लखनऊ के कई इलाकों में सुबह-सुबह जब इमारतों के ढांचे धूप में चमकने लगते हैं, तब उन ढांचों के नीचे धूल में लिपटी कुछ महिलाएं अपने दिन की शुरुआत कर चुकी होती हैं। सिर पर ईंटों की टोकरी, हाथों में सीमेंट, पैरों में टूटी चप्पलें उनका रोज़ का जीवन है। शहर के लोग इन इमारतों को प्रगति का प्रतीक मानते हैं, लेकिन क्या कभी सोचते हैं कि इस प्रगति की असली कीमत कौन चुका रहा है। निर्माण स्थलों पर काम करने वाली महिलाएं इस शहर के विकास की रीढ़ हैं, लेकिन उनका शरीर, उनका स्वास्थ्य और उनकी जीवन-जरूरतें इस विकास के नक्शे में कहीं दर्ज नहीं हैं। खासकर उनका प्रजनन स्वास्थ्य जिसकी जरूरत सबसे बुनियादी है पूरी तरह उपेक्षित है। यह सिर्फ स्वास्थ्य की कहानी नहीं, बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना की कहानी है जो महिलाओं के शरीर से श्रम तो लेती है, लेकिन उसके बदले उसे कोई सुरक्षा नहीं देती।
इन महिलाओं का बड़ा हिस्सा प्रवासी परिवारों से आता है। वही, समुदाय जिन्हें समाज पहले से ही हाशिये पर रखता है। इसलिए, यह सवाल सिर्फ ‘महिला होने’ का नहीं, बल्कि ‘मजदूर महिला होने’ का है। उनका जेंडर, वर्ग और जाति तीनों मिलकर उनके लिए ऐसी स्थितियां तैयार करते हैं, जहां उनका स्वास्थ्य हमेशा आखिरी पायदान पर रहता है। सबसे पहला संकट तो निर्माण स्थल की बुनियादी सुविधाओं से ही शुरू हो जाता है। किसी भी निर्माण साइट पर जाएं, साफ पानी, सुरक्षा उपकरण और साफ शौचालय का नामोनिशान तक नहीं होता। पीरियड्स के दौरान यह अभाव और भी सोचनीय हो जाता है। निर्माण स्थल पर बातचीत के दौरान एक महिला बताती हैं कि उनके पास कपड़ा बदलने की जगह ही नहीं होती। उन्हें अधबने कमरों या टूटी दीवारों के पीछे छुपकर कपड़ा बदलना पड़ता है। यह भी तब जब कोई पुरुष मजदूर या ठेकेदार वहां भटक न रहा हो।
किसी भी निर्माण साइट पर जाएं, साफ पानी, सुरक्षा उपकरण और साफ शौचालय का नामोनिशान तक नहीं होता। पीरियड्स के दौरान यह अभाव और भी सोचनीय हो जाता है। निर्माण स्थल पर बातचीत के दौरान एक महिला बताती हैं कि उनके पास कपड़ा बदलने की जगह ही नहीं होती।
निर्माण स्थल पर काम करती महिलाएं और पीरियड्स
पीरियड्स की ऐसी परिस्थितियां न सिर्फ असहजता पैदा करती हैं, बल्कि संक्रमण की संभावना बढ़ाती हैं। यूटीआई, फंगल इंफेक्शन, पीरियड अनियमित होना और कमजोरी; ये सब लगभग हर मजदूर महिला अनुभव करती है, लेकिन इलाज तक पहुंचना बहुत कठिन है। डॉक्टर के पास जाना मतलब एक दिन का काम छोड़ना, और एक दिन का काम छोड़ना उनके लिए पूरे घर का राशन प्रभावित कर देता है। इसलिए वे दर्द और तकलीफ को सहने लायक मानकर आगे बढ़ती रहती हैं। हालांकि ये कोई स्वाभाविक बात नहीं। गर्भावस्था की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। निर्माण स्थल पर गर्भवती महिलाएं अक्सर भारी बोझ उठाती दिख जाती हैं। यह दृश्य पहली नज़र में ही असुरक्षित लगता है, मगर ठेकेदार और ठेकेदार की भाषा में काम करने वाले लोग इसे ‘सामान्य’ मान चुके हैं। कई महिलाएं अपनी गर्भावस्था छिपाती हैं, क्योंकि अगर वे बता दें कि वे गर्भवती हैं, तो उन्हें काम से निकाल दिए जाने का डर रहता है।
