भारत की पितृसत्तात्मक सोच ने हमेशा महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा है। फिर चाहे वे किसी भी समुदाय, वर्ग या क्षेत्र से आती हों। संपत्ति को अपनी मानकर दिन-रात उसकी देखभाल करने वाली महिला को कभी पिता के घर से मामूली विवाद पर पराया कर दिया जाता है, तो कभी पति के घर से निकाल दिया जाता है। लंबे समय तक महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से दूर रखा गया। यह समस्या केवल मुख्यधारा की महिलाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि आदिवासी महिलाएं इसे और गहराई से सामना करती हैं। जब सूरज की पहली किरण जंगल की शाखाओं से छनकर आती है, तब एक आदिवासी महिला अपने खेत में खड़ी मिट्टी को सहलाती है। उसकी हथेलियों में सिर्फ मिट्टी नहीं, बल्कि उसकी पीढ़ियों की मेहनत, पहचान और अधिकार छिपे होते हैं। लेकिन सवाल यह है क्या यह अधिकार सच में उसका है? या फिर यह सिर्फ सरकारी कागज़ों में दर्ज नाम तक सीमित रह गया है?
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 15 से 49 साल की उम्र की केवल 13 फीसद महिलाएं ही अकेले अपने नाम घर रखती हैं, जबकि 29 फीसद महिलाएं किसी और के साथ मिलकर घर की मालिक हैं। जमीन के मामले में स्थिति और भी कमजोर है। सिर्फ 8.3 फीसद महिलाएं अकेले जमीन की मालिक हैं, जबकि 23.4 फीसद महिलाएं किसी और के साथ मिलकर जमीन की मालिक हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पास संपत्ति कम है। कुल मिलाकर 42.3 फीसद महिलाएं और 62.5 फीसद पुरुष घर के मालिक हैं, जबकि 31.7 फीसद महिलाएं और 43.9 फीसद पुरुष जमीन के मालिक हैं। महिलाओं के नाम पर घर की एकल मालिकाना में एनएफएचएस-4 की तुलना में करीब 3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। वहीं, जमीन की एकल मालिकाने में सिर्फ 1 प्रतिशत की मामूली बढ़त दर्ज की गई है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 15 से 49 साल की उम्र की केवल 13 फीसद महिलाएं ही अकेले अपने नाम घर रखती हैं, जबकि 29 फीसद महिलाएं किसी और के साथ मिलकर घर की मालिक हैं। जमीन के मामले में स्थिति और भी कमजोर है।
महिलाओं का ज़मीनी मालिकाना
हालांकि ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाओं के पास घर का स्वामित्व (चाहे अकेले या किसी के साथ मिलकर) शहरी महिलाओं की तुलना में ज़्यादा है। ग्रामीण क्षेत्रों में 45 फीसद महिलाएं घर की मालिक हैं, जबकि शहरों में यह संख्या 37 फीसद है। इसी तरह ज़मीन के स्वामित्व के मामले में भी ग्रामीण महिलाओं की स्थिति बेहतर है। गांवों में 36 फीसद महिलाओं के पास ज़मीन है, जबकि शहरों में केवल 23 फीसद महिलाओं के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ है। वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 ने आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक जंगल और भूमि पर वैधानिक अधिकार देने का वादा किया था। लेकिन इसके इम्प्लीमेंटशन में आज भी कई राजनीतिक, सामाजिक और संरचनात्मक बाधाएं मौजूद हैं। इस कानून का सबसे बड़ा बदलाव यह था कि महिलाओं को भी पुरुषों के समान स्वामित्व का अधिकार मिला। यह ऐतिहासिक कदम था, क्योंकि आदिवासी समाज में जमीन से जुड़े फैसले अब तक ज्यादातर पुरुष ही लेते आए थे।
