अस्तित्ववाद और एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म एक चर्चित सिद्धांत और विचारधारा है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बात करता है। इसके साथ ही एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म और अस्तित्ववाद, 20वीं सदी में शुरू हुआ एक दार्शनिक और सांस्कृतिक आंदोलन भी है जो व्यक्तिगत अस्तित्व, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अस्तित्व की खोज पर विशेष जोर देता है। शुरुआती दौर में अस्तित्ववाद के सिद्धांत पर विचार रखने वालों में जीन-पॉल सात्रे और अल्बर्ट कामू जैसे प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखकों का खास योगदान रहा हैं। अस्तित्ववाद के सिद्धांत पर जीन-पॉल सार्त्र एक जाना-पहचाना चेहरा है। उन्होंने अपने काम ‘बीइंग एंड नथिंगनेस’ के जरिए अस्तित्ववाद के सिद्धांत पर विचार रखते हुए स्वतंत्रता, चुनाव और ज़िम्मेदारी पर खास जोर दिया था। सार्त्र का अस्तित्ववाद के सिद्धांत पर मानना था कि कोई व्यक्ति किसी पूर्वनिर्धारित उद्देश्य के साथ पैदा नहीं होता बल्कि उसे अपने जीवन के उद्देश्य और रास्ते खुद बनाने होते है।
लेकिन, नारीवादी विचारकों और लेखकों जैसे सिमोन द बोउवार आदि का मानना था कि जीन-पॉल सार्त्र अपने अस्तित्ववाद के सिद्धांत पर औरतों को नजरअंदाज कर देते हैं। सिमोन द बोउवार, अस्तित्ववाद और एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म के इस सिद्धांत को नारीवादी दृष्टिकोणों से सामने रखती हैं। हालांकि नारीवादी एक अलग सिद्धांत और विचार है। उन्होंने अस्तित्ववाद के सिद्धांत के माध्यम से महिलाओं की आज़ादी और पहचान के महत्व पर ज़ोर दिया। अपनी चर्चित किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ में, बोउवार बात करती हैं कि अक्सर पुरुष प्रधान सामाजिक संरचनाएं और ढांचा महिलाओं की क्षमता, आज़ादी आदि को सीमित करती हैं। लेकिन अस्तित्ववादी और एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म सिद्धांतों के माध्यम से महिलाएं इन सामाजिक बाधाओं को तोड़ सकती हैं।
नारीवाद मूल रूप से पुरुष प्रधान समाज और संस्कृति में महिलाओं को केंद्र में रख कर उनकी आजादी की बात करता है तो वहीं अस्तित्ववाद आम तौर पर जीवन के विकल्पों के बारे में एक व्यक्ति के ज्ञान और उसके बाद ‘अर्थ’ और ‘उद्देश्य’ के हिसाब से अस्तित्व पर जोर देता है।
सिमोन द बोउवार ने ‘द सेकेंड सेक्स’ के जरिए सबसे पहले नारीवादी अस्तित्ववाद यानि फेमिनिस्ट एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म की नींव रखी थी। उन्होनें अपनी 1949 में प्रकाशित इस किताब में नारीवादी अस्तित्ववाद पर तर्क देते हुए कहा कि ‘औरत पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है।’ उनका यह तर्क दिखाता है कि जेंडर कोई जन्म से निर्धारित गुण नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक आधार पर बना एक सामाजिक ढांचा है।

बोउवार ने ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के शोषण, हाशिए पर धकेले जाने और महिलाओं को वस्तु के रूप में देखे जाने की सामाजिक सच्चाई को भी उजागर किया। उनका तर्क इस पर भी है कि समाज में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में ‘अन्य’ की स्थिति में धकेल दिया गया है, यह एक ऐसी स्थिति जो उन्हें उनकी व्यक्तिगत खोज और आज़ादी से वंचित करती है। सिमोन द बोउवार अपने नारीवादी तर्कों से महिलाओं को लेकर व्याप्त व्यापक सामाजिक मिथकों और रूढ़ियों को उजागर करते हुए नारीवादी अस्तित्ववाद की बात रखती हैं।
नारीवादी अस्तित्ववाद और फेमिनिस्ट एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म क्या है?
