भारत आज उस दौर में है जहां महिलाएं शिक्षा और करियर की नई ऊंचाइयां छू रही हैं। वे छोटे कस्बों और गांवों से निकलकर बड़े शहरों में पढ़ाई करने जा रही हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही हैं और आत्मनिर्भर बनने का सपना देख रही हैं। इस सफर में हॉस्टल उनके लिए ‘दूसरा घर’ बन जाता है। हॉस्टल में न सिर्फ रहने की व्यवस्था और खाने की सुविधा देता है, बल्कि वहां अच्छे दोस्त और पढ़ाई के लिए शांत माहौल मिलता है। यह उनकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन जाता है।
लेकिन जब छात्राएं हॉस्टल में प्रवेश करती हैं, तो उन्हें सुरक्षा के नाम पर इतने नियमों का सामना करना पड़ता है कि कई बार वे खुद को बंधन में महसूस करती हैं। गेट खुलने-बंद होने का समय, बाहर जाने की अनुमति, हर छोटी-बड़ी बात पर नज़र रखना, यह सब उन्हें यह सोचने पर मजबूर करता है कि यह जगह सच में उनका घर है या फिर एक पिंजरा। आज कॉलेज में पढ़ने आने वाली ज़्यादातर छात्राएं 18 साल से ऊपर की होती हैं। यानी वे बालिग हैं, अपने फ़ैसले खुद लेने में सक्षम हैं। सवाल यह उठता है कि क्या ये नियम सच में सुरक्षा के लिए हैं या फिर यह उनकी आज़ादी पर नियंत्रण करने का तरीका है?
आज कॉलेज में पढ़ने आने वाली ज़्यादातर छात्राएं 18 साल से ऊपर की होती हैं। यानी वे बालिग हैं, अपने फ़ैसले खुद लेने में सक्षम हैं। सवाल यह उठता है कि क्या ये नियम सच में सुरक्षा के लिए हैं या फिर यह उनकी आज़ादी पर नियंत्रण करने का तरीका है?
सुरक्षा या छात्राओं की आज़ादी पर नियंत्रण?
भारत के अधिकतर महिला हॉस्टलों में कुछ समान नियम देखने को मिलते हैं। जैसे, शाम 7 या 8 बजे तक हॉस्टल का गेट बंद हो जाता है। अगर कोई लड़की बाहर जाती है तो रजिस्टर में नाम लिखना और लौटने का समय दर्ज करना होता है। यहां तक कि डिलीवरी लेने का समय भी तय होता है। अगर कभी देर से लौटें तो वार्डन से लिखित अनुमति लेनी पड़ती है। दोस्तों या रिश्तेदारों से मिलने पर भी रोक-टोक रहती है, खासकर अगर मुलाक़ात हॉस्टल परिसर के अंदर करनी हो। इन नियमों का दावा होता है कि वे छात्राओं की सुरक्षा के लिए हैं। लेकिन व्यवहार में वे छात्राओं की आज़ादी को सीमित कर देते हैं। अगर कोई छात्रा देर तक लाइब्रेरी में पढ़ाई करना चाहती है, रिसर्च वर्कशॉप में जाना चाहती है, या डिबेट और सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेना चाहे तो यही नियम उसके रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट बन जाते हैं।

भुवनेश्वर के एक कॉलेज में पढ़ाई करने वाली छात्रा बताती हैं, “मैंने कॉलेज के हॉस्टल में रहकर महसूस किया कि सुरक्षा के नाम पर बनाए गए कई नियम दरअसल हमें नियंत्रित करने का साधन बन गए हैं। रात 8 बजे गेट बंद हो जाना हमेशा परेशानी नहीं था, लेकिन जब भी किसी काम से बाहर जाना पड़ता, तो समय पर लौटने की हड़बड़ी और भाग-दौड़ ज़रूर करनी पड़ती थी। वार्डन भी काफ़ी सख़्त थीं, इसलिए नियमों से ज़रा सा इधर-उधर होना भी मुश्किल हो जाता था। घर जाने के लिए छुट्टी लेनी होती थी, तो उसके लिए भी कई प्रोफेसरों से एक-एक करके साइन करवाने पड़ते थे।”