दो दशक बीत चुके हैं। लेकिन एफआरए का असर आदिवासी महिलाओं की जिंदगी पर अधूरा नजर आता है। संपत्ति पर अधिकार की बात करें, तो भारत की अधिकतर महिलाएं अब भी समान स्थिति में नहीं हैं। हालांकि इस कानून के बाद, कई बदलाव आए हैं। आज कई महिलाएं अपनी जमीन खुद संभालती हैं, फसल बेचती हैं, गांव की सभाओं में अपनी राय रखती हैं और निर्णय प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। इस कानून की नींव 1980 के दशक में पड़े आदिवासी आंदोलनों में रखी गई थी। साल 2004 में काँग्रेस सरकार ने इस कानून का प्रस्ताव संसद में रखा और साल 2006 में यह लागू हुआ। एफआरए के तहत अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य परंपरागत वनवासी (ओटीएफडी), जो 13 दिसंबर 2005 से पहले तीन पीढ़ियों से जंगल पर निर्भर थे, उन्हें व्यक्तिगत रूप से अधिकतम चार हेक्टेयर जमीन का अधिकार मिला। सामुदायिक अधिकारों के तहत महुआ, तेंदू पत्ता, शहद जैसे लघु वनोत्पादों (एमएफपी) का संग्रह और बिक्री करने का भी हक दिया गया।
एफआरए के तहत अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य परंपरागत वनवासी (ओटीएफडी), जो 13 दिसंबर 2005 से पहले तीन पीढ़ियों से जंगल पर निर्भर थे, उन्हें व्यक्तिगत रूप से अधिकतम चार हेक्टेयर जमीन का अधिकार मिला।
महिलाओं के लिए यह कानून एक महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी कदम था। एफआरए के मुताबिक उप-मंडल, ज़िला और राज्य स्तर पर बनाई जाने वाली निगरानी समितियों में राज्य सरकार के राजस्व, वन और जनजातीय मामलों के विभाग के अधिकारी शामिल होंगे। साथ ही, संबंधित पंचायती राज संस्थाओं के तीन सदस्य भी इन समितियों में होंगे। इनमें से दो सदस्य अनुसूचित जनजाति के होंगे और कम से कम एक महिला सदस्य होना ज़रूरी है। अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 और इसके तहत बनाए गए नियमों के अनुसार, इस कानून को लागू करने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की है। आज के समय में यह कानून 20 राज्यों और 1 केंद्र शासित प्रदेश में लागू है।
क्या आदिवासियों को दिया जा रहा है जमीनी हक
राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की रिपोर्ट के अनुसार, 31 मई 2025 तक कुल 51,23,104 दावे ग्राम सभा स्तर पर दर्ज किए गए। इनमें से 49,11,495 व्यक्तिगत दावे और 2,11,609 सामुदायिक दावे शामिल हैं। इनमें से कुल 25,11,375 दावों यानी लगभग 49.02 फीसद पर स्वामित्व पत्र (टाइटल) दिए गए हैं जिनमें 23,89,670 व्यक्तिगत और 1,21,705 सामुदायिक टाइटल हैं। वहीं, 18,62,056 दावे यानी 36.35 फीसद खारिज किए गए और 7,49,673 दावे यानी 14.63 फीसद अब भी लंबित हैं। सीजेपी की एक रिपोर्ट अनुसार 30 जून 2022 तक सरकार के आंकड़ों के अनुसार, कुल 22,35,845 टाइटल जारी किए गए जिनमें 21,33,260 व्यक्तिगत और 1,02,585 सामुदायिक हैं। अब तक 1,60,30,640.68 एकड़ जंगल की ज़मीन पर अधिकार दिए गए हैं, जिनमें से 70 फीसद से ज़्यादा ज़मीन समुदायों को मिली है। छत्तीसगढ़ में सबसे ज़्यादा 9,22,346 दावे और 4,91,805 टाइटल जारी हुए, इसके बाद ओडिशा में 6,43,375 दावे और लगभग 4,60,000 टाइटल दिए गए। वहीं, हिमाचल प्रदेश में सबसे कम 3,021 दावे और बिहार में केवल 121 टाइटल जारी किए गए। ये आंकड़े 22 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से संबंधित हैं।
