भारतीय समाज में आदर्श महिला की छवि हमेशा से एक अहम विषय रही है। खासकर जब इसे फिल्मों में दिखाया गया हो। फिल्में सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं हैं, बल्कि ये समाज के सोच और मान्यताओं को भी दिखाती हैं। महिलाओं की छवि बनाने और दिखाने में भारतीय सिनेमा की बड़ी भूमिका रही है। शुरुआत से लेकर आज तक फिल्मों में आदर्श महिला की छवि समाज और समय के साथ बदलती रही है। कभी उन्हें त्याग करने वाली माँ के रूप में दिखाया गया, कभी धार्मिक और सीधी-सादी पत्नी के रूप में। आज की फिल्मों में वह आत्मनिर्भर, संघर्ष करने वाली और अपने अधिकारों के लिए खड़ी होने वाली महिला के रूप में नजर आती हैं।
हमें बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि ‘आदर्श महिला’ कैसी होनी चाहिए और समाज में उसकी क्या जगह है। यह छवि हमारे सामने एक आदर्श के रूप में रख दी जाती है, मानो हर महिला के लिए इस आदर्श पर खरा उतरना ही सबसे बड़ी उपलब्धि हो। समाज यह तय करता है कि एक आदर्श महिला को कैसे बोलना चाहिए, कैसे चलना चाहिए, क्या पहनना चाहिए और किन सीमाओं में रहना चाहिए। कपड़ों के मामले में यह सोच और भी गहरी दिखाई देती है। हमारे समाज और सिनेमा ने बार-बार यह दिखाया है कि आदर्श महिला वही है जो साड़ी में, पल्लू संभालकर, मर्यादा में बंधकर रहती है। वहीं जब कोई महिला वेस्टर्न ड्रेस पहनती है, तो उसे समाज की नजरों में तुरंत चरित्रहीन, मुँहफट, आवारा या पुरुषों से जरूरत से ज्यादा घुलने-मिलने वाली कहकर ठप्पा लगा दिया जाता है।
हमें बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि ‘आदर्श महिला’ कैसी होनी चाहिए और समाज में उसकी क्या जगह है। यह छवि हमारे सामने एक आदर्श के रूप में रख दी जाती है, मानो हर महिला के लिए इस आदर्श पर खरा उतरना ही सबसे बड़ी उपलब्धि हो।
भारतीय सिनेमा ने भी बिना किसी हिचकिचाहट के इस भेदभाव को पर्दे पर उतारा है। फिल्मों में यह अंतर बार-बार दिखाया गया, मानो यही समाज की सच्चाई हो और महिलाओं के लिए यही नियम तय हैं। इस तरह सिनेमा न सिर्फ मनोरंजन का साधन रहा, बल्कि महिलाओं की छवि गढ़ने और समाज में आदर्श महिला की परिभाषा को मजबूत करने का माध्यम भी बन गया। फिल्मों में आदर्श महिला की छवि हमेशा सीमित रूप में दिखाई गई है। अक्सर उसे ऐसा दिखाया जाता है कि चाहे उस पर कितनी भी तकलीफ क्यों न आए, वह पुरुषों के सामने चुप रहे और अपनी बात न रखे। उसके कपड़े भी पूरे शरीर को ढकने वाले दिखाए जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ फिल्मों में आम तौर पर पुरुष किरदार ऊंची आवाज़ में बोलते हैं, गालियां दे सकते हैं और ताकतवर होते हैं।
लेकिन अगर कोई महिला ऐसा करती है, तो उसे बददिमाग, गुस्से वाली या बदतमीज़ कहा जाता है और उसकी परवरिश पर सवाल उठाए जाते हैं। अधिकतर फिल्मों में ताकत और शक्ति का प्रतीक पुरुषों को ही बनाया गया है। बहुत कम फिल्में हैं जिनमें महिलाओं को एक्शन करते या शक्तिशाली रूप में दिखाया गया है। साल 1935 की फिल्म हंटरवाली पहली भारतीय फिल्म मानी जाती है जिसमें एक महिला ने मुख्य भूमिका में एक्शन किया। इसी तरह साल 2014 की मर्दानी में रानी मुखर्जी एक महिला पुलिस अधिकारी के रूप में लड़कियों की तस्करी और अपराधियों से लड़ती हुई नजर आती हैं।
साल 1935 की फिल्म हंटरवाली पहली भारतीय फिल्म मानी जाती है जिसमें एक महिला ने मुख्य भूमिका में एक्शन किया। इसी तरह साल 2014 की मर्दानी में रानी मुखर्जी एक महिला पुलिस अधिकारी के रूप में लड़कियों की तस्करी और अपराधियों से लड़ती हुई नजर आती हैं।
सिनेमा क्यों आदर्श महिला की मांग करता है
सिनेमा में अक्सर आदर्श महिला की छवि दिखाई जाती है, लेकिन आदर्श पुरुष की छवि बहुत कम देखने को मिलती है। इसकी वजह यह है कि समाज की नज़र में अगर कोई पुरुष आदर्श बनता है, तो उसे ‘नामर्द या ‘कमज़ोर’ मान लिया जाता है। यह सोच असल में सिनेमा बनाने वाले निर्देशकों और लेखकों की पितृसत्तात्मक मानसिकता से आती है। 70 और 80 के दशक में फिल्मों में यह सोच और भी ज़्यादा हावी थी, अब थोड़ी कम हुई है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुई। लोग फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन के लिए ही नहीं देखते, बल्कि उसे अपनी निजी ज़िंदगी से जोड़कर भी सच मान लेते हैं। यही कारण है कि सिनेमा समाज की सोच और मान्यताओं को मज़बूत करने का काम करता है। ज्यादातर फिल्में दर्शकों की पसंद और उनकी मानसिक संतुष्टि को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, न कि समाज में कोई नई सोच या बदलाव लाने के उद्देश्य से। फिल्मकार जानते हैं कि अगर वे पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ जाकर कुछ अलग दिखाएंगे, तो उन्हें विरोध और नफ़रत का सामना करना पड़ेगा। इससे फिल्म को नुकसान होगा और बॉक्स ऑफिस पर कमाई भी घट सकती है।
