इंटरसेक्शनल ऐलिस गाइ-ब्लाचे: सिनेमा की पहली महिला निर्देशक और भुला दी गई विरासत

ऐलिस गाइ-ब्लाचे: सिनेमा की पहली महिला निर्देशक और भुला दी गई विरासत

सामाजिक प्रश्नों को भी ऐलिस ने अपनी कहानियों में बखूबी पिरोया। अ फूल एंड हिज मनी (1912) उनकी ऐसी फिल्म है जिसमें पूरी कास्ट अफ्रीकी-अमेरिकी कलाकारों की थी। उस दौर में जब नस्लीय पूर्वाग्रह बेहद गहरे थे, ऐलिस ने अश्वेत समुदाय को पर्दे पर केंद्रीय स्थान दिया।

सिनेमा के शुरुआती दौर की दुनिया पुरुषों के प्रभुत्व से भरी हुई थी। कैमरा संभालने से लेकर निर्देशन तक, रचनात्मक और तकनीकी दोनों ही क्षेत्रों में पुरुषों का ही वर्चस्व था। लेकिन इसी दौर में एक ऐसी महिला सामने आई जिसने न केवल सिनेमा की भाषा गढ़ी बल्कि यह भी दिखाया कि महिलाएं किस तरह कहानी कहने और तकनीकी नवाचार में आगे बढ़ सकती हैं। यह नाम था ऐलिस गाइ-ब्लाचे का। ऐलिस का जीवन और काम इस बात का प्रमाण है कि महिलाएं इतिहास के हाशिए पर धकेली जाने के बावजूद, जब भी उन्हें अवसर मिला, उन्होंने अपने दृष्टिकोण और रचनात्मकता से परंपराओं को तोड़ा और नई संभावनाएं रचीं। दुर्भाग्य से, उनके योगदान को लंबे समय तक भुला दिया गया लेकिन आज जब हम नारीवादी दृष्टिकोण से सिनेमा के इतिहास को पढ़ते हैं, तो उनका नाम एक आदर्श और प्रेरणा के रूप में सामने आता है।

ऐलिस गाइ-ब्लाचे का शुरुआती जीवन

ऐलिस का जन्म 1873 में फ्रांस में हुआ। 1890 के दशक में वे गौमोंट कंपनी में सचिव के रूप में काम करने लगीं। यहीं से उनका सिनेमा से रिश्ता शुरू हुआ। साल 1895 में जब उन्होंने ल्युमिएर ब्रदर्स का पहला फिल्म प्रदर्शन देखा तो उन्हें एहसास हुआ कि चलती-फिरती तस्वीरें केवल ‘मनोरंजन’ नहीं, बल्कि ‘कहानी कहने का एक नया माध्यम’ बन सकती हैं। साल 1896 में उन्होंने अपनी पहली फिल्म कैबेज फेरी बनाई, जो यूरोपीय लोक कथा पर आधारित एक संक्षिप्त कल्पना था कि बच्चे गोभी से पैदा होते हैं और एक परी उन्हें गोभी के खेत से तोड़ लेती है। यह दुनिया की शुरुआती ‘फिक्शन फिल्म’ मानी जाती है। जहां बाकी लोग छोटे-छोटे ‘मूविंग पोस्टकार्ड’ बनाने में व्यस्त थे, वहीं ऐलिस ने एक कल्पनाशील कहानी को फिल्माया।

ऐलिस की फिल्में कई मायनों में अपने समय से आगे थीं। उन्होंने केवल रोमांच, कॉमेडी या ड्रामा तक खुद को सीमित नहीं किया, बल्कि ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक प्रश्नों को भी उठाया जिन्हें अक्सर पुरुष निर्देशक नज़रअंदाज़ कर देते थे। उनकी फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं बेहद सशक्त और बहुआयामी नज़र आती हैं।