जब हॉस्टल में सीसीटीवी जैसी बुनियादी सुविधाएं और सुरक्षा गार्ड तक मौजूद नहीं होते, तो साफ़ समझ आता है कि नियमों का मकसद हमारी सुरक्षा नहीं, बल्कि हमें काबू में रखना है। ऐसे माहौल में कई बार ऐसा लगता था जैसे हम सुरक्षित नहीं, बल्कि लगातार निगरानी में रह रहे हैं।
आगे वह बताती हैं, “जब हॉस्टल में सीसीटीवी जैसी बुनियादी सुविधाएं और सुरक्षा गार्ड तक मौजूद नहीं होते, तो साफ़ समझ आता है कि नियमों का मकसद हमारी सुरक्षा नहीं, बल्कि हमें काबू में रखना है। ऐसे माहौल में कई बार ऐसा लगता था जैसे हम सुरक्षित नहीं, बल्कि लगातार निगरानी में रह रहे हैं।” हरियाणा के एक विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली छात्रा अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “हमारे हॉस्टल में शाम 7:30 बजे के बाद गेट बंद कर दिया जाता है। कई बार ऐसा हुआ कि मैं प्रतियोगिता या स्टडी ग्रुप की वजह से थोड़ी देर से लौटी, उस पर वार्डन ने मुझे काफी फटकार लगाई।”
महिला हॉस्टल में पाबंदियां और ‘पिंजरा तोड़’ आंदोलन

पटना विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली एक छात्रा बताती है, “हमारे हॉस्टल में लड़कियों को बाहर जाने के लिए ‘एंट्री-एग्ज़िट रजिस्टर’ में साइन करना पड़ता है। अगर कोई देर से लौटे तो पूरे बैच को नोटिस मिल जाता है। जबकि लड़कों के हॉस्टल में ऐसे कोई नियम नहीं हैं। इससे हमेशा यही एहसास होता है कि लड़कियों पर भरोसा नहीं किया जाता।” इन अनुभवों से साफ है कि छात्राओं के लिए हॉस्टल नियम सुरक्षा की बजाय पाबंदी का रूप ले चुके हैं। आज भारत में लाखों लड़कियां अच्छी पढ़ाई का सपना लेकर कॉलेज और यूनिवर्सिटी में दाख़िल हो रही हैं। इंडिया टुडे में छपी, सर्व भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण की साल 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, 18 से 23 साल की करीब 28.5 फीसदी लड़कियां इस सफ़र में शामिल हैं। इसका मतलब है कि वे बालिग़ हैं, खुद पर निर्भर बनना चाहती हैं, और हॉस्टल में रहकर अपने फैसले खुद लेना चाहती हैं। लेकिन कई संस्थानों में अब भी ऐसे नियम लागू हैं जो सिर्फ़ महिला छात्राओं पर सख़्त पाबंदियां लगाते हैं।
हमारे हॉस्टल में लड़कियों को बाहर जाने के लिए ‘एंट्री-एग्ज़िट रजिस्टर’ में साइन करना पड़ता है। अगर कोई देर से लौटे तो पूरे बैच को नोटिस मिल जाता है। जबकि लड़कों के हॉस्टल में ऐसे कोई नियम नहीं हैं। इससे हमेशा यही एहसास होता है कि लड़कियों पर भरोसा नहीं किया जाता।
