भारत की प्रगति पर बातचीत में, हम अक्सर कहानी के गलत सिरे से शुरुआत करते हैं। हम उच्च शिक्षा, रोज़गार, नवाचार और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बारे में बड़े जोश से बात करते हैं। लेकिन, हमारे देश का भविष्य विश्वविद्यालयों या बोर्डरूम में शुरू नहीं होता। इसकी शुरुआत उन छोटे, रंगीन कमरों से होती है जहां छोटे बच्चे पढ़ना, लिखना, दुनिया पर भरोसा करना, दोस्ती निभाना, डर का इज़हार करना और खुशी की खोज करना सीखते हैं। असल मायनों में ये ही देश की असली संपत्ति हैं। प्री-स्कूल, जिन्हें भारत में प्ले स्कूल भी कहा जाता है, ज़्यादातर 3 से लेकर 6 साल की उम्र के बच्चों के लिए डे केयर, आफ्टर-स्कूल, प्लेग्रुप, नर्सरी और किंडरगार्डन जैसे कई तरह के कार्यक्रम प्रदान करते हैं।
पिछले कुछ सालों में इस उद्योग में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी देखी गई है, क्योंकि नई पीढ़ी के माता-पिता प्रारंभिक बचपन की शिक्षा के महत्व को समझ रहे हैं। भारत की प्री-स्कूल शिक्षा प्रणाली तेज़ी से विकसित हो रही है। ज़्यादा से ज़्यादा माता-पिता बच्चों के शुरुआती विकास में इसकी अहम भूमिका को समझ रहे हैं, इसलिए आजकल प्री-स्कूल, प्ले स्कूल और प्रारंभिक शिक्षा केंद्रों की मांग आसमान छू रही है। यही नहीं माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के लिए एक मज़बूत नींव प्रदान करने के लिए भरोसेमंद और गुणवत्तापूर्ण प्री-स्कूल की तलाश कर रहे हैं।
भारत की प्री-स्कूल शिक्षा प्रणाली तेज़ी से विकसित हो रही है। ज़्यादा से ज़्यादा माता-पिता बच्चों के शुरुआती विकास में इसकी अहम भूमिका को समझ रहे हैं, इसलिए आजकल प्री-स्कूल, प्ले स्कूल और प्रारंभिक शिक्षा केंद्रों की मांग आसमान छू रही है।
मज़बूत नीतियां, कमज़ोर सुरक्षा और आरटीई का उल्लंघन
प्री-स्कूलों की बढ़ती संख्या जहां कई तरह के अवसर प्रदान करती है। वहीं दूसरी ओर यह ऐसी चुनौतियां भी सामने लाती है, जो देश भर में समावेशी प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकती हैं। यहीं पर मानकीकरण की भूमिका आती है। यानी यह एक समान दिशानिर्देशों, ढांचों या मानदंडों का एक समूह स्थापित करने की प्रक्रिया है। जो प्रत्येक बच्चे के प्री-स्कूल अनुभव में एकरूपता, गुणवत्ता और समावेशिता सुनिश्चित करता है, क्योंकि हर एक बच्चा महत्वपूर्ण है। प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा कोई सहायक सेवा नहीं है। यह किसी देश का भावनात्मक, संज्ञानात्मक और सामाजिक आधार है और भारत में, यह आधार नीतिगत कमी के कारण नहीं, बल्कि प्री-स्कूल के अनियंत्रित व्यवसायीकरण के कारण खतरे में है। जबकि कागज़ों पर, भारत दुनिया के सबसे प्रगतिशील प्रारंभिक बाल्यावस्था ढांचों में से एक हैं ।