इस शुरुआती फिल्म के बाद ऐलिस ने रुकने का नाम नहीं लिया। उन्होंने करीब छह सौ मूक फिल्मों का निर्देशन, निर्माण या पर्यवेक्षण किया जिनकी अवधि एक मिनट से लेकर तीस मिनट तक होती थी। इनमें ज़्यादातर सिंगल-रील फिल्में थीं। इसके अलावा, उन्होंने गौमोंट क्रोनोफोन के लिए लगभग डेढ़ सौ समकालिक (सिंक) ध्वनि फिल्में भी बनाईं। उनकी गौमोंट की मूक फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता थी उनमें भरी ऊर्जा और नएपन का साहसिक प्रयोग। ऐलिस को वास्तविक लोकेशनों पर फिल्माना पसंद था, जिसके कारण आज भी उनकी बची हुई फिल्में बेहद जीवंत और उस दौर के सामाजिक माहौल से जुड़ी हुई लगती हैं।

तस्वीर साभार: Obscure Hollywood

फिल्म इतिहासकार ऐलन विलियम्स के शब्दों में, “ऐलिस गी ने गौमोंट की शुरुआती फिल्मों में ऐसा उत्साह और सौंदर्यबोध रचा और संजोया जिसकी झलक उन फिल्मों में भी महसूस होती है जो उनके पेरिस स्टूडियो छोड़ने के बाद बनीं।” आगे चलकर वे गौमोंट कंपनी की हेड ऑफ प्रोडक्शन बनीं और वहां उन्होंने सैकड़ों फिल्मों का निर्देशन और निर्माण किया। 1907 में विवाह के बाद वे अमेरिका चली गईं और 1910 में अपने पति हर्बर्ट ब्लाशे के साथ मिलकर सोलेक्स स्टूडियो की स्थापना की। यह न्यूयॉर्क और फिर न्यू जर्सी के फोर्ट ली में एक विशाल स्टूडियो बना जहां ऐलिस ने पहली महिला फिल्म स्टूडियो मालिक और संचालक के रूप में इतिहास रचा।

ऐलिस गाइ-ब्लाचे का सिनेमा और उनकी विचारधारा

ऐलिस की फिल्में कई मायनों में अपने समय से आगे थीं। उन्होंने केवल रोमांच, कॉमेडी या ड्रामा तक खुद को सीमित नहीं किया, बल्कि ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक प्रश्नों को भी उठाया जिन्हें अक्सर पुरुष निर्देशक नज़रअंदाज़ कर देते थे। उनकी फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं बेहद सशक्त और बहुआयामी नज़र आती हैं। ऐलिस ने महिलाओं को केवल ‘प्रेमिका’ या ‘पत्नी’ के रूप में नहीं दिखाया बल्कि उन्हें स्वतंत्र किरदारों के रूप में गढ़ा। उदाहरण के लिए मैडम अ डेज एनवीएस (1906) में एक गर्भवती महिला की इच्छाओं और क्रेविंग को हास्य और संवेदनशीलता के साथ फिल्माया गया। यहां महिला का अनुभव कहानी का केंद्र था, न कि कोई असेनट्रिक भूमिका।

सामाजिक प्रश्नों को भी ऐलिस ने अपनी कहानियों में बखूबी पिरोया। अ फूल एंड हिज मनी (1912) उनकी ऐसी फिल्म है जिसमें पूरी कास्ट अफ्रीकी-अमेरिकी कलाकारों की थी। उस दौर में जब नस्लीय पूर्वाग्रह बेहद गहरे थे, ऐलिस ने अश्वेत समुदाय को पर्दे पर केंद्रीय स्थान दिया।

