संस्कृतिकिताबें कृष्णा सोबती का “डार से बिछुड़ी”: विभाजन के बाद पाशो की त्रासदी और महिलाओं के जीवन की सच्चाई

कृष्णा सोबती का “डार से बिछुड़ी”: विभाजन के बाद पाशो की त्रासदी और महिलाओं के जीवन की सच्चाई

कृष्णा सोबती का साल 1958 का उपन्यास “डार से बिछुड़ी” में एक महिला पाशो की ज़िंदगी के ज़रिए दिखाया गया है, कि भारत विभाजन के बाद समाज में महिलाओं की स्थिति कैसी थी । कैसे उनके फैसले दूसरों के हाथ में होते थे और कैसे वे हर मोड़ पर बंदिशों और अन्याय का सामना करती थीं।

हिंदी साहित्य की दुनिया में कुछ रचनाएं ऐसी हैं जो सिर्फ़ कहानी नहीं सुनातीं, बल्कि समाज की सच्चाई को भी हमारे सामने रख देती हैं। कृष्णा सोबती का साल 1958 का उपन्यास “डार से बिछुड़ी” ऐसी ही रचना है। इसमें एक महिला पाशो की ज़िंदगी के ज़रिए दिखाया गया है, कि भारत विभाजन के बाद समाज में महिलाओं की स्थिति कैसी थी। कैसे उनके फैसले दूसरों के हाथ में होते थे और कैसे वे हर मोड़ पर बंदिशों और अन्याय का सामना करती थीं। यह उपन्यास हमें यह समझने में मदद करता है कि महिलाओं की तकलीफ़ें केवल व्यक्तिगत नहीं होतीं, बल्कि पूरे समाज से जुड़ी होती हैं। सोबती ने इसे बहुत सरल भाषा और गहरी संवेदनाओं के साथ लिखा है, इसलिए यह पाठकों को आज भी छूता है।

पाशो का बचपन और सामाजिक भेदभाव 

तस्वीर साभार : OSir.in

यह कहानी शुरू होती है, इस कहानी की नायिका  पाशो के संघर्ष से, जिसकी विधवा माँ ने समाज और परिवार दोनों की परवाह न करते हुए अंतरजातीय विवाह किया। उसकी माँ का यह फैसला पाशो की ज़िंदगी पर गहरा असर डालता है, और वह सारी उम्र इसका दर्द झेलती रहती है। उपन्यास में पाशो की नानी कहती हैं कि ‘उसके मामा उसकी माँ पर जान छिड़कते थे।’ लेकिन सच तो यह है कि हमारे समाज में बेटियां और बहनें तभी तक परिवार की इज़्ज़त मानी जाती हैं। जब तक वे बिना सवाल किए समाज के बनाए हुए रूढ़वादी नियमों के अनुसार काम करती हैं। लेकिन जैसे ही वे अपनी इच्छा से जीने की कोशिश करती हैं, उनके लिए वही प्यार और सम्मान बोझ और तिरस्कार में बदल जाता है। पाशो की माँ का लिया गया फैसला हर समय पाशो के लिए मुसीबत बना रहा। जैसे-जैसे पाशो बड़ी होती गई, उसके लिए मुश्किलें भी बढ़ती गईं।  उसके ऊपर बंदिशे बढ़ने लगी और लोगों की निगहे और शक का दायरा भी। 

साल 1958 का उपन्यास “डार से बिछुड़ी” ऐसी ही रचना है। इसमें एक महिला पाशो की ज़िंदगी के ज़रिए दिखाया गया है, कि भारत विभाजन के बाद समाज में महिलाओं की स्थिति कैसी थी । कैसे उनके फैसले दूसरों के हाथ में होते थे और कैसे वे हर मोड़ पर बंदिशों और अन्याय का सामना करती थीं।

