हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बताया है कि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन हिंसा (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, साल 2013 के तहत सर्वाइवर महिला को शिकायत अधिकतम छह महीने के भीतर दर्ज करना अनिवार्य होगा। द इकोनॉमिक टाइम्स में छपी रिपोर्ट अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल राष्ट्रीय विधि विज्ञान विश्वविद्यालय, कोलकाता के कुलपति के खिलाफ यौन हिंसा के मामले में, एक महिला संकाय सदस्य की याचिका को समय सीमा समाप्त होने के कारण खारिज किए जाने के फैसले को बरकरार रखा।
हालांकि, पीठ ने निर्देश दिया कि गलती करने वाले को माफ़ करना उचित है, लेकिन गलती को भूलना नहीं चाहिए। अपीलकर्ता के खिलाफ जो गलती हुई है, उसकी तकनीकी आधार पर जांच नहीं की जा सकती, लेकिन उसे भूलना नहीं चाहिए। पीठ ने निर्देश दिया कि इस फैसले को कुलपति के बायोडाटा का हिस्सा बनाया जाएगा, जिसका अनुपालन उन्हें व्यक्तिगत रूप से सख्ती से सुनिश्चित करना होगा। यानी आरोपी कुलपति के रिज्यूमे में इस फैसले को सम्मिलित किया जाना आवश्यक कर दिया गया है।
पीठ ने निर्देश दिया कि गलती करने वाले को माफ़ करना उचित है, लेकिन गलती को भूलना नहीं चाहिए। अपीलकर्ता के खिलाफ जो गलती हुई है, उसकी तकनीकी आधार पर जांच नहीं की जा सकती, लेकिन उसे भूलना नहीं चाहिए। पीठ ने निर्देश दिया कि इस फैसले को कुलपति के बायोडाटा का हिस्सा बनाया जाएगा, जिसका अनुपालन उन्हें व्यक्तिगत रूप से सख्ती से सुनिश्चित करना होगा।
क्या है पूरा मामला

हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, यह मामला साल 2023 में विश्वविद्यालय की एक संकाय सदस्य का स्थानीय शिकायत समिति (एलसीसी) में शिकायत दर्ज करने से शुरू हुआ था, जिसमें कुलपति पर कथित तौर पर यौन हिंसा का आरोप लगाया गया था। उन्होंने आरोप लगाया कि साल 2019 से कुलपति उन पर यौन संबंध बनाने के लिए दबाव डालते रहे और उनके करियर को नुकसान पहुंचाने की धमकी भी देते रहे। उनका आरोप है कि अप्रैल 2023 में कुलपति ने उनसे एक रिसॉर्ट ट्रिप पर चलने के लिए ज़बरदस्ती की, और जब उन्होंने मना किया तो कुलपति ने चेतावनी दी कि इससे उनका करियर पर भी असर पड़ सकता है। एलसीसी ने उनकी शिकायत को समय – सीमा खत्म होने के कारण खारिज कर दिया, समिति ने उल्लेख किया कि यौन हिंसा की अंतिम कथित घटना अप्रैल 2023 में हुई थी, जबकि शिकायत आठ महीने बाद दर्ज की गई थी, जो पॉश अधिनियम के तहत 6 महीने की अवधि से परे है । सुप्रीम कोर्ट केसेस टाइम्स (एससीसी ) में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, अपनी शिकायत खारिज होने से परेशान होकर, अपीलकर्ता ने कलकत्ता उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
एकल न्यायाधीश ने एलसीसी के आदेश को रद्द कर दिया और शिकायत पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया। एकल न्यायाधीश ने माना कि कुलपति ने अप्रैल 2023 के बाद भी अपीलकर्ता के लिए डराने वाला और शत्रुतापूर्ण कार्य वातावरण बनाया, इसलिए शिकायत समय के भीतर थी, और बाद की घटना को यौन हिंसा की अंतिम घटना माना गया। अपराधों की प्रकृति और कार्यस्थल में इस तरह के मामलों के आम तौर पर सामने आने के तरीके को देखते हुए, समय सीमाओं की सख्त व्याख्या ओर उनका लागू करना सर्वाइवर महिलाओं के लिए चिंताएं पैदा करती है। यह विशेष रूप से तब और अधिक मुश्किल भरा हो जाता है । जब सर्वाइवर महिलाओं को अपने अनुभवों को कैसे संसाधित (व्यक्त ) करना है, इस बारे में विचार किया जाता है। हिंसा की शिकार सर्वाइवर महिलाएं अक्सर दोहरी हिंसा का सामना करती हैं । वर्तमान और भविष्य की नौकरी की संभावनाओं के डर से कार्यस्थल पर यौन हिंसा की शिकायतों के साथ आगे आने में संकोच करती हैं । खासकर जब अपराधी एक वरिष्ठ कर्मचारी हो और शिकायत करने से उनकी प्रतिष्ठा पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण सर्वाइवर महिला और अधिक डरती है। इस तरह के विचार वास्तव में रिपोर्टिंग में देरी का कारण बन सकते हैं ।
