समाजकानून और नीति क्यों भारत को ज्यादा महिला जजों की ज़रूरत है?

क्यों भारत को ज्यादा महिला जजों की ज़रूरत है?

कई बार अदालतों के फैसलों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा पुरुष दृष्टिकोण से प्रभावित होती है। यह भाषा कई बार पितृसत्तात्मक सोच को दिखाती है, जिससे सर्वाइवर महिलाओं को नुकसान होता है। जैसे, नवंबर 2024 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक मामले में ससुराल वालों की गई मौखिक हिंसा को ‘हिंसा’ नहीं माना।

भारतीय न्यायपालिका ने पिछले सौ सालों में महिलाओं की भागीदारी में कई अहम कदम देखे हैं। इसकी शुरुआत साल 1924 में हुई, जब कॉर्नेलिया सोराबजी भारत की पहली महिला वकील बनीं। लेकिन आज भी, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट जैसे न्यायालयों में महिलाओं की संख्या बहुत कम है। यह कमी हमारे न्याय तंत्र में मौजूद ढांचे की असमानता और जटिल प्रक्रियाओं को दिखाती है। संविधान में बराबरी, न्याय और समावेशिता जैसे मूल्यों को सच्चे तौर पर लागू करने के लिए, ज़रूरी है कि उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़े। मार्च में एक कार्यक्रम के दौरान न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी ने कहा था कि महिलाओं की नियुक्ति को किसी ‘असाधारण घटना’ की तरह मनाने के बजाय, इसे एक सामान्य बात माना जाना चाहिए। अगर नियुक्तियों की प्रक्रिया ट्रैन्स्पैरन्ट यानी स्पष्ट, योग्यता पर आधारित और लैंगिक दृष्टि से संवेदनशील बनाई जाए, तो भारत की न्यायपालिका समाज के हर वर्ग को और बेहतर तरीके से प्रतिनिधित्व दे सकेगी और न्याय असल में सभी के लिए समान हो पाएगा।

न्यायपालिका में महिलाओं की वर्तमान स्थिति

भारत की न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी अब भी बहुत कम है। देश के उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की संख्या केवल 13.1 प्रतिशत है। कई राज्यों में स्थिति और भी कमजोर है। पांच उच्च न्यायालयों में एक भी महिला न्यायाधीश नहीं है। वहीं सात उच्च न्यायालयों में महिलाओं की संख्या 10 प्रतिशत से भी कम है। सबसे बेहतर स्थिति सिक्किम और तेलंगाना उच्च न्यायालयों की है, जहां महिला न्यायाधीशों की संख्या लगभग 33.3 प्रतिशत है। लेकिन उत्तराखंड, मेघालय और त्रिपुरा जैसे राज्यों में आज भी कोई महिला न्यायाधीश नहीं है। भारत के सबसे बड़े इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कुल 109 न्यायाधीश हैं, जिनमें सिर्फ 6 महिलाएं हैं यानी कि केवल 5 प्रतिशत हिस्सेदारी महिलाओं की है। बात सुप्रीम कोर्ट की करें, तो फिलहाल केवल एक महिला न्यायाधीश हैं न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना। कुल 34 न्यायाधीशों में यह संख्या सिर्फ 2.9 प्रतिशत है।
साल 1950 से अब तक भारत के सर्वोच्च न्यायालय में केवल 11 महिला न्यायाधीश नियुक्त हुई हैं। यानी अब तक हुई 287 कुल नियुक्तियों में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 3.8 प्रतिशत रही है। वहीं अब तक कोई भी महिला न्यायाधीश भारत के मुख्य न्यायाधीश यानी चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के पद पर नियुक्त नहीं हुई हैं।

कई बार अदालतें बलात्कार के आरोपियों को सर्वाइवर से शादी करने की अनुमति भी दे देती हैं। यानी, उनके नज़र में बलात्कार जैसे गंभीर अपराध का हल ‘शादी’ में है, न कि लैंगिक समानता, सजा और न्याय में।