घर से बाहर आने-जाने पर पाबंदियां लग गईं। अगर वह कभी बाहर निकल भी जाती, तो उसकी मामियां उस पर इलज़ाम लगातीं और मामाओं को उलाहने देकर उसके साथ मारपीट तक करतीं थी। उपन्यास में लिखा है, “तंदूर के पास रखे लकड़ियों के ढेर से एक छड़ उठाई और कई हाथों पर मारते हुए कहा, तेरी ऐसी करतूतें! तड़पी  रोई धोई, पर मामू थमे नहीं, मामू का पैर पकड़कर सिर पटकने लगी और मत मारो मामू मैंने कुछ नहीं किया।” यह पंक्ति पूरी तरह दिखाती है कि लड़कियां किस तरह घरेलू हिंसा का शिकार होती रही हैं। साथ ही यह भी बताती है कि पुरुषवादी सोच को अपनाने वाली महिलाएं  ही इसे बढ़ावा देती और संरक्षण करती रही हैं। मामू के जाने के बाद नानी ने उसके घावों पर दवाई लगाई, दूध पिलाया लेकिन वह अपने बेटे को रोक न सकी। नानी ने उसको समझाने का प्रयास किया की जैसा वे कहते हैं वैसा ही करो “संभलकर री,एक बार का थिरक पांव ज़िंदगानी में  धूल मिला देगा” और वही हुआ भी जो एक बार पाशो घर से निकली तो आजीवन शारीरिक और मानसिक शोषण का शिकार होती रही। 

माँ की तलाश और समाज की निर्दयता

तस्वीर साभार : CNN

पाशो बस अपनी माँ को एक बार देखना चाहती थी, जो उसके बचपन में ही शेखों के घर चली गई थी। इसी उम्मीद में वह शेखों के घरों के पास जाती रहती थी, कि कहीं उसकी माँ दिख जाए। बस इतना ही उसका ‘गुनाह’ था। इसी वजह से उसके मामा और मामियों ने उसे जहर देकर मारने की योजना बना ली। जीवन को इस तरह खत्म होते देखकर वह बहुत डर गई। अपने जीवन को बचाने के लिए उसने माँ के आंचल का सहारा लिया और देर रात अंधेरे में घर से भागकर शेखों के घर पहुंच गई। उसकी माँ ने उसे दुलारा और सहलाया, लेकिन उसके भागने की स्थिति जानकर वह बहुत घबरा गई। उसे पता था कि उसके भाई आ जाएंगे और दोनों परिवारों के बीच झगड़ा शुरू हो जाएगा। वह खुद को गुनहगार समझते हुए अपने भाइयों को उनके व्यवहार को सही ठहराती है और पाशो के साथ हुए शोषण का कारण खुद को मानती है।

यह कहानी शुरू होती है, इस कहानी की नायिका  पाशो के संघर्ष से, जिसकी विधवा माँ ने समाज और परिवार दोनों की परवाह न करते हुए अंतरजातीय विवाह किया। उसकी माँ का यह फैसला पाशो की ज़िंदगी पर गहरा असर डालता है, और वह सारी उम्र इसका दर्द झेलती रहती है।

 परंतु आज भी उसके पास पाशो के लिए कोई सही रास्ता उपलब्ध नहीं है, जिससे उसकी की ज़िंदगी को कोई अर्थ मिल सके। शेख के कहने पर पाशो  की शादी उससे उम्र में बड़े पुरुष से करवा दी जाती है। पहले वह इस बेमेल रिश्ते से बहुत घबराती है, परंतु बाद में उसे अपना भाग्य समझ कर स्वीकार कर लेती है। उसके फलस्वरूप वह एक बच्चे को जन्म देती है, उसके कुछ ही समय बाद उसके पति दीवान जी की मृत्यु हो जाती है। यह उसके जीवन की दूसरी खतरनाक घटना थी, जिसने उसे और मुश्किलों की ओर धकेल दिया। पाशो अपनी मरज़ी के अनुसार नहीं, बल्कि मजबूरी में जीवन जी रही थी। लेकिन पति की मृत्यु के बाद उसके देवर ने उसका शारीरिक शोषण किया। उसके विरोध और रिश्तों की यादें सब बेअसर हो गईं।  

पाशो को बेच दिया उसके ही रिश्तेदारों ने 

“आंख खुली, पिछला पहर होगा। कहीं कुत्ते भोंकते थे और घोड़े की छाप छाती दहलाती थी। एकाएक समझ नहीं पाई कहां हूं, मैं कहां हूं । हाथ फैलाया मुन्ना कहां है ? और चीख मारकर उठ बैठी। घुप्प अंधेरा !…टटोलने को बांह बढ़ाई तो पाले पर हाथ पड़ा। डोले में … ? पूरे गले चिल्ला उठी, “कहां हूं, मैं कहां हूं ?” कड़ी आवाज आई,“चुपचाप पड़ी रह तेरी कूक, फ़रियाद सुनने वाला कोई नहीं।“ हां पाशो को उसके अपने ही रिश्तेदारों और संबंधियों द्वारा बेच दी गई थी, ताकि उनका उधार चुकाया जा सके। उसे एक लाला के घर बेचा गया, जहां उसे उस घर की नौकरानी की तरह काम करने का आदेश दिया गया। अपनी स्थितियों और जीवन से परेशान होकर उसमें  न विरोध करने का साहस बचा था न ही विनती करने की क्षमता।  वह सिर झुकाए  उनके आदेशों को सुनती और कहे अनुसार उनका काम करती। उनके घर के कामों के लिए एक नौकरानी और लाला के तीनों बेटों के लिए खिलौना बन गई। 

