समाजकैंपस विकलांग विद्यार्थियों को कैंपस में आने वाली चुनौतियां और समावेशी शिक्षा की जरूरत

विकलांग विद्यार्थियों को कैंपस में आने वाली चुनौतियां और समावेशी शिक्षा की जरूरत

सेज जर्नल्स में छपे एक शोध के अनुसार, विकलांग विद्यार्थियों का नामांकन, कुल नामांकनों का केवल 2 फीसदी है, जबकि विकलांग व्यक्तियों के अधिकार (आरपीडब्ल्यूडी ) अधिनियम, 2016 के अनुसार यह न्यूनतम 5 फीसदी होना चाहिए।

कैंपस एक ऐसी जगह है, जहां भिन्न – भिन्न प्रकार के विद्यार्थियों का जमावड़ा होता है। शिक्षा संस्थान सभी बच्चों को समान रूप से देखता है परंतु कैंपस में रहते हुए विकलांग विद्यार्थियों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हमारे देश की शैक्षणिक व्यवस्था अभी तक समावेशी नहीं है। कैंपस के बुनियादी ढांचे से लेकर सामाजिक व्यवहार और शैक्षणिक नीति तक, कई स्थितियों का सामना करना पड़ता है। इन विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक संस्थान कभी – कभी ऐसे स्थान बन जाते हैं,जहां वे शारीरिक रूप से उपेक्षित यानी नज़रअंदाज़ किए जाते हैं और जिस कारण वह सामाजिक रूप से सभी विद्यार्थियों से अलग महसूस करते हैं।

कैंपस के अनुभवों को समझने के लिए पंजाब यूनिवर्सिटी का यह शोध महत्वपूर्ण है। साल 2023 में सेज जर्नल्स में छपे एक शोध के अनुसार, विकलांग विद्यार्थियों का नामांकन, कुल नामांकनों का केवल 2 फीसदी है, जबकि विकलांग व्यक्तियों के अधिकार (आरपीडब्ल्यूडी ) अधिनियम, 2016 के अनुसार यह न्यूनतम 5 फीसदी होना चाहिए। शोध में पढ़ाई, भौतिक और सामाजिक बाधाओं को चिन्हित किया गया है, जिस कारण विकलांग विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा में समान अवसर नहीं मिल पा रहे हैं। यह अध्ययन भारत में समावेशी शिक्षा की स्थिति को भी दिखाता है।

साल 2023 में सेज जर्नल्स में छपे एक शोध के अनुसार, विकलांग विद्यार्थियों का नामांकन, कुल नामांकनों का केवल 2 फीसदी है, जबकि विकलांग व्यक्तियों के अधिकार (आरपीडब्ल्यूडी ) अधिनियम, 2016 के अनुसार यह न्यूनतम 5 फीसदी होना चाहिए।

जन्म से विकलांग और हादसे के बाद विकलांग होने में फर्क

मुस्कान कपूर दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा हैं। उन्होंने अपनी दृष्टि को साल 2013 में एक एक्सीडेंट के दौरान खो दिया था। वह इस विषय पर बात करते हुए वह कहती हैं, “किसी एक्सीडेंट में अपनी दृष्टि खो देना बहुत ही पीड़ादायक होता है। कुछ समय पहले आप सब कुछ देख सकते थे पर आज स्थिति ये है कि आंखों के सामने अंधेरा है। ये परिस्थिति किसी भी व्यक्ति को मानसिक रूप से तोड़ देती है। साहस करके फिर से उठने में बहुत मजबूत होना पड़ता है। इससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है। मेरे लिए वह समय बहुत कठिन था पर परिवार के साथ ने मेरा हौसला बढ़ाया और मुझे हिम्मत दी। मेरे साथ हर कदम पर चलते रहे। मुझे शुरू में बहुत दिक्कत हुई उन लोगों से मिलने में जो दृष्टिबाधित या जो देख नहीं पाते हैं । जिन व्यक्तियों की दृष्टि शुरू से नहीं होती है उन लोगों का बात करने का तरीका अलग होता है। इन सब चीजों के साथ शुरुआत ब्रेल के प्रयोग में भी दिक्कतें आई।” 

जन्म से विकलांग होना और जीवन में किसी दुर्घटना के कारण विकलांग होने के अनुभवों में गहरा अंतर होता है। जन्म से दृष्टिहीन या अन्य विकलांगता के साथ रहने वाले व्यक्ति का संसार और उसकी जीवन रणनीतियां शुरू से ही उस अवस्था के अनुरूप ढली होती हैं, जबकि किसी दुर्घटना के बाद विकलांग हुआ व्यक्ति मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से एक गहरे संकट से गुजरता है। उसे न केवल अपने शरीर की नई सीमाओं को समझना होता है, बल्कि समाज की नजरों और व्यवहार को भी सहना होता है, जो बहुत मुश्किल हो सकता है। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य, परिवार का सहयोग और संस्थागत समावेशन और महत्वपूर्ण भूमिका रखता है । 