सामाजिक प्रश्नों को भी ऐलिस ने अपनी कहानियों में बखूबी पिरोया। अ फूल एंड हिज मनी (1912) उनकी ऐसी फिल्म है जिसमें पूरी कास्ट अफ्रीकी-अमेरिकी कलाकारों की थी। उस दौर में जब नस्लीय पूर्वाग्रह बेहद गहरे थे, ऐलिस ने अश्वेत समुदाय को पर्दे पर केंद्रीय स्थान दिया। यह अपने आप में सामाजिक और सिनेमाई इतिहास में एक साहसिक हस्तक्षेप था। तकनीकी प्रयोगों में भी ऐलिस आगे रहीं। उन्होंने सिंक्रोनाइज़्ड साउंड, कलराइजेशन और विशेष प्रभावों को अपनी फिल्मों में इस्तेमाल किया। कैबेज फेरी (1896) और बाद में द बर्थ, द लाइफ एंड द डेथ ऑफ़ क्राइस्ट (1906) में उन्होंने दृश्यों को और जीवंत बनाने के लिए रचनात्मक कैमरा तकनीक और मंच-सज्जा का उपयोग किया। ये प्रयास उन्हें तकनीकी रूप से भी अपने समय से आगे साबित करते हैं।

तस्वीर साभार: Obscure Hollywood

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐलिस के काम में महिलाओं की स्वतंत्रता और एजेंसी की झलक साफ़ दिखाई देती है। उनकी फिल्म द कॉन्सिक्वेंसेस ऑफ़ फेमिनिज्म (1906) इसका सबसे सटीक उदाहरण है। इसमें उन्होंने व्यंग्यात्मक ढंग से यह कल्पना की कि यदि महिलाएं सत्ता और अधिकार की भूमिका में हों और पुरुष घरेलू कामों तक सीमित कर दिए जाएं, तो समाज कैसा दिखाई देगा। यह फिल्म न केवल उस दौर की पितृसत्तात्मक धारणाओं पर तीखा सवाल उठाती है बल्कि भविष्य की नारीवादी बहसों की भी झलक देती है। इस तरह उनका सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि सामाजिक प्रश्नों, तकनीकी नवाचारों और स्त्री दृष्टि का एक प्रगतिशील संगम था।

हालांकि ऐलिस ने सिनेमा में बड़ा नाम कमाया, लेकिन व्यक्तिगत जीवन में उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनके पति हर्बर्ट ब्लाशे के साथ उनकी शादी नहीं टिकी। उनके अलग होने के बाद आर्थिक संकट भी गहराया।

निजी जीवन और संघर्ष

हालांकि ऐलिस ने सिनेमा में बड़ा नाम कमाया, लेकिन व्यक्तिगत जीवन में उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनके पति हर्बर्ट ब्लाशे के साथ उनकी शादी नहीं टिकी। उनके अलग होने के बाद आर्थिक संकट भी गहराया। हॉलीवुड के उदय के साथ, उनका स्टूडियो बंद हो गया और वे धीरे-धीरे इतिहास के हाशिए पर धकेल दी गईं। उनकी आत्मकथा द मेमोयर्स ऑफ़ ऐलिस गाइ-ब्लाचे में साफ झलकता है कि कैसे महिलाओं के योगदान को व्यवस्थित ढंग से मिटाया गया। उनकी मृत्यु साल 1968 में अमेरिका में हुई। इतिहास कब तक उन्हें नजरअंदाज कर सकता था, आज वह ‘सिनेमा की पहली महिला निर्देशक और दूरदर्शी’ के रूप में पहचान बना चुकी हैं। 

ऐलिस गाइ-ब्लाचे का जीवन और काम हमें यह समझने में मदद करता है कि सिनेमा का इतिहास केवल पुरुषों का लिखा गया इतिहास नहीं है। यह उस लैंगिक राजनीति को भी उजागर करता है जिसमें महिलाओं को अदृश्य बना दिया गया। पुरुष-प्रधान आलोचना ने लंबे समय तक यह मान्यता दी कि सिनेमा का ‘विकास’ महान पुरुष निर्देशकों का ही योगदान है। लेकिन ऐलिस के काम को देखने पर स्पष्ट होता है कि महिलाएं केवल सहभागी नहीं, बल्कि सृजनकर्ता भी थीं। यही आलोचना आज की फेमिनिस्ट फिल्म थ्योरी का आधार बनती है, जहां लौरा मलवे जैसी सिद्धांतकारों ने ‘मेल गेज़’ की आलोचना की है।