जिला और अधीनस्थ अदालतों (लोअर जूडिशियरी) में महिलाओं की स्थिति थोड़ी बेहतर है। यहां महिला न्यायाधीशों की संख्या लगभग 35 प्रतिशत है। कुछ राज्यों में यह प्रतिशत बहुत कम है। जैसे गुजरात में 19.5 प्रतिशत, जबकि गोवा में सबसे ज़्यादा 70 प्रतिशत महिलाएं न्यायाधीश हैं। अक्टूबर 2025 तक, देश की निचली अदालतों में कुल 7,852 महिला न्यायाधीश काम कर रही हैं। फिर भी, 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह अनुपात राष्ट्रीय औसत से कम है। भारत में कुल 17 लाख अधिवक्ता यानी लॉयर्स हैं, जिनमें केवल 15 प्रतिशत महिलाएं हैं। वहीं राज्य बार काउंसिलों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या तो और भी कम है, जहां केवल 2 प्रतिशत चुनी हुई प्रतिनिधि महिलाएं हैं। ये आंकड़े दिखाते हैं कि भारत की न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है, जबकि समावेशी न्यायायिक प्रक्रिया के लिए उनका प्रतिनिधित्व ज़रूरी है।

न्यायपालिका में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के क्या प्रभाव हैं?

आलोचकों का मानना है कि जब किसी फैसले में लैंगिक दृष्टिकोण यानी जेंडर की समझ की कमी होती है, तो ऐसे फैसले पूर्वाग्रहों पर आधारित हो जाते हैं। यानी उनमें समाज में बनी रूढ़िवादी धारणाओं का असर दिखता है। उदाहरण के लिए, अगस्त 2020 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को, जिस पर यौन हिंसा का आरोप था, इस शर्त पर ज़मानत दी कि वह सर्वाइवर से राखी बंधवाएगा। यह फैसला दिखाता है कि अदालत ने अपराध को गंभीरता से नहीं लिया, बल्कि उसे एक ‘भाई-बहन के रिश्ते’ के प्रतीक के रूप में हल करने की कोशिश की। कई बार अदालतों के फैसलों में भारतीय महिलाओं की आदर्श छवि बनाए रखने की सोच झलकती है। जैसे कि जून 2020 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक बलात्कार के आरोपी को ज़मानत देते हुए कहा कि ‘सर्वाइवर का व्यवहार वैसा नहीं था जैसा एक आदर्श बलात्कार सर्वाइवर का होना चाहिए।’ न्यायालय के इस टिप्पणी से साफ़ दिखता है कि अदालत सर्वाइवर के आचरण को जज कर रही थी, न कि अपराध की गंभीरता को।

भारत के सबसे बड़े इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कुल 109 न्यायाधीश हैं, जिनमें सिर्फ 6 महिलाएं हैं यानी कि केवल 5 प्रतिशत हिस्सेदारी महिलाओं की है। बात सुप्रीम कोर्ट की करें, तो फिलहाल केवल एक महिला न्यायाधीश हैं न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना। कुल 34 न्यायाधीशों में यह संख्या सिर्फ 2.9 प्रतिशत है।

इसी तरह, अगस्त में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक ऐसी महिला को ‘आदर्श भारतीय पत्नी’ कहा, जिसने अपने पति के सालों से अलग हो जाने और उपेक्षा को चुपचाप सहन किया था। अदालत ने उसके इस त्याग की सराहना की, जबकि यह बात अपने आप में पितृसत्तात्मक सोच को दिखाती है। कई बार अदालतें बलात्कार के आरोपियों को सर्वाइवर से शादी करने की अनुमति भी दे देती हैं। यानी, उनके नज़र में बलात्कार जैसे गंभीर अपराध का हल ‘शादी’ में है, न कि लैंगिक समानता, सजा और न्याय में। इन उदाहरणों से यह साफ़ दिखता है कि कई बार अदालतों के फैसले महिला की आदर्श छवि या उसकी ‘गरिमा’ तक सीमित रह जाते हैं, जबकि ध्यान अपराध की असली अपराधिक प्रकृति पर होना चाहिए। हालांकि ऐसा नहीं है कि सिर्फ महिला न्यायाधीश होने से ही कोर्ट के फैसलों में हम पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी दृष्टिकोण से दूर जा पाएंगे। लेकिन, महिलाओं की समान भागीदारी समावेशिता और समानता के रास्ते खोलने का उम्मीद देती है।

