ग्राउंड ज़ीरो से दिल्ली के कचरा प्रबंधन में लगी महिलाओं का होता शोषण और संघर्ष

दिल्ली के कचरा प्रबंधन में लगी महिलाओं का होता शोषण और संघर्ष

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट अनुसार भारत में 49 फीसद कचरा बीनने वाले महिलाएं हैं। लेकिन, वे पुरुषों की तुलना में 33 फीसद कम पैसे कमाती हैं। रैग या वेस्ट पिकर्स वे लोग हैं जो घरों, दफ़्तरों, बाज़ारों, सड़कों और लैंडफिल से कागज़, प्लास्टिक, धातु, बोतलें और अन्य रीसाइक्लिंग योग्य सामान चुनकर इकट्ठा करते हैं।

रैग पिकर्स या कचरा बीनने वाले किसी भी शहर की सफ़ाई व्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हैं। वे घरों, सड़कों और बाजारों से प्लास्टिक, कागज, धातु और अन्य रिसाइक्लेबल कचरा इकट्ठा करके उसकी छंटाई करते हैं और रीसाइक्लिंग के लिए भेजते हैं। इससे न सिर्फ शहर में कूड़े के ढेर कम होते हैं, बल्कि प्रदूषण भी घटता है और लैंडफिल का बोझ हल्का होता है। लेकिन आज देश के तेजी से बढ़ते शहरीकरण के बीच कचरा प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है। इंटरनेशनल अलायंस ऑफ वेस्ट पिकर्स के अनुसार भारत में करीब 4 मिलियन लोग अनौपचारिक कचरा प्रबंधन क्षेत्र में काम करते हैं।

पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18 से पता चलता है कि अकेले भारत के शहरी वर्कफोर्स में लगभग 1.5 मिलियन कचरा बीनने वाले थे। वहीं अनौपचारिक रोज़गार में महिलाएं: वैश्वीकरण और संगठन (डब्ल्यूआईईजीओ) के अनुसार भारत में 2.2 मिलियन कचरा बीनने वाले हैं, जिनमें से 76.2 फीसद अनौपचारिक रूप से काम करते हैं। दिल्ली जैसे महानगरों में यह काम और भी महत्वपूर्ण है। डब्ल्यूआईईजीओ के 2019 के अध्ययन के अनुसार दिल्ली में हर दिन लगभग 10,000 मीट्रिक टन कचरा निकलता है। अनुमानों के मुताबिक, दिल्ली में 2 से 3 लाख कचरा बीनने वाले हैं, जो कचरे को छांटते और रीसायकल करते हैं।

जब ठेकेदार की गाड़ी आती है, तो मेरे कूड़े का वजन अक्सर आदमी के कूड़े से कम निकलता है। आदमी ठेली लेकर जाता है, दूर-दूर तक कूड़ा उठाता है। हम औरतें बोरे में जितना उठा सकें, उतना ही लाती हैं। उनके पास ठेली है तो वजन ज़्यादा होता है, और पैसे भी। मैं औरत हूं, इसलिए ग्रुप में ही काम करती हूं और रात में कोठियों में नहीं जा सकती। इसी वजह से कमाई कम हो जाती है।

देश में इस क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी की बात करें, तो टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट अनुसार भारत में 49 फीसद कचरा बीनने वाले महिलाएं हैं। लेकिन, वे पुरुषों की तुलना में 33 फीसद कम पैसे कमाती हैं। रैग या वेस्ट पिकर्स वे लोग हैं जो घरों, दफ़्तरों, बाज़ारों, सड़कों और लैंडफिल से कागज़, प्लास्टिक, धातु, बोतलें और अन्य रीसाइक्लिंग योग्य सामान चुनकर इकट्ठा करते हैं। फिर वे इस सामान को कबाड़ी, ठेकेदार या रीसाइक्लिंग कंपनियों को बेचते हैं। यही काम उनके और उनके परिवार की रोज़ी–रोटी का प्रमुख साधन होता है।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए राखी यादव

यह काम पूरी तरह अनौपचारिक क्षेत्र में होता है, इसलिए उन्हें न तय वेतन मिलता है, न सुरक्षा, न ही किसी तरह का सामाजिक लाभ। महिलाओं रैग पिकर्स की स्थिति और भी कठिन होती है। वे गरीबी, सामाजिक भेदभाव और लैंगिक असमानता तीनों कारकों के प्रभाव का सामना करती हैं। इस तरह कचरा बीनना उनके लिए सिर्फ एक काम नहीं, बल्कि जीवन चलाने का संघर्ष है।

