इंटरसेक्शनलजाति क्यों जाति और जेंडर तय करते हैं खाने का ‘अधिकार’?

क्यों जाति और जेंडर तय करते हैं खाने का ‘अधिकार’?

द हिन्दू की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2018 में आईआईटी मद्रास के 'हिमालय हॉस्टल ब्लॉक' के मेस में शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए अलग-अलग दरवाज़े, हाथ धोने की जगह और बर्तनों की व्यवस्था की गई थी।

मनुष्य की आधारभूत जरूरतों में से भोजन भी एक अहम हिस्सा है। भोजन सिर्फ थाली और खाने वाले तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि जगह, वर्ग और जाति जैसे कारकों के हिसाब से बदलता रहता है। इसी के हिसाब से पारंपरिक व्यंजन भी अलग-अलग होते हैं। खाने की इच्छा हर व्यक्ति में एक जैसी होती है फिर भी इसके नियम सभी के लिए एक नहीं है। भोजन को सार्वजनिक रूप से खाने और बनाने के नियम एकदम अलग हैं और यह नियम समस्या तब बन जाते हैं, जब जाति और लिंग इनके आड़े आता है। एक विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति के लिए यह सोच पाना भी मुश्किल होगा कि कोई खाने के प्रति जातिवादी कैसे हो सकता है? अमूमन ये कहा जाता है कि दलित और महिलाएं दोनों की स्थिति एक जैसी है।

शायद इसलिए दोनों के लिए खाने और बनाने के नियम बनाए गए हैं। अधिकतर भारतीय महिलाएं अपने घरों में पारंपरिक भोजन तैयार करती हैं, लेकिन जब सवाल होटल के सेफ या खाना बनाने वाले का हो तो मुश्किल से ही कोई महिला नज़र आती है। ठीक ऐसी ही स्थिति दलित समुदाय की भी है। आज भी समाज में लोग जाति को देखकर ही यह तय कर लेते हैं कि कौन शाकाहारी है या कौन मांसाहारी। समाज की सोच है कि दलित कथित तौर पर मांसाहारी भोजन ही करते हैं। भारत में हजारों महिलाएं लोगों के घरों में काम करके अपने परिवार को चला रही हैं। यह वही महिलाएं हैं जो सारा दिन काम लोगों के जूठे बर्तन धोती हैं, पूरे घर की सफाई करती हैं। लेकिन, जब वहीं महिलाएं उनकी रसोई में आ जाएं, तो उनका रसोई और खाना दोनों अपवित्र हो जाता है।

आज भी मैं किसी समारोह में अकेले खाना नहीं खा पाती हूं। असल में, मुझे याद ही नहीं कि मैंने कभी अकेले बाहर जाकर खाना खाया हो। सोचते ही एक अजीब-सी झिझक महसूस होती है। अगर बाहर कुछ खाने का मन होता है, तो मंगवा लेती हूं। पहले से कुछ चीजें जरूर बेहतर हुई हैं, लेकिन अब भी बहुत कुछ अधूरा लगता है। मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी के मन में खाने को लेकर कोई झिझक न रहे। वह जब चाहे, जहां चाहे, बिना किसी डर या परवाह के खा सके।

सबसे आखिर में खाना खाने पर मजबूर महिलाएं  

तस्वीर साभार : Esquire India

भारतीय घरों में आज भी रसोई से जुड़ा काम, विशेषकर खाना पकाना आज भी महिलाएं करती हैं। पूरे दिन खाना बनाने के बावजूद, हम अक्सर अपने घरों में देखते हैं कि महिलाएं सबसे आखिर में खाती है। आज भी सबसे पहले पुरुष सदस्य खाना खाते हैं या उन्हें परोसा जाता है। महिलाओं को अमूमन यही सिखाया गया है कि सबसे पहले घर के पुरुषों को खाना खिलाया जाना चाहिए। सार्वजनिक जगहों पर भी खाने को लेकर यही असमानता दिखती है। पुरुष बिना हिचक के ढाबे, चाय की दुकान, सड़क के किनारे  या किसी होटल में खाना खा सकते हैं। लेकिन, महिलाएं या तो कम दिखती हैं, या खाने की जगहों पर भी गुट में सामाजिक नियमों में बंधी हुई दिखती हैं। आम तौर पर यहां भी वे असहज रूप से खाती हैं। लेकिन इसका सीधा असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ता है। द प्रिन्ट के अनुसार भारत में लगभग 50 फीसदी  महिलाएं खून की कमी यानी एनीमिया से जूझ रही हैं, जिसका एक बड़ा कारण यह भी है कि पोषित भोजन के मामले में पारंपरिक रूप से महिलाओं की कोई हिस्सेदारी नहीं है। 