एक अध्ययन के नतीजों के अनुसार, जिसमें नौ राज्यों की ग्रामीण महिलाओं के जमीनी मालिकाने का आकलन किया गया और 2010 से 2014 के बीच इन्हीं घरों में हुए बदलावों को देखा गया (कुछ राज्यों में 2009–2014 तक), स्थिति बहुत असमान दिखाई देती है। अध्ययन बताता है कि ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 14 प्रतिशत महिलाएं ही ज़मीन की मालिक हैं।
महिलाओं की हालिया स्थिति
एफआरए की धारा 4(4) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भूमि के पट्टे पति और पत्नी दोनों के नाम पर होने चाहिए। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक वैश्विक स्तर पर, लगभग एक-तिहाई कामकाजी महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम कर रही हैं, जिसमें वानिकी और मत्स्य पालन भी शामिल है, और निम्न-आय और निम्न-मध्यम-आय वाले देशों में कृषि महिलाओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण रोजगार क्षेत्र बना हुआ है। फिर भी, कृषि भूमिधारकों में 13 प्रतिशत से भी कम महिलाएं हैं। हालांकि यह विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक रूप से भिन्न है। 180 देशों के विश्लेषण के आधार पर, 164 देश पुरुषों के समान शर्तों पर भूमि के स्वामित्व, उपयोग, निर्णय लेने और कोलैटरल के रूप में उपयोग करने के महिलाओं के अधिकारों को स्पष्ट रूप से मान्यता देते हैं। हालांकि, भेदभावपूर्ण प्रथागत कानूनों के कारण, केवल 52 देश ही कानून और व्यवहार दोनों में इन अधिकारों की गारंटी देते हैं।
एक अध्ययन के नतीजों के अनुसार, जिसमें नौ राज्यों की ग्रामीण महिलाओं के जमीनी मालिकाने का आकलन किया गया और 2010 से 2014 के बीच इन्हीं घरों में हुए बदलावों को देखा गया (कुछ राज्यों में 2009–2014 तक), स्थिति बहुत असमान दिखाई देती है। अध्ययन बताता है कि ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 14 प्रतिशत महिलाएं ही ज़मीन की मालिक हैं, और उनके पास कुल कृषि भूमि का केवल 11 प्रतिशत हिस्सा है। साल 2014 में किए गए सर्वे के अनुसार, महिलाओं के नाम पर ज़मीन सिर्फ 16 प्रतिशत घरों में थी। इनमें से 8 प्रतिशत घरों में ज़मीन पर पुरुष और महिला दोनों के नाम थे, जबकि 84 प्रतिशत घरों में किसी भी महिला के नाम पर ज़मीन नहीं थी। बात एफआरए की करें तो धारा 4(4) स्पष्ट रूप से कहती है कि भूमि पत्र पति और पत्नी दोनों के नाम पर होना चाहिए।
जिन इलाकों में वन अधिकार कानून (एफआरए) लागू हुआ, वहां की महिलाओं के जीवन में बड़े बदलाव आए हैं। साल 2024 के एक अध्ययन में पाया गया कि केरल के आदिवासी क्षेत्रों में एफआरए से जुड़ी महिलाओं का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण बढ़ा है।
