साल 2019 में भारत सरकार ने ‘मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम’ के तहत तीन तलाक़ को अपराध घोषित कर दिया था। जब यह क़ानून बना, तब इसे भारतीय मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने वाला कहा गया था। सरकार ने इसे ‘लैंगिक न्याय’ की दिशा में एक ‘क्रांतिकारी कदम’ बताया था, लेकिन क़ानून बन जाने भर से महिलाओं को इंसाफ मिल जाएगा, यह मान लेना शायद जल्दबाज़ी थी। आज भी राजस्थान के कई ज़िलों में आज भी मुस्लिम महिलाएं इस कानून के होने के बावजूद मानसिक, सामाजिक उत्पीड़न का सामना कर रही हैं। इस क़ानून के तहत दोष साबित होने पर सजा के तौर पर तीन साल की जेल और जुर्माने का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लाया गया यह क़ानून राजनीतिक और धार्मिक बहसों के केंद्र में रहा था।
31 जुलाई 2020 को कानून (Triple Talaq Act, 2019) के एक वर्ष पूरे होने पर भाजपा सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी ने एक वीडियो कार्यक्रम के दौरान बताया था की इस कानून के लागू होने के बाद ट्रिपल तलाक़ के मामलों में करीब 80 फ़ीसद की गिरावट दर्ज की गई है। इसके उपलक्ष में 1 अगस्त को मुस्लिम महिला अधिकार दिवस घोषित किया गया, लेकिन ज़मीनी हालात इससे इतर ही नज़र ही आते हैं। जागरूकता की कमी, पुलिस और प्रशासन की लापरवाही, कम क़ानूनी समझ और सामाजिक दबाव की वजह से कई महिलाओं के लिए इंसाफ आज भी दूर की कौड़ी ही है। मात्र एक वर्ष में तलाक़ की दर में इतनी बड़ी गिरावट का आंकड़ा संदेह के घेरे में आता है।
मेरे पति ने मेरे भाई के मोबाइल के माध्यम से ‘तलाक़-तलाक़-तलाक़’ लिख भेजा और कहा कि अब मुझे तेरे साथ नहीं रहना है।” इस दौरान अब्दुल रज़ाक ने पहले से ही मुझे अपने माता-पिता के यहां छोड़ दिया था।
क्या सचमुच खत्म हुआ है तीन तलाक
पश्चिमी राजस्थान के बालोतरा जिले की रहने वाली ज़ुबैदा बानो को उनके पति ने साल 2017 में फ़ोन पर तलाक़ दे दी थी। ज़ुबैदा की शादी 2004 में बालोतरा के अब्दुल रज़ाक से हुई थी। ज़ुबैदा कहती हैं, “मेरे पति ने मेरे भाई के मोबाइल के माध्यम से ‘तलाक़-तलाक़-तलाक़’ लिख भेजा और कहा कि अब मुझे तेरे साथ नहीं रहना है।” इस दौरान अब्दुल रज़ाक ने पहले से ही मुझे अपने माता-पिता के यहां छोड़ दिया था। लेकिन, ज़ुबैदा के लिए कानूनी पहुंच और उसकी मदद लेना मुश्किल था। फेमिनिज़्म इन इंडिया से बात करते हुए वो कहती हैं,”मुझे उम्मीद थी कि शायद मैं वापस अपने पति के पास जा पाऊंगी लेकिन यह इंतज़ार लंबा ही होता चला गया।”

नम आँखों से वो आगे कहती हैं, ”कोरोना महामारी के दौरान मैं पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं करवा सकी। साल 2022 में मैंने भरण-पोषण का मामला दर्ज करवाया, जिसपर अदालत ने भरण-पोषण दिलाने का फैसला सुनाया, लेकिन आज तक मुझे को सिर्फ 50 हज़ार रुपए ही मिल सके हैं।“ फेमिनिज़्म इन इंडिया ने ज़ुबैदा के वकील कैलाश पूरी से बात करने पर हमें बताया गया कि अब्दुल रज़ाक ने ज़ुबैदा को भरण-पोषण के पैसे नहीं देने पर अदालत ने उसे गिरफ्तार करने का आदेश दिया लेकिन पुलिस की लापरवाही के चलते उसे अब तक कानून के दायरे में लाया नहीं जा सका है। पुलिस ने हर बार एक नया बहाना बन कर आदेश की अवहेलना की है। ज़ुबैदा बताती हैं, “तीन तलाक़ क़ानून की उन्हें कोई जानकारी नहीं है। न तो पुलिस, न वकील, और न ही किसी संस्था ने उन्हें इस क़ानून के तहत उसके अधिकारों की जानकारी दी है।”