65 वर्षीय सरजू देई लखनऊ की किसान हैं। वह बताती हैं, “मेरी सास को गुज़रे अब पंद्रह साल हो चुके हैं। आज मैं खुद तीन बहुओं की सास हूं। लेकिन, जितना मैंने अपनी ज़िंदगी में देखा, उसमें एक चीज़ कभी नहीं बदली है। खाना बहुएं बनाती हैं, फिर सबको खिलाती हैं और आख़िर में खुद खाती हैं। शादी के शुरुआती दिनों में एक बार मैंने ज़रा पहले खाने की कोशिश की थी, तो सास ने डांटते हुए कहा था कि बहुएं पहले सबको खिलाती हैं, फिर खाती हैं। वो बात मेरे इतने भीतर तक बैठ गई कि आज तक नहीं निकली। मैं अपने पति के साथ खेतों में बराबर काम करती आई हूं। लेकिन, फिर भी खाना हमेशा उन्हें पहले परोसती हूं। मन में कहीं न कहीं अब भी झिझक है कि वो मर्द हैं, मेहनत करते हैं, तो उन्हें पहले खाना चाहिए। ये रिवाज हमें विरासत में मिला है और महिलाएं आजीवन इसको जाने-अनजाने  भोग रही हैं।” वह आगे बताती हैं कि ढाबे या होटल में उन्होंने कभी कुछ नहीं खाया है।

शादी के शुरुआती दिनों में एक बार मैंने ज़रा पहले खाने की कोशिश की थी, तो सास ने डांटते हुए कहा था कि बहुएं पहले सबको खिलाती हैं, फिर खाती हैं। वो बात मेरे इतने भीतर तक बैठ गई कि आज तक नहीं निकली। मैं अपने पति के साथ खेतों में बराबर काम करती रही हूं। लेकिन फिर भी खाना हमेशा उन्हें पहले परोसती हूं।

वहीं, पूनम उत्तर प्रदेश के काकोरी की रहने वाली 33 वर्षीय गृहिणी हैं। उन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की है। वह बताती हैं, “शादी से पहले जब भी बाहर खाने जाना होता था, तो मुझे मां से इजाज़त लेनी पड़ती थी। अगर कोई साथ होता, तो मां मना नहीं करती थीं। लेकिन, उम्र बढ़ने के साथ-साथ बाहर जाना कम हो गया। घर में कई बार कह दिया जाता था कि शादी के बाद पति के साथ जहां जाना हो जाना, अभी नहीं। शादी के बाद लोग जरूर बदले, लेकिन नियम नहीं बदले। आज भी जब किसी शादी या समारोह में जाती हूं, तो मैं और मेरी जेठानी सबसे अंत में खाना खाते हैं। हमारे साथ कोई न कोई होता है। कई बार तो खाना घर पर ही आ जाता है। शादी को कई साल हो गए हैं और दो बच्चे भी हैं। लेकिन आज भी मैं किसी समारोह में अकेले खाना नहीं खा पाती हूं। असल में, मुझे याद ही नहीं कि मैंने कभी अकेले बाहर जाकर खाना खाया हो। सोचते ही एक अजीब-सी झिझक महसूस होती है। अगर बाहर कुछ खाने का मन होता है, तो मंगवा लेती हूं। पहले से कुछ चीजें जरूर बेहतर हुई हैं, लेकिन अब भी बहुत कुछ अधूरा लगता है। मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी के मन में खाने को लेकर कोई झिझक न रहे। वह जब चाहे, जहां चाहे, बिना किसी डर या परवाह के खा सके।”