भारत और फेमिनिस्ट सिनेमा का परिप्रेक्ष्य

भारतीय सिनेमा में भी महिलाओं का योगदान को लंबे समय तक उपेक्षित रहा। लेकिन समय के साथ कई महिला निर्देशकों और पटकथा लेखिकाओं ने अपनी कहानियों में स्त्रीवादी दृष्टिकोण को केंद्र में रखा। फातमा बेगम जो भारतीय सिनेमा की पहली महिला निर्देशक बनीं, उन्होंने 1926 में अपनी कंपनी फातमा फिल्म्स की स्थापना की और बुलबुल-ए-पारिस्तान (1934)  का निर्देशन किया। उस दौर में जब फिल्म उद्योग लगभग पूरी तरह पुरुषों के नियंत्रण में था, फातमा बेगम का निर्देशन करना अपने आप में एक ऐतिहासिक और साहसिक कदम था। आगे चलकर अपर्णा सेन, दीपा मेहता, कल्पना लाजमी, मीरा नायर जैसी निर्देशिकाओं और लेखिकाओं ने महिलाओं के जीवन, उनकी इच्छाओं और संघर्षों को पर्दे पर उतारा। अपर्णा सेन ने 36 चौरंगी लेन (1981) में एक बुज़ुर्ग महिला के अकेलेपन और आत्मनिर्भरता को गहराई से दिखाया, वहीं दीपा मेहता की फायर (1996) ने लेसबियन महिलाओं के बीच प्रेम और उनकी यौनिकता को केंद्र में रखकर नई बहस छेड़ी।

फातमा बेगम जो भारतीय सिनेमा की पहली महिला निर्देशक बनीं, उन्होंने 1926 में अपनी कंपनी फातमा फिल्म्स की स्थापना की और बुलबुल-ए-पारिस्तान (1934)  का निर्देशन किया। उस दौर में जब फिल्म उद्योग लगभग पूरी तरह पुरुषों के नियंत्रण में था, फातमा बेगम का निर्देशन करना अपने आप में एक ऐतिहासिक और साहसिक कदम था।

हाल के समय में भी महिला निर्देशकों ने नारीवादी दृष्टि को और प्रखर किया है। अलंकृता श्रीवास्तव की लिपस्टिक अंडर माई बुर्का (2016) और डॉली किटी और वो चमकते सितारे (2019), गीली पुच्ची (2021) जैसी फिल्मों ने सीधे-सीधे पितृसत्ता और महिलाओं के स्वतंत्रता के सवालों को सामने रखा। इसी तरह रीमा कागती और जोया अख्तर ने भी अपने काम में महिलाओं की इच्छाओं और सामाजिक ढांचों को चुनौती दी। नंदिता दास की फ़िराक़ (2008) ने सांप्रदायिक हिंसा के बीच महिलाओं की आवाज़ और उसकी संवेदनाओं को केंद्र में रखा। इन सभी प्रयोगों और दृष्टिकोणों में कहीं न कहीं ऐलिस गाइ-ब्लाचे की परंपरा और विचारधारा की झलक मिलती है यानी सिनेमा को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का माध्यम बनाया गया।

ऐलिस की कहानी हमें यह याद दिलाती है कि इतिहास किस तरह महिलाओं को भुला देता है। लेकिन साथ ही यह भी दिखाती है कि महिलाएं सिनेमा को गढ़ने में कितनी महत्वपूर्ण रही हैं। उनका काम केवल सिनेमा का इतिहास नहीं, बल्कि स्त्रीवादी आंदोलन का भी हिस्सा है। आज जब हम भारतीय और वैश्विक सिनेमा में स्त्रीवादी फिल्मों, महिला निर्देशकों और लेखिकाओं की बढ़ती उपस्थिति देखते हैं तो हमें यह समझ आता है कि ऐलिस गाइ-ब्लाचे जैसे नाम सिर्फ अतीत की प्रेरणा नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा भी तय करते हैं। सिनेमा की दुनिया में स्त्रियों की विरासत को मान्यता देना ही असली न्याय है, और यही ऐलिस की सबसे बड़ी विरासत है।

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