पुलिस ने हर बार एक नया बहाना बन कर आदेश की अवहेलना की है। ज़ुबैदा बताती हैं, “तीन तलाक़ क़ानून की उन्हें कोई जानकारी नहीं है। न तो पुलिस, न वकील, और न ही किसी संस्था ने उन्हें इस क़ानून के तहत उसके अधिकारों की जानकारी दी है।”
क्या कहती है महिलाओं के अधिकारों पर काम करने वाली संस्थाएं
महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली अनेक संस्थाएं भी हैं, जो विवाह, तलाक़ और घरेलू हिंसा का सामना कर रही महिलाओं की क़ानूनी मदद करती हैं। उनमें से एक जयपुर की नेशनल मुस्लिम वुमन वेलफेयर सोसाइटी है जिसका संचालन निशात हुसैन करती हैं। फेमिनिज़्म इन इंडिया से बात करते हुए निशात कहती हैं, ”मेरे पास अजमेर जिले से तीन तलाक़ का एक मामला सामने आया था, लेकिन जुर्म साबित हो जाने के बाद भी सर्वाइवर को न्याय नहीं मिल पाया।” निशात भी वैधानिक प्रक्रिया पर सवाल उठाती हैं। वो कहती हैं, ”पुरुष पक्ष विभिन्न तरीकों से अपना पक्ष मज़बूत कर लेते हैं और तीन तलाक़ की वैधानिक प्रक्रिया से बचते हुए महिलाओं का मानसिक और सामाजिक शोषण करते हैं। उन्हें एकपक्षीय रूप से अस्वीकार कर दिया जाता है, जो इस क़ानून की वास्तविक उपयोगिता और उसके प्रभावी क्रियान्वयन पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।”

भले ही तलाक़ परिवारों पर गहरा असर डालता है, लेकिन भारत में तलाक़ से जुड़े आंकड़े और कारणों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। 2011 का जनगणना इस बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी देती है क्योंकि इसमें पहली बार तलाकशुदा और अलग रह रहे व्यक्तियों की अलग-अलग गिनती की गई। इस जनगणना के अनुसार, लगभग 13.6 लाख लोग तलाकशुदा थे। यह संख्या विवाहित आबादी का 0.24 फीसद और देश की कुल आबादी का सिर्फ 0.11 फीसद है। इसके समानांतर, पति-पत्नी के अलगाव की दर 1.04 फीसद दर्ज की गई है। यानी कुल मिलाकर लगभग 1.5 फीसद विवाहित महिलाएं वैवाहिक अलगाव (तलाक या अलगाव) का सामना करते हैं। यह संख्या भारत जैसे पारंपरिक और सामूहिक मूल्यों वाले समाज में छोटी प्रतीत होती है, लेकिन इसके पीछे कई सामाजिक और व्यक्तिगत संघर्ष छिपे होते हैं।
मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 मुस्लिम महिलाओं की दशकों पुरानी एक अहम मांग की पूर्ति करता है। यह कानून निश्चित रूप से एक सख्त कानूनी संदेश देता है और पितृसत्तात्मक ढांचे के खिलाफ़ एक ठोस शुरुआत का प्रतीक है। लेकिन, इसकी घोषणा मात्र से बदलाव सुनिश्चित नहीं होता।
ज़ुबैदा जैसी है कई कहानियां
जयपुर की रहने वाली शाहीन की कहानी भी ज़ुबैदा से कुछ अलग नहीं है। शाहीन का निकाह सलमान से साल 2017 में हुआ। उनकी एक बेटी भी हुई। लेकिन, 20 महीने साथ रहने के बाद उसका पति सलमान दुबई चला गया। 7 महीने बाद वापस वो भारत आया तो उसका व्यवहार पूरी तरह बदल गया। फेमिनिज़्म इन इंडिया से बात करते हुए शाहीन कहती हैं, ”मुझे मानसिक रूप से शोषित किया जाने लगा। मेरा पति अक्सर मुझे धमकाता था कि अगर मैंने किसी से अपनी तकलीफ साझा की तो वह मुझे तलाक़ दे देगा। यह सब सालों चलता रहा।” शाहीन पांच साल से अपने मायके में रह रही हैं। शाहीन कहती हैं, ”मेरे पति ने मेरे से सभी संपर्क ख़त्म कर लिए। वह न तो मुझे तलाक़ दे रहा है और न ही साथ रह रहा है। इसकि वजह से मैं अब पूरी तरह से टूट चुकी हूं। मुझे न क़ानूनी मदद ही मिली है और न ही मुझे इस बारे में कोई जानकारी है।” फेमिनिज़्म इन इंडिया से बात करते हुए निशात हुसैन कहती हैं, ”मैं साल 2005 से महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ रही हूं। हमारी लड़ाई सिर्फ तीन तलाक़ के खिलाफ़ ही नहीं है, बल्कि हर उस अन्याय के खिलाफ़ है जो महिलाओं को कमज़ोर करता है।”