जब कई छात्राएं अपने हॉस्टल और पीजी में लगे सख़्त और भेदभावपूर्ण नियमों से परेशान थीं, तब दिल्ली की कुछ बहादुर लड़कियों ने मिलकर ‘पिंजरा तोड़ आंदोलन’ शुरू किया। ये सिर्फ़ एक संगठन नहीं, बल्कि एक ज़रूरत थी, एक आवाज़, जो कह रही थी कि महिलाएं भी अपने फैसले खुद ले सकती हैं, उन्हें भी आज़ादी से जीने का हक़ है। इस आंदोलन का मकसद था उन नियमों को चुनौती देना जो महिलाओं को सीमित करते हैं, और एक ऐसा माहौल बनाना जहां हर लड़की बिना डर के अपने सपनों की उड़ान भर सके। क्योंकि सुरक्षा का मतलब बंद दरवाज़े नहीं होता।
महिला और पुरुष हॉस्टलों में असमानताएं
यदि महिला और पुरुष हॉस्टलों की तुलना करें तो अंतर और भी साफ हो जाता है। लड़कों के हॉस्टलों में गेट अक्सर देर रात तक खुले रहते हैं। बाहर जाने के लिए उन्हें किसी वार्डन से अनुमति नहीं लेनी पड़ती। देर से आने पर उन पर सामूहिक सज़ा या नोटिस जैसी सख्ती नहीं होती। जबकि लड़कियों के लिए हर छोटी-बड़ी गतिविधि पर रोक-टोक होती है। यह फर्क सिर्फ सुरक्षा का बहाना बनाकर महिलाओं की आज़ादी पर नियंत्रण को सही ठहराता है। यही भेदभाव हमें बड़े स्तर पर भी देखने को मिलता है। साल 2025 की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के मुताबिक, भारत 148 देशों में 131वें स्थान पर है, और हमारा कुल स्कोर सिर्फ़ करीब 64फीसदी है। यह दिखाता है कि लैंगिक समानता की दिशा में हमें अभी लंबा सफर तय करना है। शिक्षा और स्वास्थ्य में कुछ सुधार होने के बावजूद, महिलाओं की आज़ादी और भागीदारी अब भी पीछे छूटी हुई है। हॉस्टलों में नियमों का यह अंतर उसी असमानता की झलक है, जिसे हमें बदलना होगा।
जब कई छात्राएं अपने हॉस्टल और पीजी में लगे सख़्त और भेदभावपूर्ण नियमों से परेशान थीं, तब दिल्ली की कुछ बहादुर लड़कियों ने मिलकर ‘पिंजरा तोड़ आंदोलन’ शुरू किया। ये सिर्फ़ एक संगठन नहीं, बल्कि एक ज़रूरत थी, एक आवाज़, जो कह रही थी कि महिलाएं भी अपने फैसले खुद ले सकती हैं
ग्रामीण पृष्ठभूमि की छात्राओं पर हॉस्टल पाबंदियों का प्रभाव

इन पाबंदियों का बोझ उन छात्राओं पर और भी ज़्यादा महसूस होता है जो छोटे कस्बों या गांव से पढ़ाई के लिए बाहर आती हैं। घर पर वे पहले से ही तरह-तरह की पाबंदियों और सामाजिक दबाव का सामना करती हैं । जब वे शहरों में पढ़ाई करने आती हैं तो उन्हें लगता है कि अब उन्हें थोड़ा खुला माहौल मिलेगा। लेकिन हॉस्टल में प्रवेश करते ही जब उन्हें फिर से अनुमति-पत्र और हर गतिविधि पर निगरानी जैसी शर्तें झेलनी पड़ती हैं, तो उन्हें लगता है कि वे घर जैसा ही माहौल है। माता-पिता को भरोसा रहता है कि उनकी बेटियां सुरक्षित हैं। लेकिन जब कोई लड़की घर से दूर पढ़ाई के लिए निकलती है, तो वह सिर्फ किताबों की दुनिया में नहीं जाती, वह एक नई ज़िंदगी की तलाश में निकलती है। खासकर वे लड़कियां जो छोटे कस्बों और गांवों से आती हैं, उनके लिए शहर का हॉस्टल एक उम्मीद होता है । एक ऐसी जगह जहां वे खुद को गढ़ सकें, अपनी आवाज़ को पहचान सकें, और उन सपनों को जी सकें जिन्हें अक्सर घर की चार दीवारी में दबा दिया जाता है।
अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (एआईएचईएस) के अनुसार, भारत में उच्च शिक्षा पाने वाली 20.7 फीसदी से ज़्यादा छात्राएं ग्रामीण पृष्ठभूमि से आती हैं। ज़्यादातर के लिए हॉस्टल ही पढ़ाई का सहारा होता है। ऐसे में जब वही पुराने बंधन दोहराए जाते हैं, तो उनके आत्मविश्वास और आज़ादी पर गहरा असर पड़ता है। जो लड़कियां आत्मनिर्भर बनने का सपना लेकर बाहर निकलती हैं, उनके लिए ये नियम सपने की राह में नई दीवारें खड़ी कर देते हैं। इन पाबंदियों के कई नुकसान साफ नज़र आते हैं। देर रात लाइब्रेरी जाने, रिसर्च वर्कशॉप या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से लड़कियां वंचित रह जाती हैं, जिससे उनके शैक्षणिक मौके कम हो जाते हैं। हर समय निगरानी और रोक-टोक मानसिक दबाव पैदा करती है और उनमें असुरक्षा बढ़ने लगती है। सबसे बड़ी बात यह है कि जब लड़कों को छूट और लड़कियों को पाबंदी मिलती है तो असमानता की भावना गहरी होती है।
जो लड़कियां आत्मनिर्भर बनने का सपना लेकर बाहर निकलती हैं, उनके लिए ये नियम सपने की राह में नई दीवारें खड़ी कर देते हैं। इन पाबंदियों के कई नुकसान साफ नज़र आते हैं। देर रात लाइब्रेरी जाने, रिसर्च वर्कशॉप या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से लड़कियां वंचित रह जाती हैं ।
हॉस्टल नियमों में सुधार की जरूरत

अगर सच में सुरक्षा सुनिश्चित करनी है तो पाबंदियों के बजाय ठोस कदम उठाए जा सकते हैं। जैसे हॉस्टल परिसर में सीसीटीवी और पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था हो, महिला और पुरुष दोनों के लिए समान नियम बनाए जाएं, देर रात लौटने वाली छात्राओं के लिए सुरक्षित परिवहन उपलब्ध हो, 24×7 हेल्पलाइन और मेडिकल सुविधाएं दी जाएं । साथ ही शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए समय में लचीलापन रखा जाए और नियम बनाने में छात्राओं की राय भी शामिल की जाए, ताकि वे इन्हें सुरक्षा के रूप में देखें, पाबंदी के रूप में नहीं।
किसी भी संस्था के लिए नियम ज़रूरी हैं, लेकिन उनका उद्देश्य सुरक्षा होना चाहिए, न कि महिलाओं की आज़ादी पर नियंत्रण। ‘सुरक्षा’ के नाम पर छात्राओं की आज़ादी सीमित होना पाबंदी है, न कि सुरक्षा। कई बार ऐसी देखरेख अवसर और बराबरी दोनों छीन लेती हैं। हॉस्टल के कानून तभी सही माने जा सकते हैं जब वे सुरक्षा और बराबरी दोनों को ध्यान में रखें। केवल लड़कियों पर पाबंदियां लगाना असमानता है। सुरक्षा का मतलब आज़ादी छीनना नहीं, बल्कि ऐसी व्यवस्था बनाना है जिसमें छात्राएं बिना डर के अपनी पढ़ाई और करियर में आगे बढ़ा सकें। इसलिए कहा जा सकता है कि महिला हॉस्टलों के कानून तब तक सही नहीं कहे जा सकते जब तक वे सुरक्षा और समानता का संतुलन नहीं बनाते।

