हमारे समाज में लड़कियों की सुरक्षा आज भी एक चिंता का विषय है। हर रोज़ अख़बारों और टीवी चैनलों में ऐसी खबरें आती हैं, जो यह सवाल उठाती हैं कि आखिर लड़कियां कितनी सुरक्षित हैं। हाल ही में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े सामने आए, जिसने इस चिंता को और गहरा कर दिया है। एनसीआरबी की साल 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, पूरे भारत में महिलाओं के खिलाफ़ 4,45,256 अपराध दर्ज किए गए। यानी प्रत्येक घंटे लगभग 51 प्राथमिकी (एफ़आईआर) दर्ज हुए। यह संख्या पिछले वर्ष की तुलना में 4 प्रतिशत अधिक रहा। महिलाओं के खिलाफ़ अपराध की दर प्रति लाख जनसंख्या पर 66.4 रही, जबकि आरोप पत्र दाखिल करने की दर 75.8 प्रतिशत रही। यौन हिंसा की बात जब आती है, तो अक्सर विकलांग लोगों विशेषकर महिलाओं को उनकी विशेष जरूरतों के बावजूद अलग दृष्टिकोण से न देखा जाता है और न ही उनकी जरूरतों पर ध्यान दिया जाता है। रिपोर्ट बताती है कि विकलांग महिलाओं के साथ यौन हिंसा की घटनाएं तीन गुना अधिक होती हैं।
वर्ष 2013 में, भारत सरकार ने आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 पारित करके यौन हिंसा के खिलाफ़ मौजूदा कानूनों को मजबूत किया। संशोधनों में विकलांग महिलाओं सहित महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा करने और जांच और न्यायिक प्रक्रियाओं में उनकी भागीदारी को सुविधाजनक बनाने के लिए कई प्रावधान शामिल थे। लेकिन, आज भी सामाजिक अलगाव और कानूनी अधिकारों और सुरक्षा से जुड़ी जानकारी तक पहुंच की कमी, यौन हिंसा की रिपोर्ट करना सर्वाइवर और उनके परिवारों के लिए एक चुनौती है। यौन हिंसा के लिए सर्वाइवर को ही दोषी ठहराना अक्सर विकलांग महिलाओं और लड़कियों की हाइपर सेक्शूलिटी या असेक्शूलिटी की रूढ़िवादिता को पुख्ता करता है। ऐसा सामाजिक कलंक सर्वाइवर को यौन हिंसा के मामलों की रिपोर्ट करने से भी रोकता है।
विकलांग महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ़ अपराध बढ़ने का मुख्य कारण यह है कि वे अक्सर अपनी बात नहीं रख पातीं और अपराध की रिपोर्ट दर्ज कराने में असमर्थ रहती हैं। सरकार ने कानून तो बनाए हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनका सही इम्प्लिमेन्टेशन नहीं हो रहा।
वर्तमान समय में जहां अन्य महिलाएं भी आज घर से बाहर निकलते समय डर और असुरक्षित महसूस करती हैं, वहां विकलांग महिलाओं और लड़कियों के साथ यह स्थिति और भी गंभीर है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में एक लड़की के साथ यौन हिंसा हुई जो बोल और सुन नहीं सकती थी। इस घटना ने यह साफ़ कर दिया कि आज भी विकलांग महिलाएं विशेषकर वे जो अपनी आवाज़ या शारीरिक सामर्थ्य से अपने बचाव में सक्षम नहीं हैं, कितनी असुरक्षित हैं। जब वह महिला सड़क पर बदहवास हालत में मदद के लिए दौड़ रही थी, तो समाज की खामोशी और उदासीनता कहीं न कहीं अपराधियों के हौंसले को और बढ़ाने में मदद करती है।