3 साल भी नहीं चल पाई सना की शादी
जयपुर की सना खान की शादी साल 2022 के अंत में हुई थी। मां-बाप की मर्ज़ी से हुई इस शादी ने कुछ ही महीनों में बुरे सपने का रूप ले लिया। सना कहती हैं ”मेरे पति का पहले से एक और महिला के साथ रिश्ता था। उन्हें मैं कभी पसंद ही नहीं आई। शादी के बाद मुझे मानसिक, शारीरिक और आर्थिक हिंसा का सामना करना पड़ा। बेटी पैदा होने पर मेरे साथ शारीरिक हिंसा हुई। कमरे में बंद किया गया और ज़बरदस्ती कागज़ों पर दस्तख़त करवाए गए। एक दिन, पड़ोसियों और मां के सामने मेरे पति ने तीन बार ‘तलाक़’ कहकर रिश्ता तोड़ दिया।” सना ने पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाई, लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। सना कहती हैं, “पुलिस ने मेरी कोई मदद नहीं की। यहां-वहां घुमाया और आख़िरकार मेरे पति को ज़मानत मिल गई। अब मैं अकेले ही अपनी बेटी की परवरिश कर रही हूं।” वो आगे जोड़ती हैं, ”डिलीवरी मेरे मायके में हुई। बच्ची के बाद भी किसी ने सुध नहीं ली। बच्ची तो बस बहाना थी, वो तो पहले दिन से ही साथ नहीं रहना चाहते थे।”
‘पुरुष पक्ष विभिन्न तरीकों से अपना पक्ष मज़बूत कर लेते हैं और तीन तलाक़ की वैधानिक प्रक्रिया से बचते हुए महिलाओं का मानसिक और सामाजिक शोषण करते हैं। उन्हें एकपक्षीय रूप से अस्वीकार कर दिया जाता है, जो इस क़ानून की वास्तविक उपयोगिता और उसके प्रभावी क्रियान्वयन पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
क्या कहते हैं क़ानून के जानकार
जयपुर की नाज़िश राशिद अधिवक्ता हैं, जो सालों से परिवार और तीन तलाक़ से जुड़े मामलों में आए फैसलों से परिचित हैं। नाज़िश राशिद के अनुसार, यह कानून उस बुनियादी असमानता को नहीं छूता, जो मुस्लिम पारिवारिक कानून में गहराई से बैठी हुई है, जिसमें तलाक़ देने का पूरा अधिकार सिर्फ पुरुष के पास है। वो आगे जोड़ती हैं, “चाहे तलाक़ एक बार में दिया गया हो या चरणबद्ध तरीके से (तलाक़-ए-हसन या अहसन), पत्नी के पास कोई कानूनी रास्ता नहीं होता कि वह इसे रोक सके या चुनौती दे सके। एक महिला ने मुझसे बेहद चुपचाप पूछा कि जब निकाह के लिए दोनों की रज़ामंदी ज़रूरी थी, तो तलाक़ सिर्फ वही क्यों कह सकता है?” नाज़िश आगे कहती हैं, “जब तक तलाक़ की प्रक्रिया भी निकाह की तरह परस्पर सहमति पर आधारित नहीं होती, तब तक महिलाओं को उनका पूरा इंसाफ़ नहीं मिलेगा। कानून है, लेकिन उसमें महिलाओं के अधिकार की गूंज अब भी गायब है।”
सिर्फ क़ानून बना देना भर काफ़ी नहीं
मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 मुस्लिम महिलाओं की दशकों पुरानी एक अहम मांग की पूर्ति करता है। यह कानून निश्चित रूप से एक सख्त कानूनी संदेश देता है और पितृसत्तात्मक ढांचे के खिलाफ़ एक ठोस शुरुआत का प्रतीक है। लेकिन, इसकी घोषणा मात्र से बदलाव सुनिश्चित नहीं होता। असली चुनौती है, इस कानून को ज़मीनी स्तर पर प्रभावी ढंग से लागू करना और यह सुनिश्चित करना कि हर मुस्लिम महिला तक इसके लाभ वास्तविक रूप में पहुंचे। सना, जुबैदा बानो और शाहीन जैसी कई महिलाओं की कहानियां इस सच्चाई को उजागर करती हैं कि कानून की मौजूदगी तब तक सार्थक नहीं हो सकती जब तक उसका पालन न हो और सर्वाइवर महिलाओं को समय पर न्याय और संरक्षण न मिले। कई बार सामाजिक दबाव, पुलिस की अनदेखी और कानूनी प्रक्रिया की जटिलताएं इस कानून की प्रभावशीलता को कमजोर कर देती हैं।