पाशो बस अपनी माँ को एक बार देखना चाहती थी, जो उसके बचपन में ही शेखों के घर चली गई थी। इसी उम्मीद में वह शेखों के घरों के पास जाती रहती थी, कि कहीं उसकी माँ दिख जाए। बस इतना ही उसका ‘गुनाह’ था। इसी वजह से उसके मामा और मामियों ने उसे जहर देकर मारने की योजना बना ली।

धीरे धीरे लाला के मंझले  बेटे को उससे प्यार हो जाता है। उस समय भारत में कई  लड़ाइयां चल रही थी, और उसने भी उस लड़ाई में भाग लिया था सुबह युद्ध लड़ने जाता शाम को आकार पाशो के साथ रहता। वह पाशो को प्यार से नवेली कहता था। एक दिन वह उसे उस घर से लेकर निकल जाता है।  पाशो अपने नसीब को कोसते हुए परेशान होती है, कि न जाने जिंदगी अब उसे किस मोड पर लाकर खड़ा  करेगी।  लाला  का मंझला बेटा उससे शादी का वादा कर ताउम्र अपने साथ रखने का वादा करता है। हमारे समाज में शादी एक छत की भांति है, उससे खासकर लड़कियां खुद को महफूज समझती हैं। वह इस बात से संतुष्ट थी, क्योंकि जिस इंसान के साथ वह रह रही थी उसके साथ वह खुश थी। परंतु यह खुशी भी उसके लिए क्षणिक थी। एक दिन फिरंगियों के साथ लड़ते -लड़ते वह भी मर  जाता है। 

अकेलापन, खोज और घर वापसी

तस्वीर सभार : My Voice

अब पाशो पूरी तरह अकेली थी, एक अनजान जगह में, जहां से लौटना बहुत मुश्किल था। खाली समय में वह अपने वीर (भाई) को याद करती थी, जिसे वह बहुत मानती थी, और उम्मीद करती थी कि उसके वीर जरूर उसकी खबर लेने की कोशिश करेंगे। ‘होश में आई, पूछा कहां हूं ?अपना ही घर समझो बीबी रानी’ इस बार कहीं से पाशो सही हाथों मे आ गई थी। उसकी स्थिति को देखते हुए उसे ठीक किया गया। नए कपड़े पहनाए गए और उससे उसके घर का पता पूछा गया। पाशो अचंभित थी वह घर का पता भूल गई थी या इस सोच में थी कि  किसका नाम ले अपनों का या परायों का वह किसपर भरोसा कर सकती थी। यह उसके लिए बड़ी चुनौती थी।  अंत में फिरंगियों  की कचहरी से उसका पता लगता है और उसका भाई उसे वापस घर लेके आता है।  जो काफी समय से दीवान की माँ जिसे पाशो मौसी कहकर बुलाती थी। उसके कहने से  वह उसे खोज रहा था। 

 भारतीय पितृसत्तात्मक समाज  में जहां महिलाओं की कोई इच्छा,या अस्तित्व नहीं होता। वह अपने जीवन काल में विभिन्न प्रकार के त्रासदियों से गुजरती रहती हैं और समाज में अवहेलना का पात्र बनी रहती हैं। उसी अवधारणा को पाशो अपने कहानी के माध्यम से बयान करती है और उसकी कहानी सार्थक होती है। पाशो को उसके नानी के घर या माँ के घर कहीं भी एक इंसान की तरह नहीं देखा गया।  वह मात्र एक वस्तु की भांति इधर से उधर होती रही किसी महिला के लिए इससे ज्यादा बुरी चीज़ और कुछ नहीं हो सकती है।  आज की महिलाएं इन आडंबरों, रूढ़ियों और धार्मिक और  सांस्कृतिक कुरीतियों से छुटकारा पाना चाहती हैं और अपने वजूद को स्थापित करना चाहती हैं।  

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