कचरा प्रबंधन में वैतनिक असमानता 

भारत के अनौपचारिक कार्यबल में महिलाओं की एक बड़ी संख्या काम करती है। कूड़ा प्रबंधन के क्षेत्र में भी महिलाओं की संख्या ज्यादा होने के बावजूद, महिलाओं को कम मजदूरी मिलती है। यह अंतर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तरों पर महिलाओं के श्रम को महत्व न मिलना दिखाता है। दिल्ली में आईटीओ झुग्गी में रहने वाली 35 वर्षीय रुकसाना कई वर्षों से रैग पिकर के रूप में काम कर रही हैं। वे बताती हैं, “जब ठेकेदार की गाड़ी आती है, तो मेरे कूड़े का वजन अक्सर आदमी के कूड़े से कम निकलता है। आदमी ठेली लेकर जाता है, दूर-दूर तक कूड़ा उठाता है। हम औरतें बोरे में जितना उठा सकें, उतना ही लाती हैं। उनके पास ठेली है तो वजन ज़्यादा होता है, और पैसे भी। मैं औरत हूँ, इसलिए ग्रुप में ही काम करती हूँ और रात में कोठियों में नहीं जा सकती। इसी वजह से कमाई कम हो जाती है।”

वहीं दिल्ली के डीडीए पार्कों में अनुबंध पर काम करने वाली 45 वर्षीय अनीता जाटव मजदूरी के दूसरे पहलू की ओर इशारा करती हैं। वे बताती हैं, “ठेकेदार के हिसाब से हम सबको एक ही तय पैसा मिलता है। लेकिन आदमी कभी-कभी अधिकारियों के ऑफिस में जाकर कूड़ा उठाते हैं तो उन्हें हजार-दो हजार ज़्यादा मिल जाता है। और अगर मैं एक दिन नहीं आ पाती, तो मेरा पैसा दिन के हिसाब से काट लिया जाता है। आदमियों के साथ ऐसा कम होता है, इसलिए उनकी कमाई हमसे ज्यादा हो जाती है।” असल में यह अंतर सिर्फ वैतनिक भेदभाव का नहीं बल्कि सामाजिक स्तर पर मौजूद लैंगिक असमानता का प्रमाण है।

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट अनुसार भारत में 49 फीसद कचरा बीनने वाले महिलाएं हैं। लेकिन, वे पुरुषों की तुलना में 33 फीसद कम पैसे कमाती हैं। रैग या वेस्ट पिकर्स वे लोग हैं जो घरों, दफ़्तरों, बाज़ारों, सड़कों और लैंडफिल से कागज़, प्लास्टिक, धातु, बोतलें और अन्य रीसाइक्लिंग योग्य सामान चुनकर इकट्ठा करते हैं।

अपने हर दिन के हिसाब से कूड़ा बीनकर मिलने वाले पैसे पर बात करते हुए बिहार की 40 वर्ष की रेशमा बताती हैं, “मैं दिल्ली में पिछले 15 साल से यह काम कर रह रही हूं। दोपहर 3 बजे झुग्गी से आकर यहां रात 1 बजे तक सड़क, दुकानों और कचरे के ढेरों से कूड़ा अलग करके एकठ्ठा करती हूं। जब रात में ठेकेदार की गाड़ी आती है तो बेचती हूं। मुझे 200-300 रूपए मिल जाते है लेकिन एक आदमी को मुझसे ज्यादा पैसा मिलता है क्योंकि वे दूर घूम-घूम कर गली-गली जाकर कूड़ा उठाते और बहुत सवेरे से काम करते हैं। मैं घरेलू काम जैसे खाना बनाकर काम पर आती हूं। पति मदद नहीं करते।”

असुरक्षित कार्यस्थल और रैग पिकर महिलाओं का जीवन 

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए राखी यादव

डाउन टू अर्थ में छपी एक रिपोर्ट अनुसार पर्यावरण रिसर्च और एक्शन ग्रुप चिंतन की स्टडी बताती है दिल्ली में शोध किए गए 75 प्रतिशत कचरा बीनने वालों, 86 प्रतिशत सफाई कर्मचारियों (नगरपालिका सफाईकर्मी) और 86 प्रतिशत सिक्योरिटी गार्ड्स का फेफड़ों का फंक्शन नॉर्मल नहीं था। इस विषय पर हमने बिहार के 50 वर्षीय असमीन जो लगभग 20 वर्षों से दिल्ली में कूड़ा उठाने और छांटने का काम कर रही हैं, समस्या को समझने की कोशिश की। वे कहती हैं, “कूड़े की गंदगी से सांस लेने में दिक्कत होती है, लेकिन क्या करें, करना पड़ता है। पांच बच्चे हैं और पति नहीं हैं। पढ़ी-लिखी नहीं हूं। कोई और काम नहीं मिलता।” उनका अनुभव दिखाता है कि यह काम न सिर्फ शारीरिक रूप से कठिन है बल्कि आर्थिक कारणों से इसे छोड़ना भी मुश्किल है।