इस विषय पर गोमतीनगर के एक निर्माण स्थल पर काम करने वाली महिला मजदूर कविता (नाम बदला हुआ) बताती हैं, “अप्रैल की बात है काफी गर्मी और धूप हो रही थी और मैं गर्भवती थी लेकिन रोजी रोटी के लिए काम नहीं छोड़ सकती थी। और यहां कोई ऐसी बैठने की छाँव की व्यस्था भी नहीं है ना ही ठंठा पानी मिलता है। मुझे काम करते वक्त चक्कर आ गया और खूब उलटी हुई और पानी चलने लगा। ऐसे में जब अस्पताल पहुचे तो डॉक्टर बोली गर्मीं में काम करने की वजह से ऐसा हुआ है इन्हें भर्ती करना पड़ेगा। अब भर्ती करने के भी पैसे नहीं थे ठेकेदार से पति मांगे तो ठेकेदार बोला की तुम्हारी मेहरारु काम ही कितना करती थी। अभी पैसा नहीं हो पायेगा। किसी तरह पैसा जुटा कर मेरा इलाज हुआ।”
अप्रैल की बात है काफी गर्मी और धूप हो रही थी और मैं गर्भवती थी लेकिन रोजी रोटी के लिए काम नहीं छोड़ सकती थी। और यहां कोई ऐसी बैठने की छाँव की व्यस्था भी नहीं है ना ही ठंठा पानी मिलता है। मुझे काम करते वक्त चक्कर आ गया और खूब उलटी हुई और पानी चलने लगा।
गर्भावस्था और निर्माण काम में लगी महिलाएं
ऐसे में उनकी गर्भावस्था एक विशेष समय नहीं, बल्कि बोझ का कारण बन जाती है। साफ तौर पर यह व्यवस्था महिलाओं के शरीर को किसी मशीन की तरह देखती है। जब तक मशीन काम करती रहे, सब ठीक है; जैसे ही मशीन थोड़ी धीमी पड़े, उसे बदलने का फैसला कर लिया जाता है। शोध बताते हैं कि निर्माण-श्रम में लगी प्रवासी महिलाएं गर्भावस्था या बच्चों की देखभाल के मामले में स्वास्थ्य-सेवा लेने में बहुत पीछे हैं। इस विषय पर बिहार से प्रवास करके आई सरिता बताती हैं, “मेरी दीदी भी ईंट ढोने का काम करती थी। पिछले साल वो गर्भवती थी और काम करते-करते उसे चक्कर आ गया। तुरंत्त अस्पताल ले जाया गया और पता चला कि उनके बच्चे की मौत गर्भ में ही हो गई पर ठेकेदार ने इजाल के पैसे तक नहीं दिए।”
वहीं रीता बताती हैं, “दो बच्चा हुआ नहीं कि सब बोलने लगे कि नसबंदी करा लो। मर्दों को कोई कुछ नहीं कहता। औरत का शरीर ही बदलने की चीज़ है उनके लिए।” प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी एक और अनदेखी समस्या है परिवार नियोजन का दबाव। मजदूर महिलाओं पर परिवार नियोजन की सलाह या दबाव बहुत आम है। सरकारी स्वास्थ्यकर्मी अक्सर उन्हें नसबंदी के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन पुरुषों के लिए नसबंदी की बात कोई नहीं करता। यह काम सिर्फ महिलाओं का माना जाता है। इस जिम्मेदारी का अंजाम अक्सर महिलाओं को अपनी सेहत से चुकाना पड़ता है। यह बात सिर्फ परिवार नियोजन की नीति पर सवाल नहीं उठाती। यह उस मानसिकता पर भी सवाल उठाती है जो महिलाओं के शरीर को प्रयोग की जगह समझती है और पुरुषों की जिम्मेदारी को ज़ीरो कर देती है।
