भारत के इतिहास में जातीय हिंसा की घटनाएं हमेशा से हमारे समाज की गहरी जड़ों में बसे भेदभाव और असमानता को उजागर करती रही हैं। ऐसी ही एक घटना थी बेलछी नरसंहार, जिसने न केवल बिहार बल्कि पूरे देश को हिला दिया था। यह सिर्फ़ एक गाँव या कुछ परिवारों की त्रासदी नहीं थी, बल्कि उस अन्यायपूर्ण व्यवस्था का प्रतीक थी जिसमें जाति के नाम पर इंसानों की कथित तौर पर जलाकर हत्या कर दी गयी। साल 1977 का यह काला दिन आज भी इस सवाल को ज़िंदा रखता है—क्या हमारा समाज सचमुच समानता और न्याय की ओर बढ़ रहा है या अब भी जातिगत वर्चस्व और नफ़रत की जंजीरों में जकड़ा हुआ है? बिहार की राजधानी पटना से लगभग 90 किलोमीटर दूर बाढ़ अनुमंडल का बेलछी गांव, 27 मई 1977 को उस भयावह नरसंहार का गवाह बना जिसने पूरे देश को हिला दिया था।
तत्कालीन समय में करीब 2000 की आबादी वाले इस गांव में कुर्मी, पासवान, मांझी, कहार, धानुक, हरिजन, यादव और तेली जैसी जातियों के लोग रहते थे। कुछ सुनार परिवार भी यहां बसे थे, लेकिन संख्या कम होने के कारण नरसंहार के बाद उन्होंने गांव छोड़ दिया। गांव में सबसे संपन्न और प्रभावशाली तबका कुर्मी जाति का था, जबकि अन्य जातियां गरीबी और हाशिए पर जी रही थीं। भूमि और खेतों की सिंचाई को लेकर शुरू हुआ एक मामूली विवाद धीरे-धीरे जातीय टकराव में बदल गया। यह टकराव आखिरकार उस खूनी अंजाम तक पहुंचा, जब 11 लोगों की निर्ममता से हत्या कर दी गई, जिनमें आठ दलित लोग शामिल थे। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी जानकी पासवान इस घटना को याद करते हुए बताते हैं कि असली विवाद ‘बड़ा कौन है’ इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूम रहा था, और इसकी चिंगारी महज एक कट्ठा जमीन और पानी के झगड़े से भड़की थी।
बिहार की राजधानी पटना से लगभग 90 किलोमीटर दूर बाढ़ अनुमंडल का बेलछी गांव, 27 मई 1977 को उस भयावह नरसंहार का गवाह बना जिसने पूरे देश को हिला दिया था।
जातीयता और हिंसा की शुरुआत

उस समय मौजूदा मोरारजी देसाई की सरकार ने इस घटना को जातीय हिंसा मानने से इनकार करते हुए इसे महज आपसी गिरोहों की लड़ाई का परिणाम बताया। लेकिन, दलित सांसदों की एक समिति ने बेलछी पहुंचकर वास्तविक स्थिति का जायज़ा लिया और सरकार के दावे को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया। अदालत ने इस नरसंहार के मुख्य दोषियों, महावीर महतो और परशुराम धानुक को फांसी की सजा सुनाई, जबकि 9 अन्य को बीस-बीस साल की कैद हुई। इसके बावजूद दलित परिवारों के बीच भय और असुरक्षा लंबे समय तक बनी रही। यह घटना आज भी बेलछी गांव और बिहार की सामाजिक-राजनीतिक स्मृति में गहरी छाप छोड़ती है, क्योंकि इसने जातीय भेदभाव और नफ़रत की खाई को और चौड़ा कर दिया। साल 1977 की 27 मई की रात बेलछी गाँव के लिए किसी भयावह सपने जैसी थी। आसमान आग की लपटों से लाल हो गया था और हवा में ज़िंदा जलते इंसानों की चीखें गूंज रही थीं। यह दर्दनाक घटना गाँव के दबंग कुर्मी ज़मींदार महावीर महतो से जुड़ी थी। पहले वह पासवान जाति के सिद्धेश्वर उर्फ़ सिंघवा के साथ रहता था। लेकिन धीरे-धीरे दोनों के बीच यह सवाल खड़ा हो गया कि असली दबदबा गाँव में किसका है। ‘हम बड़े या तुम बड़े’ की यह लड़ाई आखिरकार जातीय हिंसा में बदल गई, जिसने कई जिंदिगियाँ छीन लीं।
क्यों था ये ऐतिहासिक मामला