राष्ट्रीय प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा (ईसीसीई) नीति साल 2013, राष्ट्रीय ईसीसीई पाठ्यक्रम ढांचा, आधारभूत चरण के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ढांचा साल 2022, और आधारशिला पाठ्यक्रम साल 2024 मिलकर 3 से 6 साल की उम्र के बच्चों के लिए खासतौर पर बाल-केंद्रित रोडमैप की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं।एनईपीसाल 2020 इस चरण को 5+3+3+4 संरचना के महत्वपूर्ण आधार के रूप में मान्यता देता है। ये सब साल 2002 में86वें संशोधन के अनुच्छेद 45 में निहित संवैधानिक अधिदेश के तहत,केंद्र और राज्य स्तर पर सभी सरकारों को सभी बच्चों को 6 साल की उम्र पूरी होने तक प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा (ईसीसीई) प्रदान करना अनिवार्य है। हालांकि दस्तावेज़ मज़बूत हैं, लेकिन इनका ज़मीन स्तर पर लागू होना और उनकी निगरानी की व्यवस्था अभी भी बहुत कमजोर है। प्री-स्कूल एक प्रशासनिक ग्रे- क्षेत्र में हैं, जो महिला एवं बाल विकास विभाग और स्कूल शिक्षा विभाग के बीच लटका हुआ है।
इंडिया टुडे की साल 2025 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, महानगरों में निजी प्री-स्कूलों की औसत सालाना फीस अब लगभग 1.2 से 2.5 लाख रुपये के बीच पहुंच गई है। उच्च श्रेणी के स्कूलों में यह खर्च और बढ़ जाता है, जिसमें एडमिशन फीस, यूनिफॉर्म, परिवहन और गतिविधि शुल्क शामिल होते हैं। कुल मिलाकर सालाना लागत आसानी से 4 से 5 लाख रुपये तक पहुंच जाती है।
गुणवत्ता की निरंतर निगरानी के लिए किसी एक नियामक संस्था को अधिकार नहीं दिया गया है। इस शून्य में, निजी प्रीस्कूल और फ़्रैंचाइज़ी मॉडल तेज़ी से बढ़े हैं। ये स्कूल अक्सर विकासात्मक सिद्धांतों, सुरक्षा मानदंडों या शैक्षणिक नैतिकता के अनुरूप बन रहे हैं।शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम साल 2009, स्कूल-पूर्व शिक्षा के अधिकार (धारा 11) का केवल संक्षिप्त उल्लेख करता है, लेकिन इसके कार्यान्वयन के लिए कोई मानदंड या मानक स्थापित नहीं करता है, जबकि ईसीसीई नीति साल 2013 भी इसके कार्यान्वयन को कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं बनाती है। ईसीसीई का मौजूदा कार्यान्वयन भी महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (एमडब्ल्यूसीडी) औरशिक्षा मंत्रालय (एमओई) के बीच बंटा हुआ है, जहां एमडब्ल्यूसीडी राष्ट्रीय ईसीसीई नीति के मार्गदर्शन में अपने आंगनबाड़ी केंद्रों के माध्यम से कार्यक्रम चलाता है, जबकि शिक्षा मंत्रालय मौजूदा सरकारी स्कूलों में ईसीसीई कक्षाएं चलाता है।
बढ़ते स्कूलों के बावजूद शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट
कई भारतीय शहरों में, हर गली-नुक्कड़ पर अंतर्राष्ट्रीय, वैश्विक और प्रीमियम जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर नए-नए स्कूल खोले जाते हैं। स्कूलों के बाहर आकर्षक मार्केटिंग के लिए स्कूल को नए-नए रंगों से सजा रखा है। एडमिशन के समय स्कूल वाले अच्छा व्यवहार करते हैं । लेकिन इस चमकदार बाहरी आवरण और उदारता के पीछे एक परेशान करने वाली सच्चाई छिपी है। बढ़े स्कूल अपने स्कूलों की फ्रैंचाइज़ी लोगों को दे देते हैं, ताकि छोटे शहरों में भी उनके स्कूल खुल जाएं।फ्रैंचाइज़ी संचालित प्री-स्कूल श्रृंखलाएं कम निवेश, त्वरित शिक्षक प्रशिक्षण और पैकेज्ड पाठ्यक्रम प्रदान करती हैं। कहानी उद्यमिता की है, न कि प्रारंभिक बचपन के विकास की। पूंजी और जगह वाला कोई भी व्यक्ति प्री-स्कूल मालिक होने का दावा कर सकता है। कई केंद्रों में, शिक्षा को वर्कशीट, अंग्रेज़ी के पाठ और बनावटी मील के पत्थरों तक सीमित कर दिया जाता है। बचपन मानव विकास के उस नाज़ुक दौर के बजाय, जिसे विशेषज्ञता, संवेदनशीलता और गहन सम्मान की आवश्यकता होती है, एक विपणन, विक्रय और मापन का उत्पाद बन जाता है और प्रशिक्षण की कमी के कारण शिक्षक बाल-मनोविज्ञान को नहीं समझ पाते है।
भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को मोटी फ़ीस वसूलने वाले प्राथमिक स्कूलों में यह सोचकर भेजते हैं कि उन्हें अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा मिलेगी। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इनमें से आधे से ज़्यादा बच्चों को भारतीय भाषाओं में पढ़ाया जाता है।
महंगी फीस पर रिजल्ट अच्छा नहीं
इंडिया टुडे की साल 2025 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, महानगरों में निजी प्री-स्कूलों की औसत सालाना फीस अब लगभग 1.2 से 2.5 लाख रुपये के बीच पहुंच गई है। उच्च श्रेणी के स्कूलों में यह खर्च और बढ़ जाता है, जिसमें एडमिशन फीस, यूनिफॉर्म, परिवहन और गतिविधि शुल्क शामिल होते हैं। कुल मिलाकर सालाना लागत आसानी से 4 से 5 लाख रुपये तक पहुंच जाती है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम के तहत कैपिटेशन फीस को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है। लेकिन फिर भी अक्सर माता-पिता पर भारी स्वैच्छिक दान या विकास शुल्क देने का दबाव भी बनाया जाता है।
स्क्रॉल में छपे अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने वाले भारतीय अभिभावकों को अक्सर वह लाभ नहीं मिलता है, जिसके लिए वे भुगतान करते हैं। भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को मोटी फ़ीस वसूलने वाले प्राथमिक स्कूलों में यह सोचकर भेजते हैं कि उन्हें अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा मिलेगी। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इनमें से आधे से ज़्यादा बच्चों को भारतीय भाषाओं में पढ़ाया जाता है। भारतीय अभिभावक अक्सर बेहतर अंग्रेजी माध्यम शिक्षा, उच्च शैक्षणिक मानकों, बेहतर सुविधाओं और उच्च लागत के बावजूद बेहतर सामाजिक वातावरण की धारणाओं के कारण सरकारी की तुलना में निजी प्रीस्कूलों को चुनते हैं, जबकि सरकारी स्कूलों को शिक्षकों की अनुपस्थिति, खराब बुनियादी ढांचे और कम संरचित शिक्षण जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, प्री-स्कूल पंजीकरण के नियम केवल आंध्र प्रदेश, झारखंड, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में ही उपलब्ध हैं, लेकिन अन्य राज्यों में इन्हें पूरी तरह से विकसित या क्रियान्वित नहीं किया गया है।
कानूनी अस्पष्टताएं और ठोस कानूनों का अभाव
प्री-स्कूल रेगुलेशन के लिए भारत में कोई ठोस और अलग सा कानून नहीं है। इसी कारण स्कूल चलाने वाले अपनी मनमानी करते हैं। वे बच्चों को शिक्षण सब्जेक्ट न समझ कर पैसा प्रदान करने वाला ऑब्जेक्ट समझते हैं। यहां तक कि स्कूल पंजीकरण के लिए भी ठोस क़ानून की कमी के कारण राज्य मनमानी करते हैं। बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, प्री-स्कूल पंजीकरण के नियम केवल आंध्र प्रदेश, झारखंड, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में ही उपलब्ध हैं, लेकिन अन्य राज्यों में इन्हें पूरी तरह से विकसित या क्रियान्वित नहीं किया गया है।