विकलांग लोगों की चुनौतियों और हिंसा के मामले में कमजोर स्थिति पर दिल्ली की 35 वर्षीय नेहा पटेल कहती हैं, “मेरे एक पैर में बचपन से दिक्कत थी। जब मैं पन्द्रह साल की हुई, तब से मेरी आँखों में भी परेशानी शुरू हो गई और धीरे-धीरे मेरी आँखों की रोशनी चली गई। उसके बाद घर से बाहर निकलना मेरे लिए किसी जंग से कम नहीं लगता। सबसे बड़ी मुश्किल रास्ता ढूंढने की नहीं, बल्कि लोगों के व्यवहार की होती है। अक्सर लोग हमें धक्का दे देते हैं या बीच रास्ते पर खड़े होकर रास्ता रोक लेते हैं। भले ही मैं देख नहीं पाती, लेकिन मुझे यह सब महसूस होता है कई बार हमें सच में मदद चाहिए होती है। मगर लोग झिझकते हैं और दुख की बात यह है कि कुछ लोग मदद के बहाने यौन हिंसा की कोशिश भी करते हैं। सच कहूं तो बाहर निकलने पर मुझे हमेशा डर लगा रहता है।” नेहा दिल्ली यूनिवर्सिटी से मास्टर्स कर रही हैं और उनके आँखों की रोशनी नहीं है और उन्हें चलने में भी दिक्कत होती है।
आगे नेहा कहती हैं, “कई बार तो सार्वजनिक वाहनों में यात्रा करना भी मेरे लिए बेहद कठिन हो जाता है। अगर मेट्रो है तो थोड़ी राहत मिलती है, क्योंकि वहां अनाउंसमेंट सिस्टम से स्टेशन का पता चल जाता है और स्टाफ भी मदद कर देता है। लेकिन बस में स्थिति बिल्कुल अलग होती है। बस में चढ़ने से लेकर उतरने तक लगभग हर कदम पर मुझे किसी अनजान व्यक्ति से मदद मांगनी पड़ती है। सीट ढूंढना, टिकट लेना, उतरने की सही जगह पहचानना, सब कुछ दूसरों पर ही निर्भर करता है। मगर सबसे बड़ी चिंता यह होती है कि लोग किस नज़र से देख रहे हैं।” आज के समय में जब भी कोई महिला घर से बाहर निकलती है, तो उसके दिमाग में सबसे पहला ख्याल सुरक्षा का आता है। सड़क हो या बाज़ार, बस हो या या मेट्रो हर जगह उसे चौकन्ना रहना पड़ता है। अमूमन महिलाएं देर रात अकेले सफ़र करने से झिझकती हैं। रात होते ही उन्हें अपने आस-पास की गतिविधियों पर ज्यादा नज़र रखना पड़ता है। जब बात विकलांग महिलाओं की आती है, तो यह स्थिति और जटिल और समस्याजनक हो जाती है।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि विकलांगता दर्ज करने वाले आधिकारिक दस्तावेज़ उपलब्ध न कराने से अपराध की रिपोर्ट करने और शिकायत दर्ज कराने में समस्याएं पैदा होती हैं। जब सर्वाइवर के पास विकलांगता का सरकारी प्रमाण पत्र नहीं होता, तो पुलिस रिपोर्ट में उनकी विकलांगता की जानकारी शामिल नहीं करती।
साल 2018 में ह्यूमन राइट्स वॉच (HRW), अमेरिका ने आठ भारतीय राज्यों में बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के 17 मामलों की जांच की जिसमें कहा गया कि भारत में विकलांग महिलाओं और लड़कियों को यौन हिंसा का सामना करने का अधिक खतरा है। रिपोर्ट अनुसार साल 2013 में, भारत सरकार ने यौन हिंसा सर्वाइवर के ‘संरक्षण और पुनर्वास’ के लिए निर्भया कोष की स्थापना की थी। लेकिन, निर्भया कोष में विकलांग महिलाओं का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसके अलावा, साल 2013 और 2017 के बीच इस कोष के लिए आवंटित 3,000 करोड़ रुपये में से अधिकांश का उपयोग नहीं किया गया। वहीं रिपोर्ट में दर्ज 17 मामलों में से 16 मामले विकलांग महिलाओं और लड़कियों और उनके परिवारों से संबंधित थे, जो आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 या यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के तहत विकलांग महिलाओं को दी गई सुरक्षा के बारे में नहीं जानते थे।