ये लड़ाई खेत की सिंचाई (पटवन) और महज एक कट्ठा ज़मीन को लेकर शुरू हुआ था। बाद में मामला इतना बढ़ा कि बाहरी लोगों (गोहार) को भी बुला कर घटना की अंजाम दिया गया। इस घटना के मुख्य अभियुक्त महावीर महतो का इरादा साफ़ था। वह ताक़त और हिंसा के बल पर ज़मीन पर कब्ज़ा करना चाहता था। इस हिंसा में 11 लोगों की हत्या कर दी गयी। इनमें जानकी पासवान के परिवार के चार सदस्य भी शामिल थे। पीड़ितों में एक 12 वर्षीय का बच्चा भी था। मरने वालों आठ दलित थे, जो दुसाध जाति से आते थे, वहीं तीन सोनार जाति से थे। उन लोगों को पहले गोली मारी गयी और फिर रस्सियों से बांधकर आग में झोंक दिया गया। जातीय हिंसा में यह एक बर्बर और ऐतिहासिक मामला था। वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिट्टा की किताब ‘कास्ट प्राइड – बैटल्स फॉर इक्वालिटी इन हिंदू इंडिया’ ने पहली बार यह तथ्य दर्ज किया कि बेलछी हत्याकांड अब तक का भारत का पहला और इकलौता मामला है, जिसमें दलितों की हत्या के अपराधियों को फांसी की सज़ा हुई। इस जातीय हिंसा ने सत्तर के दशक में देश की राजनीति, समाज और इंसानियत तीनों को झकझोर कर रख दिया था।
बेलछी की गूंज जल्द ही संसद तक पहुंच गई। तब तमिलनाडु से तत्कालीन सीपीआई सांसद पार्वती कृष्णन ने संसद में इस नरसंहार पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा और इसे साफ़ तौर पर जातीय अत्याचार बताया। लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने इसे जातीय हिंसा मानने से इंकार कर दिया।
संसद में घटना की गूंज
साल 1977 में आपातकाल के समाप्ति के बाद हुए आम चुनाव में कांग्रेस पहली बार सत्ता से बाहर हुई थी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी तक चुनाव हार गए। पहली बार केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया गया था। इसी राजनीतिक संक्रमण और अस्थिरता के बीच बिहार के बेलछी गाँव से हिंसा की भयावह खबर आई, जिसने पूरे देश को सकते में डाल दिया था। बेलछी की गूंज जल्द ही संसद तक पहुंच गई। तब तमिलनाडु से तत्कालीन सीपीआई सांसद पार्वती कृष्णन ने संसद में इस नरसंहार पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा और इसे साफ़ तौर पर जातीय अत्याचार बताया। लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने इसे जातीय हिंसा मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह जातिगत संघर्ष नहीं था बल्कि दो गुटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी।

मनोज मिट्टा ने अपनी किताब में चौधरी चरण सिंह का वह बयान दर्ज किया है, जिसमें उन्होंने साफ़ कहा था कि इस घटना में न जाति का कोण है और न ही संप्रदाय का। जैसाकि प्रेस का एक हिस्सा इसे जातीय उत्पीड़न बताने की कोशिश कर रहा है, यह वैसा मामला नहीं है। इसके बाद पार्वती कृष्णन ने गृह मंत्री की इस दलील का कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि गृह मंत्री बिहार सरकार की ‘पकाई हुई रिपोर्ट’ पर भरोसा कर रहे हैं, जबकि सच्चाई इससे अलग है। उन्होंने इस मामले में न्यायिक जांच आयोग की मांग भी की, लेकिन सरकार ने इसे ठुकरा दिया।
मनोज मिट्टा ने अपनी किताब में चौधरी चरण सिंह का वह बयान दर्ज किया है, जिसमें उन्होंने साफ़ कहा था कि इस घटना में न जाति का कोण है और न ही संप्रदाय का। जैसाकि प्रेस का एक हिस्सा इसे जातीय उत्पीड़न बताने की कोशिश कर रहा है, यह वैसा मामला नहीं है।