तस्वीर साभार : India Currents

खाना, जाति और जेंडर के जुड़ाव को लेकर उत्तर प्रदेश की 25 वर्षीय वैशाली गौतम कहती हैं, “मैंने पॉलिटिकल साइंस और इतिहास में मास्टर्स किया है। मुझे खाना बनाना और नई-नई जगहों पर जाकर अलग-अलग तरह के व्यंजन खाना बहुत पसंद है। लेकिन हर बार मनचाही जगह पर वैसे नहीं खा पाती, जैसे बाकी लोग खाते हैं। इसकी एक बड़ी वजह है सार्वजनिक जगहों पर पुरुषों का दबदबा। ऐसे स्थानों पर खाना बनाने से लेकर खाने तक, सब कुछ पुरुषों के दायरे में है। जब कभी मैं सड़क किनारे समोसा खाने की सोचती हूं, तो झिझक होने लगती है। लोग घूरते हैं, जिससे असहज महसूस होता है। इसलिए, जहां सिर्फ लड़के खड़े होते हैं, वहां जाने से बचती हूं।”

वह आगे बताती हैं, “अब जब भी मैं कहीं बाहर खाने की सोचती हूं, तो सबसे पहले उस जगह को ध्यान से देखती हूं कि क्या वहां कोई महिला भी खा रही है या नहीं? फिर उसी हिसाब से तय करती हूं कि वहां जाना है या नहीं। मैं दलित समुदाय से आती हूं। इसलिए, अक्सर मेरे मन में यह सवाल भी उठता है कि कहीं जिसके साथ मैं खा रही हूं, वह मुझसे मेरी जाति न पूछ ले। कई बार जब दोस्तों के बीच टिफिन खोलती हूं और उनका हाथ मेरे टिफिन की ओर बढ़ता है, तो एक अजीब-सा डर लगता है कि कहीं वे खाने से पहले मेरी जाति न पूछ लें। यह डर, यह झिझक, तब भी साथ रहता है जब मैं सार्वजनिक स्थलों पर दूसरों के साथ खाना खा रही होती हूं।”

मैं दलित समुदाय से आती हूं। इसलिए, अक्सर मेरे मन में यह सवाल भी उठता है कि कहीं जिसके साथ मैं खा रही हूं, वह मुझसे मेरी जाति न पूछ ले। कई बार जब दोस्तों के बीच टिफिन खोलती हूं और उनका हाथ मेरे टिफिन की ओर बढ़ता है, तो एक अजीब-सा डर लगता है कि कहीं वे खाने से पहले मेरी जाति न पूछ लें।

खाने को लेकर जातीय संघर्ष और मानवाधिकारों का उल्लंघन

भारत में भोजन सिर्फ़ स्वाद या ज़रूरत नहीं, बल्कि जाति आधारित भेदभाव का भी एक जरिया बन गया है। खासकर दलित और आदिवासी समुदायों को आज भी खाने, बनाने और परोसने के अधिकार से वंचित किया जाता है। जनवरी 2025 में, मध्य प्रदेश के अतरार गांव में एक दलित व्यक्ति ने मंदिर में प्रसाद चढ़ाया। इसे खाने पर गांव के सरपंच ने करीब 20 दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उन्हें किसी भी गांव कार्यक्रम में शामिल होने से रोका गया। संविधान का अनुच्छेद 15(2) सार्वजनिक स्थानों पर भेदभाव से मना करता है, लेकिन हकीकत में जाति तय करती है कि किसका खाना ‘स्वीकार्य’ है। डॉ. अंबेडकर के समय से लेकर आज तक दलित छात्रों को स्कूलों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। साल 2023 में तमिलनाडु में दलित महिला के हाथ का मिड-डे मील खाने से बच्चों ने इनकार कर दिया था। अमेठी में एक स्कूल प्रिंसिपल ने दलित बच्चों को अलग बैठाकर भोजन कराया था। साल 2019 में उत्तराखंड के टिहरी में एक दलित युवक की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई क्योंकि उसने एक सवर्ण समारोह में खाना खा लिया था।

ह्यूमन राइट्स वॉच की 2025 की रिपोर्ट बताती है कि सार्वजनिक स्थलों पर भोजन से जुड़ा जातिगत भेदभाव अब भी आम है, जो गरिमा और समानता के अधिकार का उल्लंघन है। भारत का संविधान सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है। लेकिन जब तक यह तय होता रहेगा कि कौन खाना बना सकता है और कौन खा सकता है, तब तक समानता का यह सिद्धांत अधूरा ही रहेगा। आज भी देश के कई हिस्सों में जाति के आधार पर खाने को लेकर भेदभाव जारी है। यह सवाल अब भी प्रासंगिक है—क्या हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के खाना खाने और बनाने का अधिकार है?

