भारतीय सिनेमा, खासकर बॉलीवुड, ने दशकों से ‘आदर्श माँ’ की एक खास छवि गढ़ी है। यह बताता है कि एक माँ कोई ऐसी महिला है जो त्यागमयी, सहनशील, अपने सपनों और इच्छाओं को परिवार के लिए नकारने वाली है। यह छवि दर्शकों के मन में इतनी गहराई से बैठा दी गई है कि माँ को एक इंसान की बजाय एक ‘संस्था’ की तरह देखा जाने लगा है। दीवार, कभी खुशी कभी ग़म और बागबान जैसी फिल्मों की कहानियों में माँ की भूमिका पितृसत्तात्मक मूल्यों को मजबूती देती है, जहां उसका अस्तित्व केवल पति और बच्चों की सेवा तक सीमित होता है। भारतीय समाज में पितृसत्ता अपनी गहरी जड़ें फैलाए हुए है। मां की जो छवि भारतीय सिनेमा में दिखाई जाती है, वह हमारे पुरुष प्रधान समाज के आदर्शों से मेल खाती है जहां महिला का सबसे बड़ा धर्म है सेवा करना और परिवार की आवश्यकताओं के अनुसार खुद को ढालना। फिल्मों में माँ अक्सर कम बोलने वाली दिखाई जाती है। वह अपने पति के निर्णयों पर सवाल नहीं उठाती, न ही परिवार की पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ बोलती है।
वह आम तौर पर एक सहायक भूमिका में रहती है और हमें एक आदर्श माँ की प्रेरणा देती है। उसका अस्तित्व अक्सर उसके बेटों, पति या परिवार के इर्द-गिर्द घूमता हुआ दिखाई देता है। भारतीय सिनेमा में माँ की छवि को समझने के लिए हमें भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर में लौटना होगा। साल 1930 और 40 के दशक की फिल्मों में माँ का किरदार पारंपरिक, धार्मिक और नैतिक मूल्यों को मानने वाली महिला के रूप में दिखाई देता है। सबसे मजबूत उदाहरण है 1957 में आई फिल्म मदर इंडिया। इस फिल्म में राधा का किरदार सिर्फ एक माँ नहीं, बल्कि राष्ट्रमाता के रूप में उभरता है, जो अपने बेटे को कानून तोड़ने के कारण जान से मार देती है। यह दृश्य बताता है कि अच्छी माँ वही होती है जो कानून, नैतिकता और बलिदान के रास्ते पर चले।
माँ की जो छवि भारतीय सिनेमा में दिखाई जाती है, वह हमारे पुरुष प्रधान समाज के आदर्शों से मेल खाती है जहां महिला का सबसे बड़ा धर्म है सेवा करना और परिवार की आवश्यकताओं के अनुसार खुद को ढालना।
आदर्श माँ: त्याग, सहनशीलता और ममता की मूरत
बॉलीवुड में आदर्श माँ की जो छवि दिखायी जाती है, वह लगभग पूरी तरह त्याग, सहनशीलता और ममता के इर्द-गिर्द घूमती है। 1950 के दशक से लेकर 80 के दशक तक की फिल्मों में यह छवि गहराई से देखी जा सकती है। साल 1975 में आई ‘दीवार’ और 1977 में ‘अमर अकबर एंथनी’ जैसी फिल्मों में निरुपा रॉय जैसी अभिनेत्रियों ने माँ को एक शोषित लेकिन मजबूत किरदार के रूप में निभाया, जो ईश्वर और पुत्र के प्रति पूरी निष्ठा रखती है। दीवार में वह हर तरह के सामाजिक और आर्थिक संघर्षों के बावजूद अपने बेटों के बीच सामाजिक और धर्म का पक्ष चुनती है। वह अपनी भावनाओं को कभी भी नहीं दिखाती। इस छवि का सबसे शक्तिशाली तत्व है माँ की सहनशीलता। वह शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक पीड़ा को सहती है लेकिन कभी शिकायत नहीं करती। यह एक भावनात्मक आदर्श है जो कहता है कि एक अच्छी माँ वह है जो अपने दुख को भी ममता की मुस्कान से ढक दे।