फैक्ट फाइंडिंग समिति का गठन
लेकिन बेलछी हत्याकांड को लेकर उठे जबरदस्त विरोध ने आख़िरकार तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह को अपना रुख बदलने पर मजबूर कर दिया। शुरुआत में इसे आपसी वर्चस्व का झगड़ा बताने वाले चौधरी चरण सिंह ने बाद में एक आठ सदस्यीय सांसद फ़ैक्ट-फ़ाइंडिंग कमेटी का गठन किया। इस समिति की अध्यक्षता उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेता राम धन को सौंपी गई, जबकि दलित समुदाय से आने वाले रामविलास पासवान को भी इसमें शामिल किया गया। यह उल्लेखनीय था क्योंकि पासवान उसी दुसाध जाति से थे, जिसके आठ लोग इस हत्याकांड में मारे गए थे। 2 जुलाई, 1977 को समिति ने बेलछी का दौरा किया और अपनी रिपोर्ट तैयार की। संसदीय इतिहास में इसे एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है क्योंकि शायद ही कभी सांसदों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस तरह किसी मामले की जांच की मांग की हो।
14 जुलाई को पेश की गई रिपोर्ट ने कई सच उजागर हुए। इसमें साफ़ लिखा था कि यह नरसंहार था और एकतरफ़ा हिंसा हुई थी जिसमें आठ दलितों की हत्या की गई थी। रिपोर्ट ने यह भी दर्ज किया कि मारे गए लोग भूमिहीन मज़दूर थे, जो बंटाई पर खेती करते थे। उनकी हत्या कथित तौर पर कुर्मी जाति के दबंग महावीर महतो और उनके साथियों द्वारा की गई थी। रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया कि यह मामला महज व्यक्तिगत रंजिश का नहीं, बल्कि जातीय हिंसा का था। दबंग किसान पक्के घरों में रहते थे, जबकि मारे गए दलित उनकी प्रभुत्वशाली मानसिकता का विरोध करते थे। इस पूरे मामले में पुलिस की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठाये गए। रिपोर्ट में संकेत दिया गया कि पुलिस की निष्क्रियता और ढिलाई ने इस भयावह नरसंहार को होने से नहीं रोका। यह एक ऐसी आलोचना थी जो आज भी जातीय हिंसा के मामलों में पुलिस की भूमिका को संदेह के घेरे में खड़ी करती है।
बेलछी हत्याकांड ने बिहार ही नहीं, पूरे देश को एक तरह से झकझोर दिया। यह घटना केवल जातीय हिंसा का प्रतीक नहीं रही, बल्कि न्यायिक व्यवस्था और राजनीतिक चेतना के लिए भी मील का पत्थर बनी। पत्रकार मनोज मीट्टा बीबीसी से बातचीत में बताते हैं कि यह दलितों के साथ हुए अन्याय की पहली ऐसी बड़ी घटना थी, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक सुर्खियां बटोरी। इसके पीछे उस समय की राजनीतिक परिस्थितियां भी मुख्य कारण रहीं। हालांकि जनता पार्टी सरकार ने शुरुआत में इस जातीय हिंसा को केवल आपसी गुटबाज़ी और गैंगवार बताने की कोशिश की। वहीं दूसरी ओर, इमरजेंसी के बाद चुनाव हारकर विपक्ष में बैठीं इंदिरा गांधी के लिए यह घटना एक राजनीतिक अवसर बन गई।

बेलछी पहुंचने के लिए वो दुर्गम रास्ते से, कार, ट्रैक्टर और यहां तक कि हाथी का भी सहारा लिया। इंदिरा का हाथी पर सवार होकर पीड़ित दलित परिवार से मिलने पहुंचना उनके राजनीतिक करियर का एक मास्टर स्ट्रोक माना बन गया। इंदिरा गांधी की इस यात्रा ने लोगों को बेहद प्रभावित किया। साथ ही साथ हिंदी पट्टी में जहां इंदिरा गांधी और कांग्रेस पहले से बहुत कमजोर हो चुकी थी, वहीं इस घटना ने गरीबों और दलितों के बीच कांग्रेस को दोबारा राजनीतिक जमीन हासिल करने में मदद की।