राष्ट्रीय ईसीसीई परिषद की स्थापना साल 2014 में भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अंतर्गत एक राष्ट्रीय स्तर के संगठन के रूप में की गई थी। इसका उद्देश्य प्रशिक्षण प्रणालियां, पाठ्यक्रम ,ढांचा मानक और संबंधित गतिविधियां प्रदान करना और प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए क्रियात्मक अनुसंधान को बढ़ावा देना है। ईसीसीई नीति में, उपयुक्त प्राधिकारियों और राष्ट्रीय ईसीसीई परिषद के साथ-साथ राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को ऐसी निगरानी और पर्यवेक्षण की ज़रूरी व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। लेकिन इस सबके बावजूद स्कूल प्रशासन अपने हिसाब से स्कूल चलाते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति साल 2020 इन महत्वपूर्ण प्रारंभिक शिक्षा केंद्रों को विनियमित करने के लिए एक व्यापक ढांचे पर जोर दे रही है, जो वर्तमान में राज्य के दिशानिर्देशों, व्यावसायिक नियमों और पॉक्सो जैसे सामान्य बाल संरक्षण कानूनों के आधार पर चलाए जा रहे हैं।
कानून बनाने के प्रमुख कारण और आगे की राह
कानून बनाने का उदेश्य प्री-स्कूलों को व्यवसायों की जगह एक व्यवस्थित और शिक्षा पर ध्यान देने वाला क्षेत्र बनाना है। जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि वे युवा शिक्षार्थियों की मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करें और शिक्षा के संवैधानिक अधिकार को कायम रखें। भारतीय प्री-स्कूलों के लिए एक सख्त और ठोस कानून की आवश्यकता है ताकि शिक्षा की गुणवत्ता को मानकीकृत किया जा सके, बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके, माता-पिता को शोषण से बचाया जा सके और समान पहुंच की गारंटी दी जा सके, क्योंकि वर्तमान नियम खंडित हैं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति साल 2020 इन महत्वपूर्ण प्रारंभिक शिक्षा केंद्रों को विनियमित करने के लिए एक व्यापक ढांचे पर जोर दे रही है, जो वर्तमान में राज्य के दिशानिर्देशों, व्यावसायिक नियमों और पॉक्सो जैसे सामान्य बाल संरक्षण कानूनों के आधार पर चलाए जा रहे हैं।
प्री-स्कूल शिक्षा केवल बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा नहीं, बल्कि उनके भावनात्मक, सामाजिक विकास की नींव है। आज भारत में प्री-स्कूलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और माता-पिता इसकी महत्वता को भी समझ रहे हैं। लेकिन, इसके साथ-साथ गुणवत्ता, सुरक्षा और कानूनी मानकों की कमी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है। क्योंकि फ्रैंचाइज़ी मॉडल, महंगी फीस, शिक्षक प्रशिक्षण की कमी और कानूनी अस्पष्टताएं बच्चों के सही विकास और माता-पिता के विश्वास को प्रभावित कर रही हैं। इसीलिए यह ज़रूरी है कि प्री-स्कूलों को व्यवसाय की बजाय शिक्षा-केंद्रित क्षेत्र बनाया जाए। ठोस कानून लागू किए जाएं, बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, शिक्षकों को प्रशिक्षण और समर्थन मिले, और सभी बच्चों तक समान पहुंच सुनिश्चित हो। ताकि कोई भी बच्चा इससे बंचीत न रहे । जब हर एक बच्चे तक इसकी पहुंच होगी । तब ही भारत का युवा भविष्य मजबूत और समावेशी हो पाएगा।