पुरुषत्व पर निर्भरता से उस मानसिकता से स्वतंत्रता तक
भारतीय सिनेमा में लंबे समय तक महिलाओं को पुरुष नायक के इर्द-गिर्द घूमते किरदार के रूप में दिखाया गया। उनकी पहचान अक्सर पिता, भाई या पति की पहचान से जुड़ी होती थी। महिला की छवि त्याग करने वाली, सहनशील और परिवार के लिए बलिदान देने वाली आदर्श महिला तक सीमित कर दी गई थी। लेकिन जैसे-जैसे समाज में समानता की विचारधारा मज़बूत हुई, वैसे-वैसे फिल्मों में भी महिलाओं की छवि बदलने लगी। हालांकि यह बदलाव अब भी पूरी तरह नहीं आया है। आज की नारीवादी दृष्टिकोण वाली फिल्मों में महिला को स्वतंत्र सोच रखने वाली, अपने फैसले खुद लेने वाली और सामाजिक बंधनों को तोड़ने वाली के रूप में पेश किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, साल 2016 के पिंक ने यह संदेश दिया कि न का मतलब हमेशा न होता है और कॉन्सेंट में दोनों पुरुष और महिला शामिल होनी चाहिए। इसी तरह साल 2020 में थप्पड़ ने यह साफ़ किया कि घरेलू हिंसा चाहे कितनी भी मामूली क्यों न लगे, उसे सहना किसी भी महिला के आत्मसम्मान के खिलाफ़ है। इस तरह सिनेमा ने महिलाओं की छवि को पुरुष पर निर्भरता से निकालकर स्वतंत्रता, आत्मसम्मान और समानता की ओर मोड़ा है। यह बदलाव केवल फिल्मों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि समाज की सोच और असली ज़िंदगी की महिलाओं को भी एक नई दिशा दी है।
70 और 80 के दशक में फिल्मों में यह सोच और भी ज़्यादा हावी थी, अब थोड़ी कम हुई है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुई। लोग फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन के लिए ही नहीं देखते, बल्कि उसे अपनी निजी ज़िंदगी से जोड़कर भी सच मान लेते हैं। यही कारण है कि सिनेमा समाज की सोच और मान्यताओं को मज़बूत करने का काम करता है।
क्या हो सकती है बदलते समय में आदर्श महिला की छवि
समय के साथ आदर्श महिला की परिभाषा और छवि में बड़ा बदलाव आया है। पहले के दौर में उसकी पहचान परिवार तक सीमित थी। उसे अच्छे घर की बेटी, त्यागमयी पत्नी और बलिदान देने वाली माँ के रूप में देखा जाता था। उसकी उपलब्धियों को परिवार तक ही मापा जाता था और उसकी असली पहचान पुरुषों से जुड़ी रहती थी। लेकिन आज की आदर्श महिला की तस्वीर बिल्कुल अलग है। अब वह केवल घर-परिवार तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने में सक्षम है। वह पढ़ी-लिखी है, आत्मनिर्भर है। उसके अपने सपने और करियर हो सकता है। साथ ही सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में भी उसकी सक्रिय भूमिका है। आज की महिला खेल, विज्ञान, साहित्य, कला, व्यवसाय और राजनीति जैसे हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही है। ओलंपिक पदक जीतने से लेकर नई तकनीक खोजने तक, संसद में आवाज़ उठाने से लेकर साहित्य और कला में नए आयाम गढ़ने तक, हर जगह महिलाएं अपनी ताकत और क्षमता साबित कर रही हैं। अब आदर्श महिला का अर्थ सिर्फ त्याग और सहनशीलता तक सीमित नहीं रह गया है। आधुनिक आदर्श महिला वही है, जो अपने परिवार और समाज के साथ-साथ अपने सपनों और आकांक्षाओं को भी पूरा करे। वह अपने आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और समानता को महत्व देती है और दूसरों के लिए प्रेरणा बनती है।
अब समय आ गया है कि हम ‘आदर्श महिला’ की अवधारणा को बदलें। एक महिला को किसी तय ढांचे में फिट करने के बजाय उसे उसके पूरे अस्तित्व के साथ स्वीकार करना ज़रूरी है। उसकी सफलताओं, गलतियों, इच्छाओं और असफलताओं के साथ। सिनेमा, जो समाज का आईना कहा जाता है, उसे अब सिर्फ परंपराओं को दोहराने की जगह नई कहानियों के ज़रिए बदलाव की दिशा दिखानी चाहिए। जब महिलाएं पर्दे पर अपने असली रूप में दिखेंगी, न कि आदर्श या परिपूर्ण रूप में, तब समाज भी उन्हें एक इंसान के रूप में देखने लगेगा, न कि किसी आदर्श के प्रतीक के रूप में। यही बदलाव सिनेमा और समाज दोनों को और मानवीय बनाएगा।