महिलाओं की संख्या क्यों जरूरी है  

जनवरी 2025 में जस्टिस सुनंदा भंडारे के स्मृति व्याख्यान में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने एक प्रभावशाली भाषण दिया। उन्होंने कहा कि हमारे देश में न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी बहुत ज़रूरी है और इस बदलाव से न्याय प्रक्रिया को बुनियादी रूप से बेहतर बनाया जा सकता है। न्यायमूर्ति नागरत्ना, जिन्हें 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने की संभावना है, ने यह बात कही। उन्होंने यह तर्क दिया कि जब अदालतों में महिलाएं बैठती हैं, तो वे लैंगिक अधिकार, पारिवारिक कानून और यौन-हिंसा जैसे मामलों में एक अलग दृष्टि ला सकती हैं, जिससे न्यायाधीकरण की प्रक्रिया अधिक समृद्ध और संवेदनशील बनती है। इसके अलावा, उन्होंने कहा कि न्यायिक पटल पर महिलाओं की उपस्थिति कोर्ट की ‘विश्वसनीयता और वैधता’ के लिए महत्वपूर्ण है। उन्होंने यह भी बताया कि विविध अनुभवों-वाले न्यायाधीश बेहतर फैसले ले सकते हैं क्योंकि वे न्यायशास्त्र की सीमाओं को चुनौती दे सकते हैं और नए कानूनी विचार ला सकते हैं। असल में न्यायपालिका में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी केवल आंकड़ों का सवाल नहीं है। यह न्याय प्रक्रिया का राजकीय, संवैधानिक और सामाजिक मूल है।

न्यायमूर्ति नागरत्ना, जिन्हें 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने की संभावना है, ने यह बात कही। उन्होंने यह तर्क दिया कि जब अदालतों में महिलाएं बैठती हैं, तो वे लैंगिक अधिकार, पारिवारिक कानून और यौन-हिंसा जैसे मामलों में एक अलग दृष्टि ला सकती हैं, जिससे न्यायाधीकरण की प्रक्रिया अधिक समृद्ध और संवेदनशील बनती है।

कानूनी समझ में कमी और महिलाओं की न्याय तक पहुंच पर असर

अधिक विविधता यानी अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोगों की मौजूदगी से न्याय व्यवस्था और भी संतुलित होती है। इससे ऐसे फैसले लिए जा सकते हैं जो ज़मीन की सच्चाई को बेहतर ढंग से दिखाते हैं। महिला न्यायाधीश अपने साथ ऐसे अनुभव और नजरिए लेकर आती हैं जो न्यायशास्त्र की सीमाओं को आगे बढ़ाते हैं। वे समान अवसर, यौन हिंसा और प्रजनन अधिकार जैसे मुद्दों पर नए और संवेदनशील कानूनी विचार पेश करती हैं। लेकिन जब न्यायपालिका में महिलाओं की संख्या कम होती है, तो ऐसे अहम मुद्दों पर कानून की प्रगति धीमी हो जाती है या कई बार अधूरी रह जाती है। जब न्यायपालिका में विविधता नहीं होती, तो कानून हर वर्ग के अनुभवों और मुश्किलों को पूरी तरह नहीं समझ पाता।

