इंटरसेक्शनलजेंडर महिला ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स पर राज्य-स्वीकृत जेंडर आधारित हिंसा और समस्याएं

महिला ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स पर राज्य-स्वीकृत जेंडर आधारित हिंसा और समस्याएं

एमनेस्टी इंटरनैशनल की एक रिपोर्ट बताती है कि मणिपुर में मैतेई, कुकी और अन्य आदिवासी समुदायों के बीच हुई जातीय हिंसा में कम से कम 32 मामलों में महिलाओं के साथ गंभीर लैंगिक हिंसा हुई, लेकिन सरकार ने न उनकी ज़िम्मेदारी ली और न ही किसी पर कार्रवाई की।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हमारे संविधान ने हर व्यक्ति को समान मानवाधिकार दिए हैं। इन्हें लागू करना और सुरक्षित रखना राज्य की ज़िम्मेदारी है। लेकिन जब मानव अधिकारों की रक्षा करने वाले कार्यकर्ताओं को ही राज्य या सुरक्षा एजेंसियों की निगरानी, दबाव या हिंसा का सामना करना पड़े, तो चिंता बढ़ जाती है। महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए यह चुनौती और भी कठिन हो जाती है। समाज में महिलाओं को पहले से ही कमतर माना जाता है। ऐसे में जब वे सुरक्षा, न्याय और समानता की मांग करती हैं, तो उन्हें अक्सर चुप कराने की कोशिश की जाती है। समाज उन्हें अलग-थलग करता है और राज्य भी पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित होकर उनके विरोध को दबाने की कोशिश करता है। इन महिलाओं को डराने, धमकाने, ब्लैकमेल करने और मानसिक, शारीरिक या आर्थिक शोषण या हिंसा का सामना करना पड़ता है। कई बार उनके ख़िलाफ़ झूठे मुकदमे दर्ज कर दिए जाते हैं और उनकी ऑनलाइन-ऑफ़लाइन निगरानी की जाती है।

महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हमले सिर्फ़ क़ानून व्यवस्था की समस्या नहीं हैं। यह हमारे समाज और राजनीति की गहरी पितृसत्तात्मक सोच को दिखाते हैं। राज्य और पितृसत्ता मिलकर महिलाओं की आवाज़ दबाना चाहते हैं, खासकर तब जब वे भेदभाव और अत्याचार के खिलाफ लड़ती हैं। पुरुष कार्यकर्ताओं की तरह ही इन महिलाओं को धमकियों और हिंसा का खतरा रहता है, लेकिन इसके साथ ही उन्हें लैंगिक हिंसा, बदनामी और चरित्र हनन जैसी अतिरिक्त चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। कई बार हिंसा सीधे राज्य की तरफ से होती है। अगर कोई हमला गैर-राज्य तत्वों द्वारा किया जाए तो भी पुलिस कार्रवाई भी नहीं करती। दोनों ही स्थितियों में सरकार और क़ानून अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में नाकाम साबित होते हैं। एक नागरिक के रूप में इन महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी है, लेकिन असल में ऐसा होता कम ही दिखता है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि ऑनलाइन दुनिया अब महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए और ज़्यादा जोखिम भरी होती जा रही है। इंटरनेट पर उन्हें धमकियां दी जाती हैं, अपमानित किया जाता है और चुप कराने की कोशिश की जाती है।

महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा

दुनिया भर में महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा चिंता का विषय है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, हर वह महिला और लड़की जो मानवाधिकारों से जुड़े किसी भी मुद्दे पर काम करती है, उसे महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता कहा जाता है। इसके साथ ही, वे सभी जेंडर के लोग जो महिलाओं के अधिकार और लैंगिक समानता के लिए काम करते हैं, वे भी डब्ल्यूएचआरडी की श्रेणी में आते हैं। ये पत्रकार, लेखक, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता या न्याय से जुड़े किसी भी पेशे में हो सकते हैं। इनका काम समाज में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना और उनके लिए आवाज उठाना है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि ऑनलाइन दुनिया अब महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए और ज़्यादा जोखिम भरी होती जा रही है। इंटरनेट पर उन्हें धमकियां दी जाती हैं, अपमानित किया जाता है और चुप कराने की कोशिश की जाती है। साल 2023 में क्विना टिल क्विना फाउंडेशन के किए गए एक सर्वे में पाया गया कि हर चार में से तीन महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को उनके काम के कारण परेशान किया गया या धमकी दी गई। इनमें से कई को मौत की धमकियां भी मिलीं और कुछ पर जानलेवा हमले हुए। इस तरह की घटनाओं में पिछले कुछ वर्षों की तुलना में तेज़ बढ़ोतरी देखी गई है।

फ्रंटलाइन डिफेंडर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2023 में दुनिया भर में 300 मानवाधिकार कार्यकर्ता अपने काम की वजह से मारे गए, जिनमें 49 महिलाएं थीं।

फ्रंटलाइन डिफेंडर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2023 में दुनिया भर में 300 मानवाधिकार कार्यकर्ता अपने काम की वजह से मारे गए, जिनमें 49 महिलाएं थीं। इसी तरह आईएम-डिफेन्सोरस की एक स्टडी बताती है कि सिर्फ पांच देशों में ग्यारह साल के भीतर लगभग 9,000 महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर 35,000 से ज़्यादा हमले हुए। इन हमलों के पीछे अक्सर सरकार और प्रशासन की भूमिका पाई गई। कई मामलों में सरकारी एजेंसियों ने सीधे कार्यकर्ताओं और उनके परिवारों को निशाना बनाया। नेताओं के दिए गए महिला विरोधी और नफ़रती भाषण भी इन हमलों को बढ़ावा देते हैं। महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ राज्य द्वारा सबसे अधिक झूठे केस दर्ज किए जाते हैं और मनमाने तरीके से गिरफ़्तारियां होती हैं।

उन्हें देशद्रोह और आतंकवाद जैसे गंभीर आरोपों में फंसाया जाता है। उनके खिलाफ़ हिरासत के दौरान मानसिक और शारीरिक यातना के साथ यौन हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है। कई बार उनके फ़ोन, ईमेल और निजी बातचीत की निगरानी की जाती है और फिर उस जानकारी का दुरुपयोग कर बदनाम करने की कोशिश होती है। दबाव बढ़ाने के लिए उनके परिवार और क़रीबी लोगों को भी परेशान किया जाता है। यह दलित, आदिवासी, मुस्लिम महिलाओं और क्वीयर समुदाय के लोगों को ज्यादा सामना करना पड़ता है। महिलाओं की आवाज़ को दबाने की ये कोशिशें सिर्फ व्यक्तिगत हमले नहीं हैं, बल्कि लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर सीधा हमला हैं।

सोनी सोरी का उदाहरण अक्सर सामने आता है, जो छत्तीसगढ़ की एक शिक्षक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। साल 2011 में उन्हें पुलिस ने माओवादी होने के आरोप में गिरफ़्तार किया। हिरासत में उनके साथ यौन हिंसा की गई।

