रैग पिकर्स या कचरा बीनने वाले किसी भी शहर की सफ़ाई व्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हैं। वे घरों, सड़कों और बाजारों से प्लास्टिक, कागज, धातु और अन्य रिसाइक्लेबल कचरा इकट्ठा करके उसकी छंटाई करते हैं और रीसाइक्लिंग के लिए भेजते हैं। इससे न सिर्फ शहर में कूड़े के ढेर कम होते हैं, बल्कि प्रदूषण भी घटता है और लैंडफिल का बोझ हल्का होता है। देश के तेजी से बढ़ते शहरीकरण के बीच कचरा प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है। इंटरनेशनल अलायंस ऑफ वेस्ट पिकर्स के अनुसार भारत में करीब 4 मिलियन लोग अनौपचारिक कचरा प्रबंधन क्षेत्र में काम करते हैं।
पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18 से पता चलता है कि अकेले भारत के शहरी वर्कफोर्स में लगभग 1.5 मिलियन कचरा बीनने वाले थे। अनौपचारिक रोजगार में महिलाएं: वैश्वीकरण और आयोजन (डब्ल्यूआईईजीओ) के अनुसार भारत में 2.2 मिलियन कचरा बीनने वाले हैं, जिनमें से 76.2 फीसद अनौपचारिक रूप से काम करते हैं। दिल्ली जैसे महानगरों में यह काम और भी महत्वपूर्ण है। डब्ल्यूआईईजीओ के 2019 के अध्ययन के अनुसार दिल्ली में हर दिन करीब 10,000–11,000 टन कचरा निकलता है। इसमें 2 से 3 लाख कचरा बीनने वाले प्रतिदिन 20–25 फीसद कचरे को रीसाइक्लिंग की प्रक्रिया में डालते हैं।
जब ठेकेदार की गाड़ी आती है, तो मेरे कूड़े का वजन अक्सर आदमी के कूड़े से कम निकलता है। आदमी ठेली लेकर जाता है, दूर-दूर तक कूड़ा उठाता है। हम औरतें बोरे में जितना उठा सकें, उतना ही लाती हैं। उनके पास ठेली है तो वजन ज़्यादा होता है, और पैसे भी। मैं औरत हूं, इसलिए ग्रुप में ही काम करती हूं और रात में कोठियों में नहीं जा सकती। इसी वजह से कमाई कम हो जाती है।
चिंतन इन्वाइरन्मेनल रिसर्च एण्ड एक्शन ग्रुप के एक अध्ययन के मुताबिक, इनमें लगभग 49 फीसद महिलाएं हैं। रैगया वेस्ट पिकर वे लोग होते हैं जो घरों, दफ़्तरों, बाज़ारों, सड़कों और लैंडफिल से कागज़, प्लास्टिक, धातु, बोतलें और अन्य रीसाइक्लिंग योग्य सामान चुनकर इकट्ठा करते हैं। फिर वे इस सामान को कबाड़ी, ठेकेदार या रीसाइक्लिंग कंपनियों को बेचते हैं। यही काम उनके और उनके परिवार की रोज़ी–रोटी का प्रमुख साधन होता है।

यह काम पूरी तरह अनौपचारिक क्षेत्र में होता है, इसलिए उन्हें न तय वेतन मिलता है, न सुरक्षा, न ही किसी तरह का सामाजिक लाभ। महिलाओं रैग पिकर्स की स्थिति और भी कठिन होती है। वे गरीबी, सामाजिक भेदभाव और लैंगिक असमानता तीनों कारकों के प्रभाव का सामना करती हैं। इस तरह कचरा बीनना उनके लिए सिर्फ एक काम नहीं, बल्कि जीवन चलाने का संघर्ष है।
कचरा प्रबंधन में वैतनिक असमानता