अगर अदालतों में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होगा, तो न्याय व्यवस्था महिलाओं और वंचित समुदायों की ज़रूरतों को सही तरह से पूरा नहीं कर पाएगी। न्यायाधीश सिर्फ कानून का पालन कराने वाला नहीं होता, बल्कि समाज में न्याय का चेहरा भी होता है। अगर देश की आधी आबादी यानी महिलाएं खुद को अदालतों में न्यायाधीश की कुर्सी पर शायद ही देखती हैं, तो उनके मन में न्याय प्रणाली पर भरोसा कम होता है। कई बार महिला सर्वाइवर, खासकर हाशिये के समुदायों की महिलाएं; महिला न्यायाधीश के सामने अपने अनुभव बताने में ज़्यादा सहज महसूस करती हैं। लेकिन जब अदालतों में महिला न्यायाधीश कम होती हैं, तो महिलाएं संवेदनशील मामलों में कानूनी मदद लेने से झिझकती हैं। इसका सीधा असर न्याय की उपलब्धता पर पड़ता है।

कई बार अदालतों के फैसलों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा पुरुष दृष्टिकोण से प्रभावित होती है। यह भाषा कई बार पितृसत्तात्मक सोच को दिखाती है, जिससे सर्वाइवर महिलाओं को नुकसान होता है। जैसे, नवंबर 2024 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक मामले में ससुराल वालों की गई मौखिक हिंसा को ‘हिंसा’ नहीं माना।

न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी क्यों ज़रूरी है

महिलाओं की आबादी देश की लगभग आधी है, लेकिन न्यायालयों में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है। इससे यह लगता है कि न्यायपालिका समाज के हर वर्ग की आवाज़ नहीं बन पा रही। अगर अदालतों में अधिक महिलाएं न्यायाधीश बनें, तो लोग न्यायपालिका को ज्यादा निष्पक्ष और भरोसेमंद मानेंगे। कई बार अदालतों के फैसलों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा पुरुष दृष्टिकोण से प्रभावित होती है। यह भाषा कई बार पितृसत्तात्मक सोच को दिखाती है, जिससे सर्वाइवर महिलाओं को नुकसान होता है। जैसे, नवंबर 2024 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक मामले में ससुराल वालों की गई मौखिक हिंसा को ‘हिंसा’ नहीं माना। हालांकि घरेलू हिंसा कानून में मौखिक हिंसा को भी हिंसा का हिस्सा माना गया है। ऐसे मामलों में ये उम्मीद की जा सकती है कि महिला न्यायाधीश होने से शायद फैसला और उसकी भाषा दोनों अधिक संवेदनशील और न्यायपूर्ण होते। महिलाएं, खासकर पारिवारिक या वैवाहिक मामलों में, रिश्तों की जटिलता को बेहतर समझती हैं। महिला न्यायाधीश ऐसे मामलों में न सिर्फ क़ानूनी पक्ष को देखती हैं, बल्कि यह भी समझती हैं कि एक महिला किन भावनात्मक और सामाजिक दबावों से गुज़रती है। इससे उनके फैसले अधिक मानवीय और संवेदनशील होते हैं।

न्यायपालिका सिर्फ कानून लागू करने वाली संस्था नहीं होती, यह समाज को दिशा भी देती है। जब अदालतों में महिलाएं न्यायाधीश के रूप में निर्णय लेती हैं, तो वे समाज में समानता और न्याय के नए मानक स्थापित करती हैं। उनकी उपस्थिति से महिलाओं और लड़कियों को यह संदेश मिलता है कि वे भी नेतृत्व की भूमिका निभा सकती हैं। उच्च पदों पर बैठी महिला न्यायाधीश समाज की उन लड़कियों के लिए प्रेरणा बन सकती हैं जो कानून या अन्य पेशों में करियर बनाना चाहती हैं। इससे समाज में यह धारणा टूटती है कि नेतृत्व या न्याय देने की क्षमता सिर्फ पुरुषों में होती है। जब अदालतों में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी, तो न्यायपालिका अधिक स्वतंत्र, संवेदनशील और समाज का सच्चा प्रतिनिधि बनेगी। महिला न्यायाधीश अपने अनुभवों से यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि न्याय सिर्फ कानून के दायरे तक सीमित न रहे, बल्कि उसमें इंसानियत और बराबरी की भावना भी हो।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content