बॉलीवुड में माँ का किरदार सिर्फ कहानियों में ही नहीं, बल्कि उसके संवादों के कारण भी भावनात्मक नियंत्रण का एक ज़रिया बन जाता है। संवाद ‘माँ के आशीर्वाद से बड़ा कोई हथियार नहीं होता’ या दीवार फिल्म का डायलॉग ‘मेरे पास माँ है’ महज शब्द नहीं हैं। ये माँ के चरित्र को एक पुरुषप्रधान सत्ता में बदल देते हैं, जो अपने बच्चों पर नैतिक और भावनात्मक दबाव बनाती है। इसी तरह करण-अर्जुन में राखी का किरदार बार-बार कहता है, ‘मेरे करन अर्जुन आएंगे।’ इन संवादों और प्रतीकों से दर्शकों के भीतर गहरे नैतिक मूल्य स्थापित किए जाए हैं जो एक माँ को गलत रास्ते पर जाते या कोई गलती करते नहीं देख सकता। शायद इसलिए ही हम अपने घरों में भी बच्चे की गलतियों पर एक माँ को सबसे पहले जिम्मेदार ठहराते हैं, पिता को नहीं। बॉलीवुड की माँ अन्याय को सहन करने वाली और उसे प्यार में बदलने वाली दिखती है। यह छवि घरेलू हिंसा, पितृसत्ता और शोषण को ‘नैतिक सहनशीलता’ का जामा पहनाती है, जिससे असली पीड़ा अदृश्य हो जाती है।
साल 1975 में आई ‘दीवार’ और 1977 में ‘अमर अकबर एंथनी’ जैसी फिल्मों में निरुपा रॉय जैसी अभिनेत्रियों ने माँ को एक शोषित लेकिन मजबूत किरदार के रूप में निभाया, जो ईश्वर और पुत्र के प्रति पूरी निष्ठा रखती है। दीवार में वह हर तरह के सामाजिक और आर्थिक संघर्षों के बावजूद अपने बेटों के बीच सामाजिक और धर्म का पक्ष चुनती है।
1990 के दशक में माँ का बदलता चेहरा

1990 के दशक में भारतीय समाज और बॉलीवुड में बड़े बदलाव देखने को मिले। आर्थिक उदारीकरण, उपभोक्तावाद और सैटेलाइट टेलीविज़न के आमद ने लोगों की सोच और जीवनशैली को तेजी से प्रभावित किया। इसका सीधा असर हिंदी सिनेमा में ‘माँ’ की छवि पर भी पड़ा। अब माँ सिर्फ त्याग की मूरत नहीं रही, बल्कि वह परिवार की रीढ़, भावनात्मक संतुलन बनाए रखने वाली और कठिन परिस्थितियों में समझदारी से निर्णय लेने वाली बनकर सामने आती है। ‘राजू बन गया जेंटलमैन’ (1992) की माँ बेटे की महत्वाकांक्षाओं को समझती है और उसका साथ देती है। ‘हम आपके हैं कौन’ (1994) और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ (1995) जैसी फिल्मों में माँ अब कठोर पारंपरिक अनुशासन का पालन करने वाली नहीं बल्कि एक मध्यस्थ, समझदार और संवेदनशील भूमिका में नजर आती है।
इसके अलावा, इस दौर की फिल्मों में माँ के किरदार को अधिक मानवीय रूप में प्रस्तुत किया गया। यह वह थी जो गुस्सा कर सकती है, गलत फैसले ले सकती है और भावनात्मक उलझनों से जूझती है। फिल्म ‘विरासत’ (1997) और ‘सपने’ (1997) जैसी फिल्मों में माँ का चित्रण जटिल और यथार्थ से जुड़ा होता है। तेजी से होते शहरीकरण और मध्यम वर्ग के उदय ने ‘माँ’ की भूमिका को घर की चारदीवारी से बाहर लाकर बच्चों की शिक्षा, करियर और रिश्तों में सक्रिय रूप से शामिल किया। अब वह केवल रसोई में सीमित नहीं थी, बल्कि अपनी पहचान और आकांक्षाओं को भी स्थान देती है। साथ ही, माँ के किरदार में ग्रे शेड्स की भी शुरुआत हुई, जैसा कि फिल्म ‘गुमराह’ (1993) में सुरेखा सीकरी के चरित्र में देखा जा सकता है। एक ऐसी महिला जो कठोर होते हुए भी बेटी की भलाई चाहती है।
‘राजू बन गया जेंटलमैन’ (1992) की माँ बेटे की महत्वाकांक्षाओं को समझती है और उसका साथ देती है। ‘हम आपके हैं कौन’ (1994) और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ (1995) जैसी फिल्मों में माँ अब कठोर पारंपरिक अनुशासन का पालन करने वाली नहीं बल्कि एक मध्यस्थ, समझदार और संवेदनशील भूमिका में नजर आती है।
2000 के बाद: बदलते समाज के साथ बदलती माँ
सन 2000 के बाद के भारतीय सिनेमा ने माँ के किरदार को एक नई पहचान दी, जहां वह अब सिर्फ परिवार की रक्षक नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र और विचारशील व्यक्तित्व के रूप में उभरने लगी। इस समय के दौरान समाज में हो रहे तेजी से बदलावों ने बॉलीवुड की मां की छवि में भी गहरे बदलाव किए। फिल्में अब माँ के किरदार को विविध दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने लगीं, जैसे कि ‘क्या कहना’ (2000) में प्रीति जिंटा की माँ उसकी शादी से पहले होने वाले बच्चे को अपनाने का साहस दिखाती है, या ‘कल हो न हो’ (2003) में जया बच्चन जो अकेली अपने बच्चों की परवरिश के साथ-साथ घर की जिम्मेदारियां भी निभाती हैं।

