इंटरसेक्शनलजेंडर कोलकाता बलात्कार मामला: जब न्याय से पहले शुरू हो जाती है विक्टिम ब्लेमिंग

कोलकाता बलात्कार मामला: जब न्याय से पहले शुरू हो जाती है विक्टिम ब्लेमिंग

कोलकाता बलात्कार मामला देश में सत्ता, पितृसत्ता और संस्थागत विफलताओं की जटिल परतों को उजागर करता है। यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि जब एक महिला उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज जाती है और वहीं पर उसे असुरक्षित महसूस करना पड़े, तो हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था कितनी असंवेदनशील और विफल हो चुकी है।

हाल ही में कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक जूनियर डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के मामले के लगभग 10 महीने बाद, शहर के लॉ कॉलेज में 24 वर्षीय छात्रा के साथ कथित तौर पर बलात्कार की घटना सामने आई है। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट मुताबिक मुख्य आरोपी जो कॉलेज में संविदा कर्मचारी भी था, दक्षिण कोलकाता में तृणमूल छात्र परिषद का पूर्व महासचिव है। उसके खिलाफ़ कम से कम पांच मामले पहले से लंबित हैं, जिनमें हत्या का प्रयास, यौन उत्पीड़न और जबरन वसूली के मामले शामिल हैं। यह घटना उस दिन सामने आई जब राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दीघा में हाल ही में उद्घाटित जगन्नाथ मंदिर में पहली रथ यात्रा की तैयारियों का निरीक्षण करने पहुंचीं थीं।

अपनी शिकायत में सर्वाइवर ने कहा कि उसके और कथित आरोपी के साथ मारपीट से पहले उसे पैनिक अट्टाक हो रहा था। सर्वाइवर ने भागने की कोशिश की, लेकिन उसे सुरक्षा गार्ड के कमरे में खींच लिया गया और कथित तौर पर बलात्कार किया गया, जबकि दो अन्य आरोपी घटना को रिकॉर्ड कर रहे थे। घटना बेहद संवेदनशील और गंभीर है कि किसी कॉलेज परिसर में यौन हिंसा की घटना सामने आई है। लेकिन, ये भी चिंताजनक है कि एक राज्य के रूप में सरकार न सिर्फ लोगों को विशेषकर महिलाओं को; सुरक्षा देने में नाकामयाब है, बल्कि घटना के बाद तृणमूल काँग्रेस के शीर्ष नेता सर्वाइवर की विक्टिम ब्लेमिंग कर रहे हैं।

कोलकाता के लॉ कॉलेज में 24 वर्षीय छात्रा के साथ कथित तौर पर बलात्कार की घटना सामने आई है। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट मुताबिक मुख्य आरोपी जो कॉलेज में संविदा कर्मचारी भी था, दक्षिण कोलकाता में तृणमूल छात्र परिषद का पूर्व महासचिव है।

यौन हिंसा के लिए विक्टिम ब्लेमिंग की राजनीति

तृणमूल कांग्रेस के विधायक मदन मित्रा ने घटना के बाद बयान दिया कि अगर महिला घटनास्थल पर नहीं जाती तो कोलकाता की इस लॉ छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार नहीं होता। अगर वह जाने से पहले किसी को बता देती या अपने साथ कुछ दोस्तों को ले जाती तो यह घटना नहीं होती। वहीं, तृणमूल पार्टी के वरिष्ठ सांसद कल्याण बनर्जी ने इस घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मीडिया से कहा कि यदि एक दोस्त अपने दोस्त के साथ बलात्कार करता है, तो क्या किया जा सकता है? क्या आप शिक्षण संस्थानों में पुलिस तैनात करना चाहते हैं? हर जगह पुलिस नहीं हो सकती। देश में विक्टिम ब्लेमिंग की घटना नई नहीं है। लेकिन, किसी यौन हिंसा की घटना के बाद, सत्ता में बैठे लोगों का ऐसा करना पितृसत्तातमक मानसिकता जाहिर करता है।

तस्वीर साभार: The Conversation

रेप एण्ड विक्टिम ब्लेमिंग इन इंडिया शोध के अनुसार बलात्कार के सर्वाइवरों को तब अधिक दोषी ठहराया जाता है, जब वे बलात्कार की घटना के बाद में ‘हमले’ का विरोध करती हैं, न कि पहले, जिससे यह स्टीरियोटाइप लगता है कि ये महिलाएं प्रतीकात्मक प्रतिरोध कर रही हैं या पुरुष को बहका रही हैं क्योंकि वे अब तक सेक्शुअल इक्स्पीरीअन्स के साथ चली आ रही थीं। इस शोध के अनुसार बलात्कार सर्वाइवरों को तब अधिक दोषी ठहराया जाता है, जब उनका बलात्कार किसी अजनबी के बजाय किसी परिचित या डेट कर रहा व्यक्ति करता है। इससे स्टीरियोटाइप के तौर पर यह लगता है कि सर्वाइवर असल में यौन संबंध बनाना चाहते हैं क्योंकि वे अपने आरोपी यानी यौन हिंसा करने वाले को जानती हैं और शायद उसके साथ डेट पर भी गई हैं।

