समाजकानून और नीति जानें, मुस्लिम विधि में महिलाओं के तलाक़ के अधिकार के बारे में

जानें, मुस्लिम विधि में महिलाओं के तलाक़ के अधिकार के बारे में

इस अधिनियम के आने से पहले भारत में मुस्लिम महिला केवल दो आधारों पर अपने पति से विवाह -विच्छेद कर सकती थी, पति की बच्चा पैदा करने में अक्षमता और पति द्वार पुरुषगमन का झूठा आरोप लगाए जाने पर। इन दोनों स्थितियों के न होने पर एक महिला अगर अपने पति से अलग होना चाहती थी तो भी इसमें सफल नहीं हो सकती थी। ऐसे में उसके पास बस एक ही विकल्प होता था और वह था धर्म त्यागना। धर्म त्यागने के बाद उस महिला पर मुस्लिम धर्म के क़ानून लागू नहीं होते थे।

समय-समय पर भारतीय विधायिका ने व्यक्तिगत कानूनों में बड़े बदलाव किये हैं। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 वह कानून था जो मुस्लिम महिलाओं को हिंदू और अन्य धर्मों की महिलाओं की तरह तलाक का अधिकार देता है। यह अधिनियम भारत के सभी मुसलमानों पर उनके स्कूल (मुस्लिम समाज कुछ स्पेशल स्कूल में बंटा हुआ है) के अंतर के बिना लागू होता है। यह अधिनियम भारत में मुस्लिम स्त्रियों के तलाक के अधिकार को मज़बूत करने के लिए लाया गया।

इस अधिनियम के आने से पहले भारत में मुस्लिम महिला केवल दो आधारों पर अपने पति से विवाह -विच्छेद कर सकती थी, पति की बच्चा पैदा करने में अक्षमता और पति द्वार पुरुषगमन का झूठा आरोप लगाए जाने पर। इन दोनों स्थितियों के न होने पर एक महिला अगर अपने पति से अलग होना चाहती थी तो भी इसमें सफल नहीं हो सकती थी। ऐसे में उसके पास बस एक ही विकल्प होता था और वह था धर्म त्यागना। धर्म त्यागने के बाद उस महिला पर मुस्लिम धर्म के क़ानून लागू नहीं होते थे।

भारतीय विधयिका ने मुस्लिम महिलाओं की इस मुश्किल को हल किया और इस अधिनियम को भारत में लागू किया। इस अधिनियम के आने के बाद मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से तलाक लेने के 9 आधार मिल गए। इस अधिनियम में एक मुस्लिम महिला को तलाक के लिए दिए गए आधारों पर हम यहां चर्चा करेंगे। अधिनियम की धारा 2 द्वारा उपयोग किया जाने वाला शब्द “एक मुस्लिम कानून के तहत विवाहित महिला’ है, न कि एक ‘मुस्लिम महिला’। इस प्रकार यह अधिनियम उन महिलाओं की भी रक्षा करता है जो पहले से ही विवाह को भंग करने की आशा में इस्लाम को समाप्त कर चुकी हैं और धर्म त्यागने के कारण अब मुस्लिम नहीं हैं; वे अधिनियम में दिए गए किसी भी आधार पर अपनी शादी को भंग कर सकती हैं। 

धारा 2 के अनुसार विवाह-विच्छेद के लिए महिलाओं को मिलने वाले आधार निम्नलिखित हैं:  

मुस्लिम विधि के अधीन विवाहित स्त्री अपने विवाह के विघटन के लिए निम्नलिखित आधारों में से किसी एक या अधिक आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने की हकदार होगी: 

  • पति की अनुपस्थिति: धारा 2 (i) के अनुसार यदि पति चार साल से लापता है तो मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाहित स्त्री अपने विवाह-विच्छेद की डिक्री पाने की हक़दार होती है। परन्तु न्यायालय द्वारा पारित डिक्री, डिक्री की तिथि से छह महीने के भीतर तक प्रभावी नहीं होगी। धारा 2 (ix) अपवाद (b) कि अनुसार यदि छह महीने के अंतर्गत पति वापस आ जाए और न्यायालय के समक्ष ये साबित कर दे कि वह अपने दाम्पत्य कर्तव्यों का पालन करने कि लिए तैयार है, तो न्यायालय ऐसी डिक्री को निष्प्रभावी बना देगा।
  • पति द्वारा पत्नी के भरण-पोषण की उपेक्षा: धारा 2 (ii) के अनुसार यदि पति ने दो वर्ष तक पत्नी के भरण-पोषण की व्यवस्था करने में उपेक्षा की है या उसमें असफल रहा है, तो मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाहित स्त्री अपने विवाह-विच्छेद की डिक्री पाने की हक़दार होती है। पति का पत्नी को भरण पोषण न कर पाना पत्नी द्वारा तलाक के लिए एक उपयुक्त आधार है और ऐसे वाद में पति यह तर्क प्रस्तुत नहीं कर सकता कि वह गरीब है, या उसकी नौकरी चली गयी है या उसने ऐसा आशय के बिना किया है । 