शादी से पहले जब भी बाहर खाने जाना होता था, तो मुझे मां से इजाज़त लेनी पड़ती थी। अगर कोई साथ होता, तो मां मना नहीं करती थीं। लेकिन, उम्र बढ़ने के साथ-साथ बाहर जाना कम हो गया। घर में कई बार कह दिया जाता था कि शादी के बाद पति के साथ जहां जाना हो जाना, अभी नहीं।

शैक्षिक संस्थानों में जाति और भोजन को लेकर भेदभाव

जब कोई छात्र गांव-कस्बों से निकलकर शहर के किसी विश्वविद्यालय में दाखिल होता है, तो वह इस उम्मीद के साथ आता है कि अब वह जाति और धर्म के बंधनों से आज़ाद होकर पढ़ाई कर सकेगा। लेकिन, किसी दलित छात्र की पहचान उससे पहले ही उसके साथ पहुंच जाती है। अमूमन इस पहचान के आधार पर यह पहले से तय कर लिया जाता है कि उसके साथ किस तरह क्या व्यवहार किया जाएगा।

तस्वीर साभार : India Today

द हिन्दू की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2018 में आईआईटी मद्रास के ‘हिमालय हॉस्टल ब्लॉक’ के मेस में शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए अलग-अलग दरवाज़े, हाथ धोने की जगह और बर्तनों की व्यवस्था की गई थी। छात्रों ने इसे भेदभावपूर्ण बताते हुए इसका विरोध किया और संस्थान को नोटिस हटाने पड़े थे। इसी तरह इंडिया टुडे की रिपोर्ट बताती है कि 2018 में आईआईटी बॉम्बे में छात्रावास की मेस काउंसिल ने मांसाहारी छात्रों को अलग प्लेट में खाना खाने का निर्देश दिया था। यह निर्देश छात्रों के एक समूह की मांग पर दिया गया था, जिसके कारण वहां का माहौल तनावपूर्ण हो गया था।

द हिन्दू की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2018 में आईआईटी मद्रास के ‘हिमालय हॉस्टल ब्लॉक’ के मेस में शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए अलग-अलग दरवाज़े, हाथ धोने की जगह और बर्तनों की व्यवस्था की गई थी।

 

साल 2007 में सुखदेव थोराट के नेतृत्व में थोराट समिति ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली में आरक्षण के माध्यम से नामांकित छात्रों के साथ अनुचित व्यवहार के दावों की जांच की। इसकी रिपोर्ट के अनुसार, 72 फीसद एससी/एसटी छात्रों ने कहा कि उन्हें कक्षा में किसी न किसी समय जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा; लगभग 85 फीसद ने कहा कि उच्च जाति के छात्रों की तुलना में एससी छात्रों को परीक्षकों के साथ पर्याप्त समय नहीं मिलता है। लगभग 40 फीसद ने कहा कि उनसे पूछे गए प्रश्न आम तौर पर अधिक कठिन थे; 69 फीसद एससी/एसटी छात्रों ने कहा कि उनके शिक्षकों ने उन्हें पर्याप्त सहायता नहीं दी और लगभग 50 फीसद ने पहुंच संबंधी मुद्दों का हवाला दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन अनुभवों से संकेत मिलता है कि भेदभाव ने ‘शिक्षकों का टालना, अवमानना, असहयोग और हतोत्साह करना और भेदभावपूर्ण व्यवहार’ का रूप ले लिया।

भोजन केवल जीवन जीने का साधन नहीं, बल्कि समाज में समानता, गरिमा और इंसानियत की कसौटी भी है। यह बेहद चिंताजनक है कि शैक्षिक संस्थानों, घरों और सार्वजनिक स्थलों पर भी जाति और लिंग के आधार पर खाने से जुड़ा भेदभाव अब भी मौजूद है। दलित, आदिवासी या हाशिये पर रह रहे अन्य समुदाय और महिलाएं आज भी भोजन के ज़रिए अपमान और बहिष्कार का सामना कर रहे हैं। अगर समाज, शिक्षा और संवैधानिक अधिकारों की बात करता है, तो उसे सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि हर व्यक्ति को बराबरी और सम्मान के साथ भोजन करने का हक़ मिले—बिना किसी डर, शर्म या भेदभाव के। खाने की थाली में बराबरी दिखेगी, तभी समाज में सच्ची समानता संभव होगी।

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