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि विकलांगता दर्ज करने वाले आधिकारिक दस्तावेज़ उपलब्ध न कराने से अपराध की रिपोर्ट करने और शिकायत दर्ज कराने में समस्याएं पैदा होती हैं। जब सर्वाइवर के पास विकलांगता का सरकारी प्रमाण पत्र नहीं होता, तो पुलिस रिपोर्ट में उनकी विकलांगता की जानकारी शामिल नहीं करती। हालांकि ऐसी स्थिति तब भी होती है, जब पुलिस को विकलांगता के बारे में सूचित किया गया हो या विकलांगता स्पष्ट हो। विकलांगता और उससे जुड़ी रोजमर्रा की समस्याओं पर हरियाणा की रहने वाली 34 वर्षीय सोनिया भाटिया कहती हैं, “मेरे लिए अकेले बाहर निकलना और सफ़र करना स्वतंत्रता का एहसास है। हर कदम मेरा आत्मविश्वास बढ़ाता है और याद दिलाता है कि मेरी विकलांगता मेरी ज़िंदगी की रुकावट नहीं है। बचपन से आँखों की रौशनी कम होती गई और अठारह साल में पूरी तरह चली गई। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। आज मैं नौकरी कर रही हूं और अपने जीवन से संतुष्ट हूं।”

आगे सोनिया कहती हैं, “मुझे सहानुभूति नहीं, बराबरी और सुरक्षा चाहिए। इसके साथ ही सार्वजनिक स्थानों और लोगों को संवेदनशील बनाने की ज़रूरत है। जब समाज हमें सक्षम इंसान की तरह देखेगा, तभी हमें सच में स्वतंत्रता मिलेगी। बाहर जाना मेरे लिए सुखद अनुभव तो है, लेकिन हमेशा सतर्क रहना पड़ता है। कई बार महसूस होता है कि मुझे गलत तरीके से छुआ गया, तो मैं तुरंत आवाज़ उठाती हूं लेकिन हर लड़की इतनी हिम्मत नहीं कर पाती है क्योंकि हमें मालूम ही नहीं होता हमारे साथ यौन हिंसा किसने की है। हम उसके इरादे या जेंडर नहीं समझ सकते। ऐसे में थोड़ी मुश्किल होती है।” हालांकि ये कहना कि लड़कियों को अपने लिए आवाज़ उठानी चाहिए जितना आसान है, हमारी पारिवारिक, सामाजिक और न्यायायिक व्यवस्था उतनी साथ देने वाली नहीं होती।
हमारे लिए सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि हम समय रहते अपराध को पहचान ही नहीं पाते। जैसे मुझे दिखता नहीं है, तो मैं समझ नहीं पाती कि कौन पास आ रहा है या किस नियत से मुझे छू रहा है। जब तक एहसास होता है, तब तक अक्सर देर हो चुकी होती है।
दिल्ली की रहने वाली 30 वर्षीय मीनाक्षी साहू नौकरी करती हैं। वो कहती हैं, “हमारे लिए सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि हम समय रहते अपराध को पहचान ही नहीं पाते। जैसे मुझे दिखता नहीं है, तो मैं समझ नहीं पाती कि कौन पास आ रहा है या किस नियत से मुझे छू रहा है। जब तक एहसास होता है, तब तक अक्सर देर हो चुकी होती है। कई बार भीड़ में यौन हिंसा हुई। यह अनुभव हमारे लिए आम सा हो गया है, लेकिन यह समझने में समय लगता है कि किसीका छूना भी जानबूझकर है या मदद के दृष्टिकोण से। जबतक मैं आवाज़ उठाती हूं तब तक सामने वाला निकल चुका होता है। उस पल बहुत बेबस महसूस होता है।” ह्यूमन राइट्स वॉच के साल 2018 में जारी की गई रिपोर्ट अनुसार जिन मामलों में दुर्व्यवहार करने वाला परिवार का सदस्य होता है, वहां विकलांग महिलाओं और लड़कियों को अपनी सुरक्षा के लिए अपने घरों से भागना पड़ा है। चूंकि यौन हिंसा के गवाहों और सर्वाइवर को सुरक्षा प्रदान करने वाला कोई केंद्रीकृत कार्यक्रम नहीं है, इसलिए विकलांग महिलाओं और लड़कियों को अक्सर उनके परिवारों द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता है, जिन पर वे रोज़मर्रा के सहारे के लिए निर्भर रहती हैं।