इसके अलावा, फिल्म इंग्लिश विंग्लिश (2012) में शशि का किरदार इस बदलाव की एक मिसाल है, जो न केवल अपने आत्मसम्मान के लिए खड़ी होती है बल्कि अपने परिवार में अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करती है। फिल्म गुड न्यूज़ (2019) जैसी फिल्मों में माँ के किरदारों को परंपरा और आधुनिकता के रूप में दिखाया गया है। इसके अलावा, जिन फिल्मों में माँ की पहचान या उसका संघर्ष केंद्र में है, वे आज भी बहुत सीमित हैं। महिला निर्देशकों की बनाई गई कुछ फिल्मों ने भी इस दिशा में नई शुरुआत की। लेकिन मुख्यधारा में इस तरह की फिल्मों की संख्या बहुत कम है।
फिल्म इंग्लिश विंग्लिश (2012) में शशि का किरदार इस बदलाव की एक मिसाल है, जो न केवल अपने आत्मसम्मान के लिए खड़ी होती है बल्कि अपने परिवार में अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करती है। फिल्म गुड न्यूज़ (2019) जैसी फिल्मों में माँ के किरदारों को परंपरा और आधुनिकता के रूप में दिखाया गया है।
नारीवादी विमर्श में आदर्श माँ के छवि पर सवाल
नारीवादी सोच ने ‘आदर्श माँ’ की इस छवि को गहराई से सवालों के घेरे में लाया है। यह छवि जितनी मजबूती से पेश की जाती है, उतनी ही खतरनाक सीमाएं भी गढ़ती है। खासकर तब, जब हर महिला से इसी आदर्श का पालन करने की उम्मीद की जाती है। नारीवादी चिंतक मानते हैं कि माँ का महिमामंडन करने का यह तरीका औरत की बहुस्तरीय पहचान को मिटा देता है। औरत एक व्यक्ति भी है, जिसकी इच्छाएं, ज़रूरतें और सपने हो सकते हैं। लेकिन आदर्श माँ की छवि इन सभी को अनदेखा कर देती है। नारीवादी चिंतक इस बात पर जोर देते हैं कि आदर्श माँ की छवि औरत की यौनिकता को नकारती है। समाज में माँ को ‘पवित्र’ और ‘यौन संबंध’ से परे दिखाकर उसकी इंसानी चाहतों को अमान्य बना दिया जाता है।
एक औरत केवल माँ नहीं होती—वह एक दोस्त, पेशेवर, कलाकार, प्रेमिका या नागरिक भी होती है। लेकिन बॉलीवुड एक माँ के लिए इन भूमिकाओं की बात नहीं करता या फिर सिर्फ एक दायरे में बांधता है। यह आदर्श माँ आम तौर पर पहले निम्न फिर मध्यम या उच्च वर्ग, जाति या समुदाय की औरतों की ही होती है।
एक औरत केवल माँ नहीं होती—वह एक दोस्त, पेशेवर, कलाकार, प्रेमिका या नागरिक भी होती है। लेकिन बॉलीवुड एक माँ के लिए इन भूमिकाओं की बात नहीं करता या फिर सिर्फ एक दायरे में बांधता है। यह आदर्श माँ आम तौर पर पहले निम्न फिर मध्यम या उच्च वर्ग, जाति या समुदाय की औरतों की ही होती है। हम शायद ही कभी दलित, मुस्लिम, आदिवासी, ट्रांस या एकल माँओं की कहानियां देखते हैं। इसलिए, नारीवादी आलोचना यह मांग करती है कि माँ की छवि को उसकी विविधता, जटिलता और मानवीयता के साथ दिखाया जाना चाहिए। आदर्श माँ सिन्ड्रोम महिलाओं पर सामाजिक और भावनात्मक दबाव बनाता है, जिससे उनकी स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता पर असर पड़ता है। यह सिन्ड्रोम महिलाओं को अपनी इच्छाओं को दबाने के लिए मजबूर करता है, ताकि वे अच्छी माँ की परिभाषा में फिट हो सकें। मातृत्व को एक अनुभव के रूप में देखा जाना चाहिए, जो हर महिला के लिए जरूरी नहीं है। हमें फिल्मों और समाज में माँ के किरदार को त्याग की देवी से हटाकर, एक सोचने-समझने वाली, निर्णय लेने वाली इंसान के रूप में दिखाने की जरूरत है, ताकि महिलाएं अपने मातृत्व को स्वतंत्रता से जी सकें।