अगर पत्नी अपने आप ऐसी स्थिति उत्पन्न करती है जिससे कि पति उसका भरण-पोषण न कर पाए या करने से मना कर दे तो पत्नी, पति के खिलाफ केस करने में सफल नहीं होगी। पत्नी द्वारा अपने कर्तव्य पूरा न कर पाने पर, या पत्नी द्वारा व्यभिचार अपनाने पर या पत्नी अपने पति का घर बिना किसी कारण के छोड़ दे तो ऐसी स्थिति में मुस्लिम विधि में पति द्वारा पत्नी का भरण-पोषण करना आवश्यक नहीं है। वीरान सव्यू रवथर बनाम बीवाथुम्मा के वाद में केरल हाई कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था कि एक पत्नी जो अपने पति से दूर अपने मायके में रह रही है वह भी इस अधिनियम के अंतर्गत पति द्वारा भरण-पोषण न करने पर और दो साल तक उसकी उपेक्षा करने पर विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने के लिए न्यायलय में वाद ला सकती है। 

इस अधिनियम के अंतर्गत अमीर या गरीब स्त्री के मध्य कोई भेद नहीं रखा गया है इसीलिए यदि पति अपनी पत्नी जो कि अमीर थी या नौकरीपेशा है तो उसके भरण-पोषण की उपेक्षा करता है तो वह पत्नी इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने के लिए न्यायलय में वाद ला सकती है ।

  • पति को सात साल या उससे अधिक का कारावास: धारा 2 (iii) के अनुसार यदि पति को सात वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए जेल की सज़ा हो जाए तब पत्नी न्यायालय से विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर सकती है। लेकिन ऐसी डिक्री प्राप्त करने के लिए न्यायालय के अंतिम आदेश का आना ज़रूरी है। उससे पहले पत्नी इस आधार पर वाद नहीं ला सकती। 
  • दाम्पत्य दायित्वों/वैवाहिक कर्तव्यों के पालन में असफलता:  धारा 2 (iv) के अनुसार यदि पति तीन वर्ष तक अपने वैवाहिक कर्तव्यों का पालन करने में समुचित कारण बिना असफल रहा है तो पत्नी इस आधार पर न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिए वाद दायर कर सकती है। ये आधार पत्नी द्वारा तभी सफल बनाया जा सकता है जब पत्नी ये साबित कर दे कि पति ने उसके साथ ऐसा जान बूझ कर ‘बिना उचित कारण के’ किया था। उचित कारण का अवलोकन न्यायालय द्वारा किया जाएगा। 
  • पति की बच्चा पैदा करने में अक्षमता: धारा 2 (v) के अनुसार यदि पति विवाह के समय बच्चा पैदा करने में सक्षम नहीं है और बराबर ऐसा ही रहा है तो पत्नी इस आधार पर न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिए वाद दायर कर सकती है।

अपवाद – इस आधार पर कोई डिक्री पारित करने के पूर्व न्यायालय, पति द्वारा आवेदन किए जाने पर, ऐसा आदेश करेगा जिसमें पति से यह अपेक्षा की जाएगी कि वह उस आदेश की तारीख से एक वर्ष के भीतर न्यायालय का यह समाधान कर दे कि वह बच्चा पैदा करने में अक्षम नहीं रह गया है और यदि पति उस अवधि में इस प्रकार न्यायालय का समाधान कर देता है तो उक्त आधार पर कोई भी डिक्री पारित नहीं की जाएगी । 

  • पति की मानसिक स्थिति: धारा 2 (vi) के अनुसार यदि पति दो वर्ष तक उन्मत्त रहा है या उग्र रतिज रोग से पीड़ित है तो पत्नी इस आधार पर न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिए वाद दायर कर सकती है। 
  • पत्नी द्वारा विवाह की अस्वीकृति: धारा 2 (vii) के अनुसार यदि पन्द्रह वर्ष की आयु प्राप्त होने से पहले ही उसके पिता या अन्य संरक्षक ने उसका विवाह किया था और उसने अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व ही विवाह का निराकरण कर दिया है; परन्तु यह तब जब विवाहोत्तर संभोग न हुआ हो; तो पत्नी इस आधार पर न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिए वाद दायर कर सकती है। 

यह नियम असल में मुस्लिम विधि में ख्यार उल बुलूग़ कहलाता है। मुस्लिम विधि के इस नियम में थोड़ा संशोधन करके इस अधिनियम में जोड़ा गया है। मुस्लिम विधि के अंतर्गत इस अधिकार का प्रयोग एक मुस्लिम महिला केवल तभी कर सकती है जिसका विवाह उसके पिता या दादा ने छल या जबरन करवा दिया हो। ऐसे में वह यौवनावस्था प्राप्त करने के तुरंत बाद ही इस अधिकार का प्रयोग करके विवाह-विच्छेद करा सकती है। परन्तु इस अधिनियम के बाद एक मुस्लिम महिला जिसका विवाह उसके पिता या दादा या संरक्षक ने 18 साल से पहले करवा दिया हो तो वह 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व अपने इस अधिकार का प्रयोग कर न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिए वाद दायर कर सकती है। 