एलसीसी ने उनकी शिकायत को समय – सीमा खत्म होने के कारण खारिज कर दिया, समिति ने उल्लेख किया कि यौन हिंसा की अंतिम कथित घटना अप्रैल 2023 में हुई थी, जबकि शिकायत आठ महीने बाद दर्ज की गई थी, जो पॉश अधिनियम के तहत 6 महीने की अवधि से परे है ।
यौन हिंसा की शिकायत करने की समय -सीमा अवधि

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन हिंसा (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, साल 2013 जिसे आमतौर पर पॉश (यौन हिंसा निवारण) अधिनियम के रूप में जाना जाता है । यह महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल सुनिश्चित करने के लिए एक ऐतिहासिक कानून है। साल 1997 में विशाखा बनाम राजस्थान राज्य के ऐतिहासिक मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के जारी निर्देशों को लागू करने में संसद को 16 साल लग गए। हालांकि, इस अधिनियम के तहत एक विवादास्पद प्रावधान शिकायत दर्ज करने की समय सीमा है। इस अधिनियम के तहत प्रावधान है कि महिला को घटना की तारीख से तीन महीने के भीतर लिखित शिकायत दर्ज करानी होगी।
कई घटनाओं के मामले में, शिकायत अंतिम घटना की तारीख से तीन महीने के अंदर दर्ज की जानी चाहिए। इसके अलावा, यह अधिनियम समय सीमा बढ़ाने की अनुमति भी देता है । हालांकि, आंतरिक समिति (आईसी) या स्थानीय समिति (एलसी) शिकायत दर्ज करने की समय सीमा को केवल तीन महीने तक बढ़ा सकती है । अगर आईसी या एलसी समिति को यह लगे कि परिस्थितियों के कारण महिला शुरुआती स्वीकार्य अवधि के भीतर शिकायत दर्ज नहीं कर पाई, जिससे शिकायत दर्ज करने की अधिकतम अवधि छह महीने हो जाती है।
कई घटनाओं के मामले में, शिकायत अंतिम घटना की तारीख से तीन महीने के अंदर दर्ज की जानी चाहिए। इसके अलावा, यह अधिनियम समय सीमा बढ़ाने की अनुमति भी देता है, हालांकि, आंतरिक समिति (आईसी) या स्थानीय समिति (एलसी) शिकायत दर्ज करने की समय सीमा को केवल तीन महीने तक बढ़ा सकती है
महिलाओं की शिकायतों पर अदालतों की सख्ती और लचीला रुख

भारतीय अदालतों ने इस कानून में तय समय सीमा को बहुत सख्ती से लागू किया है। निर्मल क्रांति चक्रवर्ती बनाम वनीता पटनायक और अन्य मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि एक बार शिकायत दर्ज करने की अधिकतम सीमा निर्धारित हो जाने पर, योग्य मामलों में भी, आईसी या अदालत का फैसला केवल कानून में तय की गई अधिकतम समय सीमा तक ही सीमित रहता है। न्यायालयों ने यह भी माना है कि आईसी या एलसी को समय सीमा बढ़ाने का अधिकार है, लेकिन यह अवधि तीन महीने से अधिक नहीं हो सकती। एक अन्य निर्णय में, मद्रास उच्च न्यायालय ने नौ महीने बाद दायर एक शिकायत को अस्वीकार कर दिया, और आईसी के इतनी देरी से शिकायत स्वीकार करने के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिए जाने की ओर इशारा किया।
हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने माना है कि इस मामले में अधिक सावधानी और छोटे-छोटे पहलुओं को समझते हुए किसी मामले या स्थिति को देखना और निर्णय लेना या इसे अपनाना जरूरी है। आर मोहन कृष्णन बनाम पुलिस उप महानिरीक्षक, कोयंबटूर रेंज एवं अन्य मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने अधिक लचीला रुख अपनाया। न्यायालय ने कहा कि जब कथित बलात्कार, या लगातार यौन हिंसा जैसे गंभीर आरोप लगाए जाते हैं, तो संबंधित घटना को लगातार हो रहे गलत व्यवहार के रूप में माना जाएगा। जब तक समस्या हल नहीं होती या सही अधिकारी के पास रिपोर्ट नहीं जाती है । उस दौरान हर दिन नए कारण के रूप में माना जाएगा। हालांकि, न्यायालय ने यह भी कहा कि अलग-अलग घटनाओं, जैसे अश्लील टिप्पणी करना या अनुचित तरीके से छूना, वाले मामलों में सर्वाइवर को अपने उपचार के अधिकार को लंबे समय तक टालने की अनुमति नहीं है, क्योंकि इससे जांच की निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।
