘NH10’ और 2011 की ‘आरक्षण’ जैसी फ़िल्में जातिवाद पर बात तो करती हैं, लेकिन समावेशी दृष्टिकोण के बजाय एक सवर्ण नजरिए से समस्याओं को आंकने की कोशिश करती है। ‘आरक्षण’ में आरक्षण को संवैधानिक अधिकार की जगह नैतिक बहस के रूप में दिखाया गया है।

बॉलीवुड में जाति का चित्रण और स्टीरियोटाइप्स

बॉलीवुड में जातिवाद को लेकर बनी फ़िल्मों में गंभीर खामियां रही हैं। दलित समुदाय के लोगों को अक्सर फिल्में स्टीरियोटाइप तरीके से, ग़रीब, दबे-कुचले और हीन रूप में दिखाती है। ‘लगान’ का कचरा या ‘आर्टिकल 15’ में ‘ब्लैकफेस’ इसका उदाहरण हैं। इसके अलावा, कैमरे के पीछे और स्क्रीन पर दलितों की मौजूदगी बेहद कम है। उनकी कहानियां अक्सर ऊंची जातियों के नज़रिए से ही दिखाई जाती हैं, जैसे ‘धड़क’ में ‘सैराट’ की जातिवाद के बदले गरीबी अमीरी को महत्व दिया गया। जातिवाद से लड़ने वाले नायक भी अक्सर ऊंची जाति के होते हैं, जो दलितों को कथित तौर पर ‘बचाते’ हैं।  जैसे ‘आर्टिकल 15’ का एक आईपीएस अफसर। इससे असल समस्या के समाधान की जगह सहानुभूति का झूठा नैरेटिव बनता है। इसी तरह ‘पानीपत’ (2019) में जातीय संघर्षों को पुराने ज़माने की बात बताकर आज के संदर्भ से काट दिया गया। ऐसी फ़िल्मों में जातिवाद को ‘क्लीन’ और कंफ़र्टेबल बना दिया जाता है, ताकि ज़्यादा लोग देखें, भले ही असली संघर्षों को किनारे कर दिया जाए।

तस्वीर साभार: GQ India

बॉलीवुड की जाति को लेकर झिझक सेंसरशिप में भी दिखती है। ‘आरक्षण’ को यूपी और आंध्र प्रदेश में बैन कर दिया गया था, ये डर था कि फ़िल्म से सांप्रदायिक तनाव फैल सकता है। जो फ़िल्में रिलीज़ होती हैं, वो भी आलोचना झेलती हैं: जैसे ‘आर्टिकल 15’ और ‘बैंडिट क्वीन’ की उनके ग्राफ़िक सीन्स के लिए आलोचना हुई। जाति आधारित कहानियों को कॉमर्शियल बनाने की कोशिश में उनका राजनीतिक पहलू खो जाता है। सेंसरशिप और कथित ऊंची जाति की निवेशक लॉबी भी ऐसी कहानियों को सीमित करती है। आज हमें न सिर्फ दलित, आदिवासी और हाशिये पर रह रहे समुदायों के फ़िल्ममेकर्स और उनकी कहानियों को मुख्यधारा में जगह देने की जरूरत है बल्कि जातिवाद को एक सच्चाई की तरह दिखाने की जरूरत है, न कि सिर्फ़ कहानी के ट्विस्ट की तरह।

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