किसी एक्सीडेंट में अपनी दृष्टि खो देना बहुत ही पीड़ादायक होता है। कुछ समय पहले आप सब कुछ देख सकते थे पर आज स्थिति ये है कि आंखों के सामने अंधेरा है। ये परिस्थिति किसी भी व्यक्ति को मानसिक रूप से तोड़ देती है। साहस करके फिर से उठने में बहुत मजबूत होना पड़ता है।

कैंपस तक पहुंचने में बाधाएं और समावेशन की कमी

तस्वीर साभार : Canva

विकलांग विद्यार्थियों को घर से निकलने के साथ, कैंपस और क्लासरूम तक पहुंचने में कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा जीरामणि देख नहीं पाती हैं। वे यूनिवर्सिटी से स्नाकोत्तर की पढ़ाई कर रही हैं। अपनी समस्याओं पर बात करते हुए वह कहती हैं, “मैं एक प्राइवेट हॉस्टल में रहती हूं। हॉस्टल से यूनिवर्सिटी तक का सफ़र मेरे लिए कठिनाइयों से भरा हुआ है। हॉस्टल से कुछ दूर चल कर बस स्टैंड तक पहुंचना होता है। कभी कभी तो में गाय या कुत्ते से भी टकरा जाती हूं। यही नहीं बस के लिए मुझे घंटों इंतजार करना पड़ता है। देरी होने के कारण कई बार क्लास खत्म हो चुकी होती है।”खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति और भी चिंताजनक है, जहां बुनियादी सुविधाओं का अधिक अभाव देखने मिलता है। 

परिवहन, रैम्प, सहायक उपकरण, या प्रशिक्षित शिक्षकों जैसी ज़रूरी चीज़ें न होने के कारण विकलांग विद्यार्थी स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते। कुछ विद्यार्थी कठिनाइयों के बावजूद एडमिशन ले लेते हैं, बाद में कॉलेज जाने में असमर्थ हो जाते हैं, क्योंकि शिक्षा संस्थान समावेशी रूप से कार्य नहीं करते।आज भी कई विद्यार्थी उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेने से वंचित रह जाते हैं। रिसर्च गेट में छपी एआईएसएचई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में केवल 85,877 विकलांग विद्यार्थियों ने दाखिला लिया, जबकि अनुमानित कुल नामांकन 37.4 मिलियन है। भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में कुल 3,73,99,388 छात्रों में से विकलांग छात्रों का नामांकन केवल 0.23 फीसदी है। यानी जहां 5 फीसदी आरक्षण के हिसाब से लगभग 18,69,969 छात्रों का दाखिला होना चाहिए था, वहां असल में सिर्फ़ 85,877 छात्रों का ही दाखिला हुआ, जो उच्च शिक्षा संस्थानों में समावेशन की गंभीर स्थिति को उजागर करता है।

मैं एक प्राइवेट हॉस्टल में रहती हूं। हॉस्टल से यूनिवर्सिटी तक का सफ़र मेरे लिए कठिनाइयों से भरा हुआ है। हॉस्टल से कुछ दूर चल कर बस स्टैंड तक पहुंचना होता है। कभी कभी तो में गाय या कुत्ते से भी टकरा जाती हूं। यही नहीं बस के लिए मुझे घंटों इंतजार करना पड़ता है। देरी होने के कारण कई बार क्लास खत्म हो चुकी होती है।

हॉस्टल और सुलभता की कमी से प्रभावित हो रही पढ़ाई

तस्वीर साभार: सुश्रीता बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

क्लास में विकलांग विद्यार्थियों की अनुपस्थिति का प्रमुख कारण कैंपस तक पहुंचने में असुविधा है। यूनिवर्सिटी के भीतर हॉस्टल न होने या हॉस्टल में बहुत कम सीट होने के कारण उन्हें ट्रैवल करना पड़ता है, जिसमें 2 से 3 घंटे सिर्फ कैंपस पहुंचने में लगता है, जिसके कारण बहुत से विद्यार्थी कॉलेज आना छोड़ देते हैं। जीरामणि कहती हैं, “कॉलेज कैंपस में हॉस्टल की सुविधा नहीं है। हॉस्टल की सुविधा होने से हम रोज क्लास समय से ले सकेंगे या सभी विद्यार्थियों के लिए बस सुविधा उपलब्ध करा दी जाए। जिससे हमें हॉस्टल तक पहुंचने में कोई असुविधा न हो”। अधिकांश शिक्षण संस्थाओं की इमारतें सुलभ नहीं होती हैं। भवनों में रैंप , लिफ्ट और ब्रेल संकेतक की व्यवस्था नहीं होती है जिसकी वजह से क्लास रूम तक पहुंचना अत्यंत कठिन होता है। कैंपस के अंदर मार्गदर्शक या संकेतक नहीं होते हैं।

