स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य ऑनलाइन सुविधाओं से आसान बन रहे मातृत्व अनुभव से क्यों दूर हैं ग्रामीण महिलाएं  

ऑनलाइन सुविधाओं से आसान बन रहे मातृत्व अनुभव से क्यों दूर हैं ग्रामीण महिलाएं  

शहरों में मातृत्व से जुड़ी जानकारी अब ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, वीडियो सलाह, गर्भवती महिलाओं के ग्रुप और डॉक्टरों के डिजिटल सत्रों के ज़रिए भी मिलती है। लेकिन ग्रामीण भारत में अभी भी ज्ञान का मुख्य स्रोत घर और समुदाय ही हैं जैसे- सास, देवरानी-जिठानी, पड़ोस और आशा-आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ही जानकारी का भरोसेमंद ज़रिया मानी जाती हैं।

भारत में महिलाओं के जीवन में मातृत्व को सिर्फ अनोखा ही नहीं, बल्कि सबसे अच्छा अनुभव बताया जाता है। यह मूल रूप से परिवार, समाज, सरकारी सेवाओं और व्यक्तिगत समझ से मिलकर बनता है। पिछले कुछ सालों में इस अनुभव में तकनीक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज इंटरनेट के जरिए मोबाइल, वीडियो सलाह, ऑनलाइन सपोर्ट ग्रुप और गर्भावस्था की निगरानी करने वाले डिजिटल मंच मातृत्व यात्रा का हिस्सा बन रहे हैं। लेकिन देश में ये सुविधाएं सबके लिए एक समान नहीं है। शहरों में रहने वाली महिलाएं मोबाइल का आत्मविश्वास से उपयोग करती हैं और इसे मदद और जानकारी पाने का साधन मानती हैं। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों की कई महिलाएं अभी भी इंटरनेट की कमी, मोबाईल तक पहुंच, टेक्नॉलजी के लिए झिझक, भाषा की दिक्कत और समाज के दबाव के कारण इसे आसानी से इस्तेमाल नहीं कर पातीं। डिजिटल भारत का लक्ष्य सब तक बराबर पहुंच बनाना है, लेकिन हकीकत में तकनीक की पहुंच स्थान, आर्थिक स्थिति, शिक्षा, संस्कृति और परिवार के व्यवहार पर भी निर्भर करती है। मातृत्व के लिए बने सरकारी डिजिटल मंच जैसे पोषण ट्रैकर, ई-संजीवनी और जननी सुरक्षा योजना जनहित के लिए बनाए गए हैं। लेकिन उनका उपयोग सभी महिलाओं तक बराबरी से नहीं पहुंच पाता।

ग्रामीण भारत, डिजिटल पहुंच और महिलाओं का स्वास्थ्य

ग्रामीण इलाकों में मोबाइल फोन की पहुंच तो बढ़ी है, लेकिन पहुंच होना और उसका सही इस्तेमाल कर पाना दोनों अलग बातें हैं। अगर मोबाइल घर में है भी, तो यह जरूरी नहीं कि महिला उसे आत्मविश्वास के साथ अपने लिए उपयोग कर पाए। भाषा की समझ, शिक्षा का स्तर, परिवार में महिलाओं की भूमिका और तकनीक से जुड़ा डर या झिझक ये सब मिलकर तय करते हैं कि वह मोबाइल का लाभ कैसे और कितना ले पाएगी। मातृत्व और टेक्नॉलजी के अंतर पर भिवानी की 28 वर्षीय हिमानी कहती हैं, “अब मोबाइल केवल बात करने के लिए नहीं है। गर्भावस्था में जब कुछ समझ नहीं आता था, मैं सबसे पहले मोबाइल पर हिंदी में खोज लेती थी। अंग्रेज़ी देखकर डर तो लगता था, लेकिन सोचा कि एक बार समझ लूंगी तो डर भी कम हो जाएगा। घर की बड़ी महिलाएं मुझसे पूछती थीं कि मैंने कहां से सीखा, उन्हें लगता था कि मैं किसी डॉक्टर से मिलकर आई हूं। जबकि सच में, मैं बस मोबाइल से सीख रही थी।”