मेरी दीदी भी ईंट ढोने का काम करती थी। पिछले साल वो गर्भवती थी और काम करते-करते उसे चक्कर आ गया। तुरंत्त अस्पताल ले जाया गया और पता चला कि उनके बच्चे की मौत गर्भ में ही हो गई पर ठेकेदार ने इजाल के पैसे तक नहीं दिए।
क्या बच्चों की देखभाल महिलाओं की ही जिम्मेदारी है
निर्माण स्थल पर बच्चों की स्थिति भी महिलाओं की प्रजनन ज़रूरतों से जुड़ी हुई है। बच्चों को साथ लाना जरूरी होता है क्योंकि घर में उन्हें संभालने वाला कोई नहीं। कोई क्रेच नहीं, कोई सुरक्षित जगह नहीं—बच्चे धूल में खेलते, रोते या किनारे पड़े सोते रहते हैं। कई बार महिलाएं ईंट ढोते-ढोते बीच-बीच में बच्चे को देखते रहती हैं कि कहीं वह किसी गड्ढे में न गिर जाए। यह दोहरा बोझ है काम और बच्चों के देखभाल का जहां समाज या परिवार से उसे समर्थन और साथ नहीं मिलता। लेकिन समाज इस दोहरे श्रम को काम नहीं जिम्मेदारी मानता है।
इस अवैतनिक काम के लिए उन्हें उचित वेतन या सम्मान नहीं मिलता। सरकारी योजनाएं कागज़ पर हैं, लेकिन निर्माण स्थलों पर पहुंचती नहीं। मजदूर कार्ड, मातृत्व लाभ, स्वास्थ्य सुविधाएं सब कुछ कागज़ों तक सीमित है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं इन योजनाओं की हकदार तो हैं, लेकिन इन्हें पाने की प्रक्रिया इतनी जटिल और भ्रष्टाचार से भरी है कि वे हिम्मत ही नहीं करतीं। उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी भी बहुत कम होती है। न कोई एजेंसी उन्हें बताती है, न कोई यूनियन वहां सक्रिय दिखती है। ठेकेदार इस व्यवस्था की कमी का फायदा उठाते हैं, और मजदूर महिलाएं इसी चक्र में फंसकर रह जाती हैं।
असल में यह समस्या सिर्फ स्वास्थ्य का नहीं है। यह सत्ता, नियंत्रण, श्रम और शरीर की राजनीति की समस्या है। महिलाओं के शरीर को उनके अपने नियंत्रण से छीनकर श्रम बाजार के हवाले कर दिया गया है। पूंजीवादी व्यवस्था उन्हें सस्ती मजदूरी का साधन मानती है। वहीं पितृसत्ता उन्हें चुप रहने सिखाती है। दोनों मिलकर यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी आवाज़ न उठे, उनका शरीर थकता रहे और उनका श्रम चलता रहे। मजदूर महिलाओं का शोषण न सिर्फ उनके वर्ग और जेंडर से जुड़ा है, बल्कि ये जाति से भी जुड़ा है। इस शोषण को समझे बिना इस संकट का समाधान नहीं निकाला जा सकता। अगर हम सचमुच विकास की बात करना चाहते हैं, तो हमें मजदूर महिलाओं के स्वास्थ्य को ही नहीं उनके आर्थिक विकास को भी केंद्र बनाना होगा। उनकी मेहनत किसी भी शहर की नींव है। उनकी सुरक्षा, उनकी सुविधा और उनकी सेहत का ध्यान रखना सिर्फ उनकी जरूरत नहीं बल्कि समाज की जिम्मेदारी है। सुरक्षित शौचालय और साफ पानी की व्यवस्था, पीरियड्स में राहत, गर्भावस्था में हल्का काम, क्रेच सुविधा और यौन हिंसा के खिलाफ सख्त कानून उनके अधिकार हैं। जब तक हम इन अधिकारों को मान्यता नहीं देंगे तब तक सही मायने में समानता की बात हम नहीं कर सकते।