रेप एण्ड विक्टिम ब्लेमिंग इन इंडिया शोध के अनुसार बलात्कार के सर्वाइवरों को तब अधिक दोषी ठहराया जाता है, जब वे बलात्कार की घटना के बाद में ‘हमले’ का विरोध करती हैं, न कि पहले, जिससे यह स्टीरियोटाइप लगता है कि ये महिलाएं प्रतीकात्मक प्रतिरोध कर रही हैं या पुरुष को बहका रही हैं क्योंकि वे अब तक सेक्शुअल इक्स्पीरीअन्स के साथ चली आ रही थीं।

राजनीतिक सत्ता, दमन और बलात्कार की राजनीति

ह्यूमन राइट्स वॉच की साउथ एशिया डायरेक्टर मीनाक्षी गांगुली ने भारत में रेप मामलों को लेकर गंभीर चिंता जताई है। उनका कहना है कि कई बार ऐसे मामलों में राजनीति का दखल होता है। अगर आरोपी किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा होता है या समाज में शक्तिशाली पज़िशन में होता है, तो पुलिस भी शिकायत दर्ज करने से बचती है। उनका कहना है कि देश में बलात्कार के कई मामलों को राजनीति से जोड़ा जाता है, जिससे सर्वाइवर को न्याय मिलना मुश्किल हो जाता है। कई बार सामुदायिक, जातिगत और राजनीतिक दबाव इतना ज्यादा होता है कि सर्वाइवर या उसका परिवार अपना बयान वापस ले लेता है या बदल देता है। इससे न्याय की प्रक्रिया कमजोर हो जाती है और आरोपी बच निकलते हैं। ‘बलात्कार की राजनीति’ शब्द उस जटिल और संवेदनशील सच्चाई को दिखाता है, जहां यौन हिंसा समाज में मौजूद सत्ता, मानसिकता और भेदभाव से जुड़ी होती है।

इसका मतलब यह है कि रेप को सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि एक ऐसी घटना के रूप में समझना चाहिए जो लैंगिक असमानता, ताकत का गलत इस्तेमाल और ऐसी सामाजिक मान्यताओं से जुड़ी होती है जो यौन हिंसा को नजरअंदाज करती हैं या उसे सामान्य बना देती हैं। देश में यौन हिंसा विशेषकर बलात्कार जैसे अपराधों का राजनीतिक फायदा उठाया गया है। इन्हें इस तरह इस्तेमाल किया गया कि कानूनी व्यवस्था, न्याय, सर्वाइवर और शासन पर चर्चा होने की बजाय ये राजनीति का खेल बन जाते हैं। इससे असली मुद्दे पीछे छूट जाते हैं और सर्वाइवर को न्याय मिल पाना और मुश्किल हो जाता है। न सिर्फ राजनीतिज्ञ ऐसे मामलों में एक-दूसरे पर इल्ज़ाम लगाते हैं बल्कि सभी पार्टियों के राजनेताओं ने यौन हिंसा के चुनिंदा घटनाओं के खिलाफ़ आक्रोश दर्ज की है।  

‘बलात्कार की राजनीति’ शब्द उस जटिल और संवेदनशील सच्चाई को दिखाता है, जहां यौन हिंसा समाज में मौजूद सत्ता, मानसिकता और भेदभाव से जुड़ी होती है।

यौन हिंसा को रिपोर्ट करने में संस्थागत चुनौतियां

कोलकाता मामले की जांच कर रही नौ सदस्यीय विशेष जांच टीम (एसआईटी) ने पाया है कि घटना की साजिश रचने वाले तीन आरोपियों का कॉलेज की छात्राओं का यौन उत्पीड़न करने का भी इतिहास रहा है। कोलकाता की घटना कोई एकल अपराध की घटना नहीं है। यह दिखाती है कि किस तरह सत्ता और राजनीतिक संरक्षण अपराधियों को बेखौफ बना देता है। उदाहरण के लिए हाथरस गैंगरेप मामले में देखा गया कि आरोपियों ने अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर पूरी तरह से दंड से छूट पाई। जिन संस्थाओं को न्याय दिलाने के लिए बनाया गया था, उन्हीं का इस्तेमाल बलात्कार का सामना करने वाली लड़की और उसके परिवार के खिलाफ़ किया गया। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट अनुसार देश में बलात्कार सर्वाइवरों को न्याय और महत्वपूर्ण सहायता सेवाएं मिलने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। 82 पेज की यह रिपोर्ट में पाया गया कि बलात्कार और अन्य यौन हिंसा सर्वाइवर महिलाएं और लड़कियां अक्सर पुलिस स्टेशनों और अस्पतालों में अपमान का सामना करती हैं।