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, जेएनयू  के अधिकांश विभागों में विकलांग विद्यार्थियों के लिए रैंप, लिफ्ट, ब्रेल साइनेज और सुलभ शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इस वजह से व्हीलचेयर पर निर्भर और दृष्टिबाधित छात्रों को कक्षाओं, पुस्तकालय और प्रशासनिक दफ्तरों तक पहुंचने में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस विषय पर बात करते हुए जीरामणि कहती हैं, “कैंपस तक पहुंचने के बाद हमें क्लासरूम तक जाने में असुविधा होती है। रैंप या लिफ्ट की सुविधा कैंपस में न होने के कारण क्लास रूम तक पहुंचना कठिन होता है। कई बार हम सीढ़ियों से फिसल जाते हैं।”

कैंपस तक पहुंचने के बाद हमें क्लासरूम तक जाने में असुविधा होती है। रैंप या लिफ्ट की सुविधा कैंपस में न होने के कारण क्लास रूम तक पहुंचना कठिन होता है। कई बार हम सीढ़ियों से फिसल जाते हैं।

विकलांग छात्रों के लिए पाठ्यक्रम में लचीलापन जरूरी

पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति की बात करें तो यहां ‘एक ही ढांचा सभी पर लागू’ वाली मानसिकता काम करती है। यह सतही रूप से समावेश दिखता है, लेकिन वास्तविक समावेशन इससे आगे की मांग करता है। शिक्षकों को हर छात्र की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षण में लचीलापन लाना चाहिए, जिसके लिए संस्थानों को विशेष प्रशिक्षण देना आवश्यक है। मुस्कान कपूर कहती हैं, “कॉलेज में कई बार टीचर्स की पढ़ाने की गति तेज होती है, हम नोट्स नहीं बना पाते और वे हमें अनदेखा कर देते हैं।” 

कक्षाओं में पढ़ाई पारंपरिक तरीके से ब्लैक बोर्ड और तीव्र लेक्चर चलते हैं जिसके कारण समझने में असुविधा होती है।  विद्यार्थियों के लिए चल रहे विषय को समझना कठिन हो जाता है। जीरामणि क्लास और परीक्षाओं के अनुभव को बताते हुए कहती हैं,“क्लास रूम में पढ़ाए गए विषयों पर कई बार ऐसा होता है कि हमें समझ नहीं आता है। हमें  हर टॉपिक पर पीछे चलने के कारण प्रश्न पूछने में हिचकिचाहट होती है। परीक्षाओं के समय कई बार ऐसी स्थिति आती है कि हमें राइटर खुद ढूंढना पड़ता है। एक दिन में राइटर ढूंढना बहुत मुश्किल होता है।“ 

क्लास रूम में पढ़ाए गए विषयों पर कई बार ऐसा होता है कि हमें समझ नहीं आता है। हमें  हर टॉपिक पर पीछे चलने के कारण प्रश्न पूछने में हिचकिचाहट होती है। परीक्षाओं के समय कई बार ऐसी स्थिति आती है कि हमें राइटर खुद ढूंढना पड़ता है। एक दिन में राइटर ढूंढना बहुत मुश्किल होता है।

जिस प्रकार से सभी विद्यार्थी कैंपस को आजाद महसूस करते हैं । उसी प्रकार से एक ऐसा परिवेश शिक्षण संस्थान को विकलांग बच्चों के लिए भी रखना चाहिए। जिससे वह कैंपस में आने के बाद किसी भी प्रकार की असुविधा से न डरे और खुद को कैंपस में आजाद पाए। कैंपस  में सभी को समावेशी रूप से शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए। शिक्षण संस्थानों को ऐसा समावेशी परिवेश तैयार करना चाहिए, जहां विकलांग छात्र केवल सहानुभूति के पात्र न बनें, बल्कि सक्रिय भागीदारी और गरिमामय उपस्थिति के साथ अपना शैक्षणिक जीवन जी सकें। एक ऐसा वातावरण तैयार करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है जहां हर विद्यार्थी, चाहे उसकी शारीरिक स्थिति कुछ भी हो, खुद को न केवल सुरक्षित और सहज महसूस करे, बल्कि वह अपनी क्षमताओं को पूरे आत्मविश्वास के साथ विकसित भी कर सके।

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