लेकिन हर महिला के पास यह आत्मविश्वास और खुद के मोबाईल और इंटरनेट तक पहुंच नहीं होती। पटौदी की 26 वर्षीय सोनू की स्थिति अलग है। वह कहती हैं, “घर में मोबाइल है पर वो सबका है, मेरा अपना नहीं। मैं सिर्फ फोटो-वीडियो देख लेती हूं। उससे आगे कुछ करने की हिम्मत नहीं होती। गर्भावस्था में मैं अपनी सास और आशा दीदी पर ही निर्भर रहती थी। मोबाइल पर कुछ पढ़कर समझना नहीं आता। अंग्रेज़ी दिखे तो फ़ोन तुरंत रख देती हूँ। मेरे पति को अंग्रेज़ी में फोन चलाना आता है, इसलिए मैं वही देखती हूं जो वे दिखा देते हैं।’’ उनकी बातों में मोबाइल का डर, भाषा की दिक्कत और मोबाईल तक पहुंच समझ आता है। ये बाधाएं ग्रामीण महिलाओं को खुद को डिजिटली दर्ज करने या डिजिटल यात्रा में रुकावट का काम करते हैं।

मातृत्व पर डिजिटल जानकारी की सच्चाई

शहरों में मातृत्व से जुड़ी जानकारी अब ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, वीडियो सलाह, गर्भवती महिलाओं के ग्रुप और डॉक्टरों के डिजिटल सत्रों के ज़रिए भी मिलती है। लेकिन ग्रामीण भारत में अभी भी ज्ञान का मुख्य स्रोत घर और समुदाय ही हैं जैसे- सास, देवरानी-जिठानी, पड़ोस और आशा-आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ही जानकारी का भरोसेमंद ज़रिया मानी जाती हैं। हिमानी का अनुभव दिखाता है कि पढ़ाई और जागरूकता के सहारे ग्रामीण महिलाएं भी ऑनलाइन जानकारी का इस्तेमाल कर सकती हैं। वहीं सोनू का अनुभव बताता है कि ग्रामीण इलाकों में डिजिटल ज्ञान अब भी बहुत सीमित है और घर के भीतर तक नहीं पहुंच पाता। यानी डिजिटल खिड़की तो खुल गई है, लेकिन वहां तक पहुंचने में अभी भी भाषा, साधन और साहस की बाधाएं हैं। सरकार ने ऐसे कई डिजिटल मंच शुरू किए हैं जिनका उद्देश्य शहरी और ग्रामीण—दोनों क्षेत्रों में मातृ और शिशु स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाना है। लेकिन इन प्लेटफ़ॉर्म्स का वास्तविक उपयोग और पहुंच एक समान नहीं है।

पोषण ट्रैकर और महिलाओं की अधूरी भागीदारी

भारत में कुपोषण से निपटने के लिए आंगनवाड़ी व्यवस्था वर्षों से काम कर रही है। पहले बच्चों और गर्भवती महिलाओं की जानकारी काग़ज़ी रजिस्टरों में होती थी, जिससे निगरानी धीमी और अधूरी रहती थी। इसी चुनौती को सुलझाने के लिए पोषण ट्रैकर ऐप शुरू किया गया। एक ऐसा डिजिटल मंच, जहां पोषण से संबंधित सभी डेटा तुरंत दर्ज और उपलब्ध हो सके। इसका एक मुख्य कारण ये है कि जोखिम में रहने वाले बच्चों और गर्भवती महिलाओं को समय पर सहायता मिल सके। लेकिन ज़मीनी हकीकत अलग है। ऐप का उपयोग मुख्य रूप से आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ही करती हैं। लाभार्थी महिलाएं न तो इस ऐप का उपयोग कर पाती हैं और न ही इसे समझ पाती हैं। स्मार्टफोन की कमी, नेटवर्क की दिक्कतें, भाषा की बाधाएं और डिजिटल साक्षरता, ये सभी कारण ऐप की पहुंच को सीमित कर देते हैं। साधना बताती हैं, “ऐप का नाम सुना है, पर हमसे कभी नहीं कहा गया कि इसे देखें या समझें। दीदी ही सब लिखती हैं।” वहीं पटौदी की 28 वर्षीय सोनू कहती हैं, “मैंने तो यह नाम कभी नहीं सुना। आज पहली बार सुन रही हूं।”

ईसंजीवनी: डिजिटल डॉक्टर की सुविधा और गाँवों की हकीकत

ईसंजीवनी एक राष्ट्रीय टेली-परामर्श सेवा है। इसका उद्देश्य है कि महिलाओं को डॉक्टर से मिलने के लिए शहर न जाना पड़े और न ही अस्पतालों में लंबी कतारों में इंतज़ार करना पड़े। कोविड महामारी के समय यह सेवा शहरों में काफी मददगार साबित हुई। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में जब इस योजना को मातृत्व स्वास्थ्य के नज़रिए से देखा जाता है, तो तस्वीर उतनी सकारात्मक नहीं दिखती। गाँवों में इस सेवा का उपयोग बहुत कम है। कई महिलाओं को तो इसका नाम तक नहीं पता। भिवानी की हिमानी कुछ गिनी-चुनी महिलाओं में से हैं जिन्हें यह सेवा समझ में आई और उपयोगी लगी। लेकिन कुल मिलाकर ग्रामीण भारत में इसका असर असमान और सीमित है।