साल 2024 में, संसद के ऊपरी सदन, राज्यसभा में एक संशोधन विधेयक पेश किया गया था, जिसमें शिकायत दर्ज करने की अवधि को तीन महीने से बढ़ाकर एक साल करने का प्रस्ताव था। इस विधेयक में सूचना आयुक्तों को मामले की परिस्थितियों के आधार पर समय को एक साल से अधिक तक बढ़ाने की भी अनुमति दी गई थी।
शिकायत की समय-सीमा और सुधार की दिशा

महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए बनाए गए कानून में महिलाएं बहुत सारी चुनौतियों का भी अनुभव करती हैं । जिनमें समय-सीमा अवधि मुख्य है। पॉश एट वर्क पोर्टल के मुताबिक, साल 2024 में, संसद के ऊपरी सदन, राज्यसभा में एक संशोधन विधेयक पेश किया गया था, जिसमें शिकायत दर्ज करने की अवधि को तीन महीने से बढ़ाकर एक साल करने का प्रस्ताव था। इस विधेयक में सूचना आयुक्तों को मामले की परिस्थितियों के आधार पर समय को एक साल से अधिक तक बढ़ाने की भी अनुमति दी गई थी। हालांकि, इस विधेयक को अभी संसदीय मंजूरी का इंतजार है। पॉश अधिनियम को उच्चतम न्यायालय के विशाखा फैसले के बाद लागू करने में बहुत देर की गई, लेकिन यह कानून और कानूनों के मुक़ाबले बेहतर था। इकलौता यही एक क़ानून है जो महिलाओं को कार्यस्थल पर होने वाली हिंसा के खिलाफ बोलने और आरोपी को सजा दिलवाने का प्रावधान देता है।
लेकिन इस कानून में मौजूद शिकायत दर्ज करने की समय-सीमा अवधि एक विवादस्पद हिस्सा है। यह भी सच है कि समय-सीमा अवधि के बढ़ने के बाद महिलाओं की मुश्किल आसान हो जाएगी क्योंकि लंबी अवधि महिलाओं को भी नुकसानदेह स्थिति में डाल सकती है, क्योंकि सबूत या गवाह नहीं मिलने के कारण वे अपना मामला ठीक से पेश नहीं कर पाती हैं। इसके लिए सबसे बेहतर है समय रहते हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाई जाए। समय सीमा चूकने से बचने के लिए, घटना की सूचना जल्द से जल्द देना और औपचारिक शिकायत दर्ज कराना बहुत ज़रूरी है और हर घटना का रिकॉर्ड रखा जाना भी ज़रूरी है, जिसमें तारीख, समय और स्थान शामिल हों, जो समय सीमा बढ़ाने की ज़रूरत पड़ने पर बहुत ज़रूरी होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन हिंसा (पॉश) अधिनियम, 2013 के तहत शिकायत दर्ज करने की अधिकतम अवधि छह महीने है। पश्चिम बंगाल राष्ट्रीय विधि विज्ञान विश्वविद्यालय के कुलपति के खिलाफ एक महिला संकाय सदस्य की शिकायत इसी समय सीमा के कारण खारिज की गई थी, लेकिन न्यायालय ने निर्देश दिया कि गलती करने वाले को माफ़ किया जा सकता है, लेकिन उसे भूलना नहीं चाहिए और यह मामला आरोपी के बायोडाटा में शामिल किया जाएगा। न्यायालय ने यह भी माना कि कार्यस्थल में यौन हिंसा की प्रकृति ऐसी होती है कि सर्वाइवर अक्सर तत्काल शिकायत दर्ज नहीं कर पाती, खासकर जब आरोपी वरिष्ठ हो, इसलिए कुछ मामलों में लचीला दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। यह अधिनियम महिलाओं को सुरक्षित कार्यस्थल और शिकायत दर्ज करने का अधिकार देता है, लेकिन समय सीमा के प्रावधान को सुधारने की जरूरत है। इस दिशा में संसद में शिकायत दर्ज करने की अवधि बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया है। समय रहते शिकायत दर्ज करना और हर घटना का रिकॉर्ड रखना सर्वाइवर के अधिकार की सुरक्षा और निष्पक्ष जांच के लिए बहुत ज्यादा जरूरी है।