नारीवादी अस्तित्ववाद और फेमिनिस्ट एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म, अस्तित्ववाद और नारीवाद के सिद्धांतों का संयोजन है, जो महिलाओं की आज़ादी, आत्मनिर्णय और पहचान की खोज पर बल देता है। इसके साथ ही नारीवादी अस्तित्ववाद, अस्तित्ववादी दर्शन को नारीवादी सिद्धांतों के साथ जोड़ता है, और व्यक्तिगत आज़ादी और जेंडर से जुड़ी सामाजिक संरचनाओं पर भी ज़ोर देता है। सबसे पहले नारीवादी अस्तित्ववाद का सिद्धांत सिमोन द बोउवार ने अपनी प्रसिद्ध किताब द सेकेंड सेक्स (1949) के माध्यम से सामने लाया था। इस तरह से नारीवादी अस्तित्ववाद पितृसत्ता के महिलाओं पर थोपे गए सामाजिक बंधनों को तोड़ने के साथ उसे चुनौती भी देता है और महिलाओं को अपने जीवन के अर्थ और उद्देश्य को आज़ाद रूप से परिभाषित करने के लिए प्रेरित करता है। यह महिलाओं की एजेंसी को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए उनके व्यक्तिगत और सामाजिक अनुभवों को समझने की भी कोशिश करता है।
कैसे अस्तित्ववाद और नारीवाद परस्पर सहायक और समान है?

नारीवादी अस्तित्ववाद को समझने से पहले जरूरी है कि नारीवाद और अस्तित्ववाद के बीच के अंतर और समानता को समझना। नारीवाद मूल रूप से पुरुष प्रधान समाज और संस्कृति में महिलाओं को केंद्र में रख कर उनकी आज़ादी की बात करता है तो वहीं अस्तित्ववाद आम तौर पर जीवन के विकल्पों के बारे में एक व्यक्ति के ज्ञान और उसके बाद ‘अर्थ’ और ‘उद्देश्य’ के हिसाब से अस्तित्व पर जोर देता है। नारीवाद में एक नारीवादी अपनी अंदर की आज़ादी को पहचानती हैं और उसके लिए काम करती हैं। नारीवाद की तरह, अस्तित्ववाद भी मानता है कि आज़ादी और स्वतंत्रता को एक जिम्मेदारी के साथ हर किसी को जीना चाहिए। इस तरह नारीवाद और अस्तित्ववाद दोनों ही व्यक्ति विशेष की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी को महत्व देते है।
नारीवादी अस्तित्ववाद में बोउवार अपने इस कथन “औरत पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है’’ के साथ आगे बढ़ती हैं और उनका यह कथन और तर्क नारीवादी अस्तित्ववाद के दर्शन में इस बात को दिखाता है कि लिंग आधारित गुण एक प्राकृतिक और जैविक अवस्था नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मानदंडों और अपेक्षाओं द्वारा गढ़ी गई एक सामाजिक संरचना है।
नारीवादी अस्तित्ववाद में सिमोन द बोउवार का योगदान
सिमोन द बोउवार, नारीवादी दर्शन और समझ में एक बहुत ही चर्चित नाम हैं। वही नारीवादी अस्तित्ववाद में उनका नाम सबसे पहले आता हैं। नारीवादी अस्तित्ववाद में बोउवार अपने इस कथन “औरत पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है’’ के साथ आगे बढ़ती हैं और उनका यह कथन और तर्क नारीवादी अस्तित्ववाद के दर्शन में इस बात को दिखाता है कि जेंडर आधारित गुण एक प्राकृतिक और जैविक अवस्था नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मानदंडों और अपेक्षाओं द्वारा गढ़ी गई एक सामाजिक संरचना है। इन सामाजिक अपेक्षाओं और मानदंडों के चलते किसी व्यक्ति विशेष की पहचान को कैसे सीमित कर दिया जाता हैं। बोउवार खास करके के महिलाओं की आज़ादी के सीमित होने पर सवाल उठाती हैं। वह मानती हैं कि महिला होना कोई पूर्वनिर्धारित बात नहीं है, बल्कि यह जीवन भर में व्यक्ति द्वारा किए गए कामों से तय होता है। शिक्षा, धर्म और राजनीति जैसे सामाजिक और आर्थिक कारकों के कारण सदियों से भूमिकाएं और मानदंड बदलते रहे हैं। साथ ही, महिलाओं को अपनी पहचान बनाने की आज़ादी होनी चाहिए और औरतों को चाहिए की वह खुद को एक सीमा में न बांधे।