आदिवासी महिलाएं पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान की संरक्षक भी होती हैं। वे जानती हैं कि किन पौधों में औषधीय गुण हैं, टिकाऊ खेती कैसे करें और जल संसाधनों का संरक्षण कैसे करें। फिर भी, कई कानूनी प्रणालियां उनके अधिकारों को मान्यता नहीं देतीं। कई जगहों पर, महिलाओं के भूमि अधिकार उनकी वैवाहिक स्थिति से जुड़े होते हैं। अगर वे शादीशुदा, विधवा या तलाकशुदा हैं, तो वे उस ज़मीन तक पहुंच खो सकती हैं जिसकी उन्होंने जीवन भर देखभाल की है। हालांकि देश में सर्फ कुछ ही ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जो आदिवासी महिलाओं के जमीनी मालिकाने में एक मिसाल कायम करते हैं। जैसे, ओडिशा के रायगढ़ जिले के आदिवासी बहुल बोरीगुडा गाँव में पिछले साल वन अधिकार अधिनियम के तहत 21 अविवाहित महिलाओं को व्यक्तिगत भूमि का स्वामित्व दिया गया। ओडिशा में कहीं भी अविवाहित महिलाओं को इस तरह के अधिकार मिलने का यह पहला मामला था।
जिन इलाकों में वन अधिकार कानून (एफआरए) लागू हुआ, वहां की महिलाओं के जीवन में बड़े बदलाव आए हैं। साल 2024 के एक अध्ययन में पाया गया कि केरल के आदिवासी क्षेत्रों में एफआरए से जुड़ी महिलाओं का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण बढ़ा है। पहले जहां खेत और बाजार सिर्फ पुरुषों का क्षेत्र माने जाते थे, अब महिलाएं खुद ऋण लेकर काम कर रही हैं और पंचायतों में नेतृत्व की भूमिका निभा रही हैं। ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में भी महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही हैं। ओडिशा में संथाल महिलाएं स्वयं सहायता समूहों के ज़रिए लघु वनोत्पाद बेच रही हैं, तो छत्तीसगढ़ में एफआरए लागू होने के बाद महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है। बैगा महिलाएं जंगल संरक्षण के लिए ‘जंगल अध्ययन मंडल’ चला रही हैं और भील महिलाएं सामुदायिक अधिकार के लिए सक्रिय हैं। अब महिलाएं सिर्फ़ घर की अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं, बल्कि समुदाय के फैसलों में बराबर भागीदार हैं। हालांकि वन संरक्षण संशोधन अधिनियम ने एफआरए की भावना को चुनौती दी है। नए प्रावधानों से विकास परियोजनाओं के लिए वन भूमि का उपयोग आसान हो गया है, जिससे आदिवासी समुदायों के अधिकार कमजोर हुए हैं।
सरकार इसे विकास का कदम मानती है, लेकिन यह पारिस्थितिक संतुलन और ग्राम सभाओं की एजेंसी के लिए खतरा है। एफआरए के बाद महिलाओं को ज़मीन के संयुक्त पट्टे मिले, लेकिन असमानता अब भी बनी हुई है। उनकी औसत वार्षिक आय केवल 5-7 प्रतिशत बढ़ी, जबकि पुरुषों की 20 प्रतिशत तक। इससे स्पष्ट है कि कानूनी समानता अभी सामाजिक और आर्थिक समानता में नहीं बदली। एफआरए को एक इको-फेमिनिस्ट कानून माना जाता है क्योंकि यह जंगल को जीवित इकाई समझने वाली महिलाओं की भूमिका को मान्यता देता है। जिन इलाकों में महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया गया, वहां वनों की स्थिति और आजीविका दोनों में सुधार हुआ। एफआरए ने कई परिवारों में भोजन सुरक्षा, बच्चों की शिक्षा और आय में वृद्धि की है। फिर भी, यह सशक्तिकरण अधूरा है। जहां प्रशासन सक्रिय है, वहां बदलाव दिखता है; पर जहां नहीं है, वहां महिलाएं अब भी ‘जंगल की बेटियां’ हैं, ‘ज़मीन की मालिक’ नहीं। सच्चा सशक्तिकरण तभी संभव है जब महिलाएं अपने अधिकारों पर वास्तविक नियंत्रण पा सकें। एफआरए ने महिलाओं को पहचान और गरिमा की नई राह दी है। अब वे सिर्फ जंगल की रक्षक नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व की आवाज़ हैं एक ऐसी आवाज़ जो हर पेड़, हर पत्ती के साथ गूंजती है।