कमज़ोर इंटरनेट, स्मार्टफोन का कम प्रयोग और वीडियो पर डॉक्टर को दिखाने को लेकर झिझक महिलाओं को इन डिजिटल सुविधाओं से दूर करते हैं। सोनू जो डिजिटल सेवाओं से दूर हैं, कहती हैं, “इसका नाम ही पहली बार आपसे सुन रही हूं। हमारे यहां डॉक्टर को दिखाना हो तो हम सीधे अस्पताल जाते हैं।” कई ग्रामीण महिलाओं तक डिजिटल स्वास्थ्य सेवाएं पहुंच ही नहीं पातीं। न उन्हें जानकारी मिलती है, न प्रशिक्षण, और न ही कोई यह भरोसा दिलाता है कि यह सुविधा उन्हीं के लिए बनी है। तकनीक तभी अपनाई जाती है, जब महिलाएं यह महसूस करें कि वह इसे चलाना जानती हैं और इससे उन्हें फायदा होगा।

जननी सुरक्षा योजना तक पहुंच और समझ के बीच का अंतर

जननी सुरक्षा योजना उन योजनाओं में शामिल है जिनकी जानकारी और पहुँच ग्रामीण भारत की महिलाओं तक अच्छी तरह बनी हुई है। अधिकतर महिलाएं जानती हैं कि अस्पताल में प्रसव कराने पर उन्हें आर्थिक सहायता मिलती है और बड़ी संख्या में महिलाओं ने इस लाभ का उपयोग भी किया है। आशा कार्यकर्ता इस योजना की जानकारी घर-घर तक पहुँचाती हैं, इसलिए इसकी पहुंच मज़बूत मानी जाती है। लेकिन योजना तक पहुंच होना और उसे समझना दोनों अलग बातें हैं। लाभ मिलने का मतलब यह नहीं कि महिलाओं को यह भी जानकारी हो कि पैसा किस प्रक्रिया से मिलता है, कौन-सा कागज़ या जानकारी कहां दर्ज होती है, या यह पूरी व्यवस्था डिजिटल रूप से कैसे काम करती है। कई ग्रामीण क्षेत्रों में लाभ तो मिल जाता है, लेकिन प्रक्रिया की समझ बहुत कम होती है। एक तरफ यह योजना महिलाओं को सुरक्षित संस्थागत प्रसव के लिए प्रोत्साहित करती है और आर्थिक मदद भी देती है।

दूसरी तरफ यह महिलाओं को प्रशासनिक रूप से मज़बूत नहीं बनाती क्योंकि उन्हें प्रक्रिया की पूरी जानकारी नहीं होती। जब तक ग्रामीण महिलाओं को सरल भाषा में, प्रशिक्षण के माध्यम से या आशा कार्यकर्ताओं द्वारा पूरी प्रक्रिया समझाई नहीं जाएगी, तब तक यह योजना सिर्फ सुरक्षित प्रसव का साधन बनकर रह जाएगी। यह महिलाओं की आत्मनिर्भरता या निर्णय लेने की क्षमता को नहीं बढ़ा पाएगी। ग्रामीण और शहरी माताओं के बीच डिजिटल खाई सिर्फ संसाधनों की असमानता के कारण नहीं है। इसके पीछे भाषा, आत्मविश्वास की कमी, सामाजिक रोक-टोक, नेटवर्क की दिक्कतें, पुराने तरीके और सरकारी व्यवस्था की सीमित पहुंच ये सब कारण शामिल हैं।

शहरी महिलाओं के पास डिजिटल साधन हैं। वे डॉक्टर से बात कर सकती हैं, ऑनलाइन जानकारी ले सकती हैं और सरकारी योजनाओं की प्रक्रिया खुद समझ सकती हैं। लेकिन ग्रामीण महिला अक्सर वही करती है, जो उसे बताया जाता है। उसमें निर्णय लेने की भागीदारी कम और निर्भरता ज़्यादा होती है। अगर इस डिजिटल खाई को कम करना है तो ऐसी तकनीक बनानी होगी जो उनकी भाषा में हो, उनकी सीमाओं को समझे और उन्हें केवल लाभार्थी नहीं, सक्रिय उपयोगकर्ता मानें। जब तक हर साधना और सोनू जैसी महिलाएं मोबाइल को आत्मविश्वास के साथ इस्तेमाल नहीं कर पाएगी, तब तक डिजिटल भारत अधूरा रहेगा।

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