  • पति द्वारा क्रूरता: धारा 2 (viii) के अनुसार यदि पति अपनी पत्नी के साथ क्रूरता से व्यवहार करता है, तो पत्नी इस आधार पर न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिए वाद दायर कर सकती है यानी अगर पति :-

(क) अभ्यासतः उसे मारता है या क्रूर-आचरण से उसका जीवन दुखी करता है, भले ही ऐसा आचरण शारीरिक दुर्व्यवहार की कोटि में न आता हो, या 

(ख) कुख्यात स्त्रियों की संगति में रहता है या गर्हित जीवन बिताता है, या 

(ग) उसे अनैतिक जीवन बिताने पर मजबूर करने का प्रयत्न करता है, या 

(घ) उसकी सम्पत्ति का व्ययन कर डालता है या उसे उस पर अपने विधिक अधिकारों का प्रयोग करने से रोक देता है, या 

(ङ) धर्म को मानने या धर्म-कर्म के अनुपालन में उसके लिए बाधक होता है, या 

(च) यदि उसकी एक से अधिक पत्नियां हैं तो कुरान के आदेशों के अनुसार उसके साथ समान व्यवहार नहीं करता है; 

शादी के कुछ समय पश्चात पत्नी को मारना पीटना और उसके दिमाग में यह डालना कि अगर वह पति के साथ रही तो उसकी ज़िंदगी खतरे में होगी, पत्नी के खिलाफ क्रूरता मानी जाती है ।  

पत्नी की सहमति के बिना पति द्वारा दूसरी पत्नी लाना भी इस अधिनियम के अंतर्गत क्रूरता मानी जाएगी। ऐसे में यह पति को साबित करना होगा कि दूसरी पत्नी लाकर पति ने पहली पत्नी पर कोई क्रूरता या उसके साथ कोई अन्याय नहीं किया है। यदि पत्नी अपने पति से उसके दूसरे विवाह करने और उसके साथ क्रूरता से व्यवहार करने के कारण अलग रहने लगे तो पति पत्नी के खिलाफ लगाए गए आरोपों का विखंडन करने के लिए न्यायालय में साबित करे कि उसका ये व्यवहार पत्नी के प्रति क्रूरता नहीं है। जिस पति की दो पत्नियां हो और वह दोनों को छोड़ कर विदेश चला जाए, फिर वहां से केवल एक पत्नी को भरण-पोषण की राशि भेजे। उसका ऐसा करना उसकी दूसरी पत्नी के खिलाफ क्रूरता होगा। 

पत्नी की संपत्ति को उसकी अनुमति के बिना या छल या कपट से या स्वार्थ के कारन बेचना भी इस अधिनियम में क्रूरता माना जाएगा। ज़ुबैदा बनाम सरदार शाह के मामले में न्यायमूर्ति अब्दुल रहमान द्वारा विचार व्यक्त किया गया कि, “यह हमेशा आसान नहीं होता है कि इस बात का पता लगाया जाए कि पति ने अपनी पत्नी की संपत्ति किस उद्देश्य के साथ बेचीं या निर्दिष्ट की ? ऐसा भी हो सकता है कि पति ने अपनी पत्नी की संपत्ति को किसी भी मूल्य पर पत्नी के इलाज के लिए, परिवार के सदस्यों के लाभ के लिए, बच्चों की शिक्षा के लिए या किसी भी अन्य देनदारियों का रखरखाव करने के लिए बेची या निर्दिष्ट की हो। यदि संपत्ति पति के स्वार्थी सिरों के लिए बेची गयी या यह पत्नी को दबाने के उद्देश्य से या उसे उसकी संपत्ति से वंचित करने के लिए किया गया और यह कार्य पत्नी की सहमति के बिना किया गया तो यह क्रूरता का अपराध होगा।

  • मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह विघटन के लिए मान्य आधार 

धारा (ix) के अनुसार कोई ऐसा अन्य आधार है जो मुस्लिम विधि के अधीन विवाह विघटन के लिए विधिमान्य है उसके आधार पर पत्नी विवाह विघटन के लिए वाद ला सकती है। इस उपखण्ड में मुस्लिम विधि के इला, ज़िहार, मुबारत, तलाक-ऐ-तफवीद और लिअन द्वारा विवाह-विच्छेद आते हैं। 

1939 के इस अधिनियम में दिए गए नौ आधार मुस्लिम महिलाओं को एक ऐसी शादी से आज़ादी देते हैं जहाँ पर वह रोज़ मानसिक और शारीरिक रूप से हिंसा शिकार होती है। लेकिन यह भी सत्य है की अशिक्षा और जागरूकता ना होने के कारण आज भी मुस्लिम महिलाओं की आधी आबादी को अपने ये अधिकार नहीं पता है। परिणामस्वरूप, वे मजबूरन ‘ससुराली नर्क’ में रोज़ घुटती हैं।


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