आगे मीनाक्षी कहती हैं, “मैं हमेशा कोशिश करती हूं कि बाहर निकलते समय सतर्क रहूं। मोबाइल में इमरजेंसी नंबर सेव रखती हूं, परिवार से संपर्क बनाए रखती हूं और छड़ी हमेशा साथ रखती हूं ताकि मुझे मदद मिले और लोग दूरी भी बनाए रखें। लेकिन सच यह है कि केवल हमारे प्रयास काफी नहीं हैं। विकलांग महिलाएं चाहे कितनी भी सावधानी बरतें, समाज की संवेदनशीलता और सुरक्षा व्यवस्था के बिना वे सुरक्षित महसूस नहीं कर सकतीं हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि लोग हमें केवल सहानुभूति से नहीं, बल्कि बराबरी और जिम्मेदारी की नज़र से देखें तभी असली सुरक्षा संभव होगी और हमारे साथ अपराध की घटनाओं से छुटकारा मिलेगा।”
चूंकि यौन हिंसा के गवाहों और सर्वाइवर को सुरक्षा प्रदान करने वाला कोई केंद्रीकृत कार्यक्रम नहीं है, इसलिए विकलांग महिलाओं और लड़कियों को अक्सर उनके परिवारों द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता है, जिन पर वे रोज़मर्रा के सहारे के लिए निर्भर रहती हैं।
इस विषय पर गैर सरकारी संस्था श्रुति डिसेबिलिटी राइट्स सेंटर की संस्थापक और विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता शम्पा सेन गुप्ता कहती हैं, “विकलांग महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ़ अपराध बढ़ने का मुख्य कारण यह है कि वे अक्सर अपनी बात नहीं रख पातीं और अपराध की रिपोर्ट दर्ज कराने में असमर्थ रहती हैं। सरकार ने कानून तो बनाए हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनका सही इम्प्लिमेन्टेशन नहीं हो रहा। प्रशासन तक जानकारी ही नहीं पहुंच पाती। हमारे संगठन ने इस दिशा में प्रयास किए हैं। पुलिस और लड़कियों को लीगल ट्रेनिंग देना, ज़रूरतमंदों को कानूनी सहायता प्रदान करना शुरू किया है। पर असली बदलाव तभी संभव है जब सरकार कानूनों को सख़्ती से लागू करे और समाज विकलांग महिलाओं को बराबरी के नज़रिए से देखे।”

विकलांग महिलाओं के लिए बाहर निकलना केवल रोज़मर्रा का सफ़र नहीं, बल्कि एक बड़ा साहसिक और मुश्किल कदम हो सकता है। रास्ते में यौन हिंसा, धक्का-मुक्की या अजनबियों का अनचाहा स्पर्श महिलाओं के लिए सुरक्षा की चिंता बढ़ाता है। ऐसे में ये चुनौतियां विकलांग महिलाओं के लिए और भी ज्यादा है। मदद की ज़रूरत पड़ने पर भी वे हमेशा भरोसे से हाथ नहीं बढ़ा पातीं, क्योंकि कई बार मदद के नाम पर यौन हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। यह स्थिति सोचने पर मजबूर करती है कि क़ानून और नियम होने के बावजूद असली सुरक्षा क्यों नहीं मिल पा रही है। इसका हल सिर्फ़ व्यक्तिगत सतर्कता में नहीं, बल्कि समाज की सोच और व्यवस्था में बदलाव लाने में है। ज़रूरी है कि सार्वजनिक स्थान और परिवहन व्यवस्था विकलांग लोगों के अनुकूल बनाई जाए, ताकि वे खुद आत्मविश्वास के साथ सफ़र कर सकें। साथ ही, समाज को भी संवेदनशील और ज़िम्मेदार बनना होगा। जब तक हम विकलांग महिलाओं को सक्षम और बराबरी की नज़र से नहीं देखेंगे, तब तक बदलाव संभव नहीं है। एक सच्चा समावेशी समाज वही है जहां सुरक्षा और सम्मान सभी को समान रूप से मिले।