भारत के अनौपचारिक कार्यबल में महिलाओं की एक बड़ी संख्या काम करती है। कूड़ा प्रबंधन के क्षेत्र में भी महिलाओं की संख्या ज्यादा होने के बावजूद, टाइम्स ऑफ इंडिया की 2023 की एक रिपोर्ट बताती है कि उन्हें पुरुषों से औसतन 33 प्रतिशत कम मजदूरी मिलती है। यह अंतर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तरों पर महिलाओं के श्रम को महत्व न मिलना दिखाता है। दिल्ली में आईटीओ झुग्गी में रहने वाली 35 वर्षीय रुकसाना कई वर्षों से रैग पिकर के रूप में काम कर रही हैं। वे बताती हैं, “जब ठेकेदार की गाड़ी आती है, तो मेरे कूड़े का वजन अक्सर आदमी के कूड़े से कम निकलता है। आदमी ठेली लेकर जाता है, दूर-दूर तक कूड़ा उठाता है। हम औरतें बोरे में जितना उठा सकें, उतना ही लाती हैं। उनके पास ठेली है तो वजन ज़्यादा होता है, और पैसे भी। मैं औरत हूँ, इसलिए ग्रुप में ही काम करती हूँ और रात में कोठियों में नहीं जा सकती। इसी वजह से कमाई कम हो जाती है।”
वहीं दिल्ली के डीडीए पार्कों में अनुबंध पर काम करने वाली 45 वर्षीय अनीता जाटव मजदूरी के दूसरे पहलू की ओर इशारा करती हैं। वे बताती हैं, “ठेकेदार के हिसाब से हम सबको एक ही तय पैसा मिलता है। लेकिन आदमी कभी-कभी अधिकारियों के ऑफिस में जाकर कूड़ा उठाते हैं तो उन्हें हजार-दो हजार ज़्यादा मिल जाता है। और अगर मैं एक दिन नहीं आ पाती, तो मेरा पैसा दिन के हिसाब से काट लिया जाता है। आदमियों के साथ ऐसा कम होता है, इसलिए उनकी कमाई हमसे ज्यादा हो जाती है।” असल में यह अंतर सिर्फ वैतनिक भेदभाव का नहीं बल्कि सामाजिक स्तर पर मौजूद लैंगिक असमानता का प्रमाण है।
कूड़ा प्रबंधन के क्षेत्र में भी महिलाओं की संख्या ज्यादा होने के बावजूद, टाइम्स ऑफ इंडिया की 2023 की एक रिपोर्ट बताती है कि उन्हें पुरुषों से औसतन 33 प्रतिशत कम मजदूरी मिलती है। यह अंतर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तरों पर महिलाओं के श्रम को महत्व न मिलना दिखाता है।
अपने हर दिन के हिसाब से कूड़ा बीनकर मिलने वाले पैसे पर बात करते हुए बिहार की 40 वर्ष की रेशमा बताती हैं, “मैं दिल्ली में पिछले 15 साल से यह काम कर रह रही हूं। दोपहर 3 बजे झुग्गी से आकर यहां रात 1 बजे तक सड़क, दुकानों और कचरे के ढेरों से कूड़ा अलग करके एकठ्ठा करती हूं। जब रात में ठेकेदार की गाड़ी आती है तो बेचती हूं। मुझे 200-300 रूपए मिल जाते है लेकिन एक आदमी को मुझसे ज्यादा पैसा मिलता है क्योंकि वे दूर घूम-घूम कर गली-गली जाकर कूड़ा उठाते और बहुत सवेरे से काम करते हैं। मैं घरेलू काम जैसे खाना बनाकर काम पर आती हूं। पति मदद नहीं करते।”
असुरक्षित कार्यस्थल और रैग पिकर महिलाओं का संघर्ष भरा जीवन