तस्वीर साभार: The Conversation

पुलिस अक्सर उनकी शिकायतें दर्ज करने के लिए तैयार नहीं होती, सर्वाइवरों और गवाहों को बहुत कम सुरक्षा मिलती है, और चिकित्सा पेशेवर अभी भी ‘टू-फिंगर’ परीक्षण करने के लिए मजबूर करते हैं। न्याय और सम्मान के लिए ये बाधाएं आपराधिक मुकदमों के दौरान सर्वाइवरों के लिए अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल, परामर्श और कानूनी सहायता से और भी बढ़ जाती हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में पाया गया कि पुलिस हमेशा प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज नहीं करती, जो पुलिस जांच शुरू करने का पहला कदम है, खासकर अगर सर्वाइवर आर्थिक या सामाजिक रूप से हाशिए के समुदाय से हो। कई मामलों में, पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया या सर्वाइवर के परिवार पर ‘समझौता’ करने का दबाव डाला, खासकर तब, जब आरोपी किसी शक्तिशाली परिवार या समुदाय से हो। बता दें कि भारतीय कानून के अनुसार, यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज न करने वाले पुलिस अधिकारियों को दो साल तक की जेल हो सकती है।

ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में पाया गया कि पुलिस हमेशा प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज नहीं करती, जो पुलिस जांच शुरू करने का पहला कदम है, खासकर अगर सर्वाइवर आर्थिक या सामाजिक रूप से हाशिए के समुदाय से हो।

न्यायायिक प्रक्रिया की विफलता और विक्टिम ब्लेमिंग का चलन

अक्सर यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिलाओं और हाशिये के समुदाय के लोगों में ये जागरूकता नहीं होती कि वे आपराधिक मुकदमे के लिए सरकार से मुफ़्त कानूनी सहायता की मांग कर सकती है। साल 2015 में बनाए गए केंद्रीय सर्वाइवर मुआवज़ा कोष के अनुसार बलात्कार सर्वाइवरों को कम से कम 3 लाख रुपए दिए जाने चाहिए। लेकिन हर राज्य अलग-अलग राशि देता है। चूंकि संस्थागत समस्याओं के कारण यह प्रणाली कई बार काम नहीं करती, सर्वाइवरों को लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है या वे इस योजना का लाभ नहीं उठा पाते हैं। यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिलाओं को समाज का दोषी ठहराना और उनका खुदको भी दोष देना आम बात है। बात अदालतों की करें तो भी समय-समय पर डिस्ट्रिक्ट, उच्च या यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी विक्टिम ब्लेमिंग की घटनाएं सामने आई है।

तस्वीर साभार: The Conversation

जैसे, साल 2020 में कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा कि यौन उत्पीड़न के बाद सो जाना ‘एक भारतीय महिला के लिए अनुचित’ है। बलात्कार के आरोपी को बरी करते हुए न्यायाधीश कृष्ण दीक्षित ने कहा था कि जब हमारे महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, तो वे इस तरह से प्रतिक्रिया नहीं करती हैं। आज भी ये उम्मीद की जाती है कि यौन हिंसा विशेषकर बलात्कार के मामले में महिलाएं एक निश्चित प्रकार से विरोध करेगी। यौन हिंसा के मामलों में समाज ही नहीं न्यायलाएं भी सर्वाइवर को एक निश्चित खांचे में डालने की कोशिश करते हैं। लेकिन, ये समझना जरूरी है कि यौन हिंसा के मामले में किसी को ‘परफेक्ट विक्टिम’ का खिताब नहीं दिया जा सकता।

तृणमूल कांग्रेस के विधायक मदन मित्रा ने घटना के बाद बयान दिया कि अगर महिला घटनास्थल पर नहीं जाती तो कोलकाता की इस लॉ छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार नहीं होता। अगर वह जाने से पहले किसी को बता देती या अपने साथ कुछ दोस्तों को ले जाती तो यह घटना नहीं होती।

नारीवादी विचारधारा विक्टिम ब्लेमिंग को न केवल खारिज करती है, बल्कि इसे सत्ता और लैंगिक असमानता की जड़ों से जोड़ती है। कोलकाता बलात्कार मामला देश में सत्ता, पितृसत्ता और संस्थागत विफलताओं की जटिल परतों को उजागर करता है। यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि जब एक महिला उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज जाती है और वहीं पर उसे असुरक्षित महसूस करना पड़े, तो हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था कितनी असंवेदनशील और विफल हो चुकी है। विक्टिम ब्लेमिंग, सत्ता का संरक्षण और न्याय प्रणाली की कमजोर रवैया, इन सभी का मेल यौन हिंसा को न केवल बढ़ावा देता है बल्कि सर्वाइवर को बार-बार चुप रहने पर मजबूर करता है। ज़रूरत है एक ऐसे नारीवादी और मानवाधिकार आधारित दृष्टिकोण की, जो न सिर्फ  सर्वाइवर की सुने, बल्कि उन्हें केंद्र में रखकर नीति और न्याय व्यवस्था को दोबारा गढ़े। जब तक हम विक्टिम ब्लेमिंग की संस्कृति को खत्म नहीं करेंगे और सत्ता से सवाल नहीं पूछेंगे, तब तक असली न्याय एक कल्पना ही बना रहेगा।

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