सुप्रीम कोर्ट में ग्रीष्मकालीन अवकाश चल रहा था, लेकिन जस्टिस ए. वरदराजन ने इसे वैध रिट याचिका मान लिया और फांसी की निर्धारित तारीख़ से दो दिन पहले यानि 23 मई 1983 को इसे स्थगित कर दिया।
हत्याकांड में मारे गए दलितों के लिए न्याय
वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिट्टा अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि, शायद ये पहली और आखिरी घटना थी, जिसमें दलितों के हत्यारों को मौत की सजा मिली। बेलछी हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त रहे महावीर महतो और परशुराम धानुक को इस नरसंहार को अंजाम देने जय जुर्म में मृत्युदंड दिया गया, जबकि अन्य 14 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सज़ा मिली। इस मामले में न्याय प्रक्रिया की गंभीरता का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि न्यायाधीश उदय सिन्हा खुद अधिवक्ताओं के साथ घटनास्थल पर गए और मौके पर जाकर पूरे मामले की पड़ताल की। मनोज अपनी किताब में लिखते हैं कि जब महावीर महतो और परशुराम धानुक को फांसी की सज़ा सुनाई गई, तो उनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दायर की गई थी।
उस समय यह याचिका टेलीग्राम के माध्यम से भेजी गई। सुप्रीम कोर्ट में ग्रीष्मकालीन अवकाश चल रहा था, लेकिन जस्टिस ए. वरदराजन ने इसे वैध रिट याचिका मान लिया और फांसी की निर्धारित तारीख़ से दो दिन पहले यानि 23 मई 1983 को इसे स्थगित कर दिया। बाद में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाय. वाय. चंद्रचूड़ और तीन अन्य न्यायाधीशों की पीठ ने मामले की प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई की। 23 सितंबर 1983 को सुनवाई के बाद यह रिट याचिका खारिज कर दी गई। आखिरकार 9 नवंबर 1983 को महावीर महतो और परशुराम धानुक को भागलपुर सेंट्रल जेल में फांसी की सजा हुई। यह फैसला भारतीय न्यायपालिका के लिए नज़ीर साबित हुआ, जहां जातीय हिंसा के मामले में दोषियों को सज़ा दिलाने के लिए पूरी प्रक्रिया का पालन किया गया।
बेलछी नरसंहार को लगभग आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी, इस त्रासदी की गूंज अब भी सुनाई देती है। इतने साल बाद भी बेलछी ही नहीं, बल्कि पूरे देश में दलितों और हाशिये के समुदायों के साथ कभी प्रतिष्ठा के नाम पर, तो कभी जातिवाद और उस आधार पर वर्चस्व के नाम पर अन्याय और हिंसा होती रहती है। कुछ मामले अदालत तक पहुंच तो जाते हैं लेकिन न्याय की धीमी रफ्तार अक्सर पीड़ितों के ज़ख्मों को और गहरा कर देती है। हमारा संविधान देश के हर नागरिक को समानता और न्याय की गारंटी देता है। लेकिन आज़ादी के लगभग आठ दशक बाद भी समाज की हकीकत इसके उलट दिखाई देती है। बेलछी से लेकर देश के कई हिस्सों में दलित और हाशिये के समुदाय अब भी अपने बुनियादी अधिकारों और गरिमा के लिए संघर्षर करना पड़ता है। उनके दिलों में आज भी यह डर कायम रहता है कि कहीं जातीय पहचान ही उनके ख़िलाफ़ हिंसा और अन्याय का कारण न बन जाए। बेलछी की घटना सिर्फ अतीत की एक भयावह कहानी नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज के उस सच का आईना है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। ये आज भी वही सवाल उठाता है कि हमने समानता और न्याय को सामाजिक संरचना में कितना ढाला है?