पर्यावरण अनुसंधान एवं कार्य समूह चिंतन और एम्स के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, दिल्ली में कूड़ा बीनने वाली और नगरपालिका सफाई कर्मचारी महिलाओं को अपने कठोर काम की वजह से पुरुषों की तुलना में कई गुना अधिक स्वास्थ्य खतरा होता है। रिपोर्ट बताती है कि ऐसी महिलाओं में पुरुष सहकर्मियों की तुलना में फेफड़ों की कार्यक्षमता कम होने की संभावना छह गुना अधिक पाई गई। बिहार की 50 वर्षीय असमीन लगभग 20 वर्षों से दिल्ली में कूड़ा उठाने और छांटने का काम कर रही हैं। वे कहती हैं, “कूड़े की गंदगी से सांस लेने में दिक्कत होती है, लेकिन क्या करें, करना पड़ता है। पांच बच्चे हैं और पति नहीं हैं। पढ़ी-लिखी नहीं हूं। कोई और काम नहीं मिलता।” उनका अनुभव दिखाता है कि यह काम न सिर्फ शारीरिक रूप से कठिन है बल्कि आर्थिक कारणों से इसे छोड़ना भी मुश्किल है।
ठेकेदार के हिसाब से हम सबको एक ही तय पैसा मिलता है। लेकिन आदमी कभी-कभी अधिकारियों के ऑफिस में जाकर कूड़ा उठाते हैं तो उन्हें हजार-दो हजार ज़्यादा मिल जाता है। और अगर मैं एक दिन नहीं आ पाती, तो मेरा पैसा दिन के हिसाब से काट लिया जाता है। आदमियों के साथ ऐसा कम होता है।
देश में सुरक्षित कार्यस्थल की कमी आज भी एक बड़ी समस्या है। रैग पिकर महिलाओं के लिए तो यह और भी चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि उनका काम अधिकतर सार्वजनिक जगहों पर होता है, जहां लैंगिक भेदभाव, हिंसा और उत्पीड़न का खतरा अधिक रहता है। 18 वर्षीय सना परवीन बताती हैं, “मैं दिल्ली में पैदा हुई और बचपन से कूड़ा बीन रही हूं। रात-दिन दोनों समय काम करना पड़ता है। डर तो लगता है, लेकिन परिवार के लिए करना ही पड़ता है। कभी कोई बदतमीजी करता है तो हम ग्रुप में मिलकर रोक देते हैं। पुलिस से कभी मदद मिलती है, कभी नहीं। रात में पुलिस रहे तो थोड़ा कम डर लगता है।” यह अनुभव बताता है कि कूड़ा बीनने वाली महिलाओं के लिए स्वास्थ्य, सुरक्षा और सम्मानजनक कार्यस्थिति अभी भी बहुत दूर की चीज़ है। वहीं कार्यस्थल पर सुरक्षा पर बात करते हुए उत्तरप्रदेश की 30 वर्षीय सुनीता जो दिल्ली के डीडीए पार्कों में कूड़ा बीनने का काम करती हैं बताती हैं कि वैसे दिन में काम करते हुए तो डर नहीं लगता है लेकिन रात होते ही दिल्ली में होने का डर लगता और लगता कि जल्दी अंधेरा होने से पहले वे घर पहुंच जाएं।
नीतियों के बावजूद असमानता का सामना
सेज जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार रैग पिकर महिलाओं में खाद्य-असुरक्षा, अनियमित आय और गंभीर स्वास्थ्य जोखिम बहुत आम हैं। दिल्ली की आईटीओ झुग्गी में रहने वाली 16 वर्षीय दरख़शन बचपन से कूड़ा बीन रही है। वह बताती है, “मैं दोपहर से देर रात तक काम करती हूं। वाशरूम जाना हो तो मेट्रो वाले वाशरूम में 5 रुपये देने पड़ते हैं, वो भी सिर्फ 10 बजे तक खुला रहता है। उसके बाद हमें कहीं कोने या गाड़ी के पीछे छिपकर जाना पड़ता है। कई बार पैसों की वजह से देर तक रोककर रखना पड़ता है।” वहीं 22 वर्षीय फ़राना, जो शादीशुदा है और दो बच्चों की मां भी, बिहार से दिल्ली आकर रैग पिकर का काम कर रही है। वह कहती हैं, “यह काम करते हुए शर्म आती है। अगर कोई दूसरा काम मिले तो मैं वही करना चाहूंगी। बिहार में ससुराल वालों को नहीं पता कि मैं यह काम करती हूं।”