भारत में महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की स्थिति

भारत में महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को लगातार हिंसा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर ट्रोलिंग, धमकियां, शारीरिक हिंसा, गिरफ्तारी का सामना करना पड़ता है या यहां तक कि हत्या भी कर दी जाती है। कई बार पुलिस और सरकारी तंत्र ही उनके खिलाफ कार्रवाई में शामिल होते हैं। निजी कंपनियां और प्रभावशाली लोग भी आर्थिक या राजनीतिक हितों के कारण इन्हें निशाना बनाते हैं। सोनी सोरी का उदाहरण अक्सर सामने आता है, जो छत्तीसगढ़ की एक शिक्षक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। साल 2011 में उन्हें पुलिस ने माओवादी होने के आरोप में गिरफ़्तार किया। हिरासत में उनके साथ यौन हिंसा की गई। बाद में अदालत ने सबूतों के अभाव में उनके खिलाफ़ लगाए गए अधिकांश मामलों में उन्हें बरी कर दिया। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए किए गए उनके काम के लिए साल 2018 में उन्हें फ्रंट लाइन डिफेंडर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसी तरह ह्यूमन राइट वॉच की रिपोर्ट अनुसार मणिपुर पुलिस ने राष्ट्रीय भारतीय महिला महासंघ की तीन महिला कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ राजद्रोह, आपराधिक साजिश, मानहानि, नफ़रत फैलाने और शांति भंग का मामला दर्ज किया। टीम ने से राज्य प्रायोजित हिंसा का नतीजा बताया था और सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में जांच की मांग की थी। साल 2002 के गुजरात दंगों के सर्वाइवरों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ने वाली तीस्ता सीतलवाड़ को लगातार धमकियां, छापे और कानूनी परेशानियों का सामना करना पड़ा। इसी तरह लेखिका और कार्यकर्ता अरुंधति रॉय पर सरकार विरोधी बोलने के कारण देशद्रोह जैसे कानून लगाए गए और उन्हें लगातार टारगेट किया गया।

ह्यूमन राइट वॉच की रिपोर्ट अनुसार मणिपुर पुलिस ने राष्ट्रीय भारतीय महिला महासंघ की तीन महिला कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ राजद्रोह, आपराधिक साजिश, मानहानि, नफ़रत फैलाने और शांति भंग का मामला दर्ज किया। टीम ने से राज्य प्रायोजित हिंसा का नतीजा बताया था और सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में जांच की मांग की थी। 

हाल के दिनों में भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर यौन हिंसा के आरोपों के खिलाफ़ जब महिला पहलवानों ने आवाज़ उठाई, तो उन्हें दबाने की कोशिशें की गईं। न केवल उन्हें बदनाम करने की कोशिश हुई, बल्कि विरोध प्रदर्शन के दौरान दो ओलंपिक विजेता सहित कई एथलीटों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया। भारत में महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की यह वास्तविकता दिखाती है कि सत्ता संरचनाएं और रूढ़िवादी सोच उनके संघर्ष को और कठिन बनाती हैं। एमनेस्टी इंटरनैशनल की एक रिपोर्ट बताती है कि मणिपुर में मैतेई, कुकी और अन्य आदिवासी समुदायों के बीच हुई जातीय हिंसा में कम से कम 32 मामलों में महिलाओं के साथ गंभीर लैंगिक हिंसा हुई, लेकिन सरकार ने न उनकी ज़िम्मेदारी ली और न ही किसी पर कार्रवाई की। इसी तरह दिल्ली दंगों के मामले में सफ़ूरा जरगर को गर्भावस्था की दूसरी तिमाही में जेल भेजा गया और सोशल मीडिया पर उन्हें अपमानित किया गया। उन पर अश्लील टिप्पणियां की गईं और उनकी प्रेगनेंसी पर भी सवाल उठाए गए।

भारत के संविधान और क़ानून महिलाओं और सभी जेंडर को बराबरी और सुरक्षा का अधिकार देते हैं। इसके बावजूद महिलाएं लगातार हिंसा और भेदभाव का सामना करती हैं। चिंता की बात यह है कि कई बार जिन लोगों से सुरक्षा की उम्मीद होती है, वही हिंसा को बढ़ावा देने लगते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सीईडीएडब्ल्यू और अन्य समझौते महिलाओं की अधिकारों की रक्षा की बात करते हैं। इसलिए, ज़रूरी है कि महिला मानव अधिकार रक्षक की सुरक्षा के लिए अलग और मज़बूत क़ानून बनाए जाएं और उनका सख़्ती से पालन हो। साथ ही समाज में सोच और व्यवहार में बदलाव लाना भी बहुत ज़रूरी है। जब तक लोगों की मानसिकता में सुधार नहीं होगा, तब तक कोई भी क़ानून सिर्फ़ कागज़ पर ही रह जाएगा।

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