नारीवादी अस्तित्ववाद में सिमोन का योगदान, लिंग पहचान और उन्हें परिभाषित करने वाली सामाजिक संरचनाओं को गहराई से समझने के लिए जोर देता है। वह अपने दर्शन और सिद्धांत में आज़ादी को सबसे महत्वपूर्ण और अस्तित्व मानती हैं। इसीलिए वह हर व्यक्ति को आज़ादी को अपनाने पर जोर देती है। इस तरह बोउवार अस्तित्ववाद के दर्शन और सिद्धांत को अपने नारीवादी ढांचे में पिरोकर, महिलाओं को उनकी स्वतंत्रता को पहचानने और अस्तित्व के साथ जीवन जीने पर बात करती हैं। वह अपने नारीवादी अस्तित्ववाद के सिद्धांत से न केवल पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचों की कड़ी आलोचना करती हैं जो महिलाओं को बंधनों में बांधते हैं बल्कि उन्हें इन बंधनों से मुक्त होकर अपनी आज़ादी को अपनाने का अधिकार भी बताती हैं। उनका यह अस्तित्ववादी दृष्टिकोण लैंगिक पहचान की जटिलताओं को गहराई से समझने में मदद करता है, क्योंकि यह किसी की पहचान और जीवन उद्देश्य को आकार देने में व्यक्तिगत अनुभव के महत्व की बात करता है।
शुरुआती दौर में अस्तित्ववाद के सिद्धांत पर विचार रखने वालों में जीन-पॉल सात्रे और अल्बर्ट कामू जैसे प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखकों का खास योगदान रहा हैं। सिमोन द बोउवार, अस्तित्ववाद और एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म के इस सिद्धांत को नारीवादी दृष्टिकोणों से सामने रखती हैं। सिमोन ने अस्तित्ववाद के सिद्धांत के माध्यम से महिलाओं की स्वतंत्रता और पहचान के महत्व पर ज़ोर दिया।
द बोउवार के लिए, यह आस्तित्ववादी दार्शनिक आधार महिलाओं की दुर्दशा और उन पर अत्याचार करने वाली सामाजिक संरचनाओं को समझने के लिए जरूरी है। अपने इस नारीवादी अस्तित्ववाद के सिद्धांतों के माध्यम से, वह न केवल महिलाओं के संघर्षों को उजागर करती हैं, बल्कि उन्हें उनकी आजादी और अस्तित्व की समझ के लिए भी रास्ता दिखाती हैं। सिमोन द बोउवार, नारीवादी अस्तित्ववाद के दर्शन में दूसरा तर्क देती है कि एक लंबे दौर से महिलाओं को पुरुषों के संदर्भ में समाज में परिभाषित किया गया है, जिन्हें आदर्श स्थिति भी माना जाता है। उदाहरण के लिए जैसे माँ, पत्नी, पुत्री आदि। यह संबंध महिलाओं की खुद की पहचान पर सवाल उठाता है कि कैसे पुरुष समाज में विषय हैं और महिलाएं वस्तु , इसके चलते समाज में महिलाओं का शोषण होता है। इस प्रकार यह पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे अक्सर महिलाओं को ‘अन्य‘ के रूप में परिभाषित करते हैं। इस शब्द का इस्तेमाल बोउवार यह दिखाने के लिए करती हैं कि महिलाओं को हमेशा ही पुरुषों के साथ जोड़कर ही पहचाना जाता है, उनकी एक स्वतंत्र प्राणी के रूप में कोई पहचान नहीं होती हैं।
सिमोन द बोउवार का महिलाओं के अन्य समझें जाने की अवधारणा
महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज और दुनिया में ‘अन्य‘ के दर्जे पर धकेल दिया गया है। यह अवधारणा न केवल महिलाओं के हाशिए पर होने को उजागर करती है, बल्कि समाज में व्यपात एक लैंगिक भेदभाव और असमानता को भी दिखाती है। महिलाओं को समाज में अन्य समझे जाने की सोच और अवधारणा उनकी व्यक्तित्व पहचान को खत्म कर देती है और इस तरह उन्हें अक्सर पुरुषों के संबंध के साथ जोड़ कर देखा जाता हैं। सिमोन इन महिलाओं के अन्य समझे जाने वाले सामाजिक ढांचों की कड़ी आलोचना करती हैं क्योंकि यह अवधारणा महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को जारी रखती हैं। वह इस बात पर ज़ोर देती हैं कि महिलाओं की आजादी तभी संभव है, जब उन सभी सामाजिक संरचनाओं और अवधारणाओं को खत्म कर दिया जाए जो उन्हें ‘अन्य’ के रूप में परिभाषित करती हैं। बोउवार के हिसाब से, महिलाओं को सच्ची आज़ादी और स्वतंत्रता हासिल करने के लिए खुद पर थोपी गई पहचान को अस्वीकार करना होगा और इसके साथ ही खुद को एक स्वतंत्र व्यक्ति के तौर पर अपने अस्तित्व को स्थापित करना होगा।