ठेकेदार के हिसाब से हम सबको एक ही तय पैसा मिलता है। लेकिन आदमी कभी-कभी अधिकारियों के ऑफिस में जाकर कूड़ा उठाते हैं तो उन्हें हजार-दो हजार ज़्यादा मिल जाता है। और अगर मैं एक दिन नहीं आ पाती, तो मेरा पैसा दिन के हिसाब से काट लिया जाता है। आदमियों के साथ ऐसा कम होता है।

देश में सुरक्षित कार्यस्थल की कमी आज भी एक बड़ी समस्या है। कचरा प्रबंधन में काम कर रही महिलाओं के लिए तो यह और भी चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि उनका काम अधिकतर सार्वजनिक जगहों पर होता है, जहां लैंगिक भेदभाव, हिंसा और उत्पीड़न का खतरा अधिक रहता है। 18 वर्षीय सना परवीन बताती हैं, “मैं दिल्ली में पैदा हुई और बचपन से कूड़ा बीन रही हूं। रात-दिन दोनों समय काम करना पड़ता है। डर तो लगता है, लेकिन परिवार के लिए करना ही पड़ता है। कभी कोई बदतमीजी करता है तो हम ग्रुप में मिलकर रोक देते हैं। पुलिस से कभी मदद मिलती है, कभी नहीं। रात में पुलिस रहे तो थोड़ा कम डर लगता है।” यह अनुभव बताता है कि कूड़ा बीनने वाली महिलाओं के लिए स्वास्थ्य, सुरक्षा और सम्मानजनक कार्यस्थिति अभी भी बहुत दूर की चीज़ है। वहीं कार्यस्थल पर सुरक्षा पर बात करते हुए उत्तरप्रदेश की 30 वर्षीय सुनीता जो दिल्ली के डीडीए पार्कों में कूड़ा बीनने का काम करती हैं बताती हैं कि वैसे दिन में काम करते हुए तो डर नहीं लगता है लेकिन रात होते ही डर लगता है और लगता कि अंधेरा होने से पहले वे घर पहुंच जाएं।  

क्या रैग पिकर्स के लिए काफी हैं नीतियां

सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स, 2016 के अनुसार ‘वेस्ट पिकर’ वह व्यक्ति है जो अनौपचारिक रूप से कचरे से उपयोगी और रीसायकल होने वाली चीज़ें इकट्ठा करके बेचता है और इसी से अपनी आजीविका चलाता है। लेकिन, भारत के कानूनों में वेस्ट पिकर्स को मान्यता नहीं मिली है। इस वजह से उन्हें कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उनके बुनियादी अधिकारों की अनदेखी होती है, जबकि वे समाज के लिए जरूरी काम करते हैं। वेस्ट पिकर्स को अक्सर पुलिस और असामाजिक तत्व परेशान करते हैं क्योंकि उन्हें ग़लत तरीक़े से असामाजिक तत्व या चोर समझ लिया जाता है। देश के कई हिस्सों में नगरपालिका उन्हें कचरा जमा करने, छांटने और बेचने की अनुमति नहीं देती। ऐसे में उन पर भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत चोरी का आरोप भी लग सकता है।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए राखी यादव

सेज जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार रैग पिकर्स महिलाओं में खाद्य-असुरक्षा, अनियमित आय और गंभीर स्वास्थ्य जोखिम बहुत आम हैं। दिल्ली की आईटीओ झुग्गी में रहने वाली 16 वर्षीय दरख़शन बचपन से कूड़ा बीन रही है। वह बताती हैं, “मैं दोपहर से देर रात तक काम करती हूं। वाशरूम जाना हो तो मेट्रो वाले वाशरूम में 5 रुपये देने पड़ते हैं, वो भी सिर्फ 10 बजे तक खुला रहता है। उसके बाद हमें कहीं कोने या गाड़ी के पीछे छिपकर जाना पड़ता है। कई बार पैसों की वजह से देर तक रोककर रखना पड़ता है।” वहीं दो बच्चों की माँ 22 वर्षीय फ़राना बिहार से दिल्ली आकर कचरा प्रबंधन का काम कर रही हैं। वह कहती हैं, “यह काम करते हुए शर्म आती है। अगर कोई दूसरा काम मिले तो मैं वही करना चाहूंगी। बिहार में ससुराल वालों को नहीं पता कि मैं यह काम करती हूं।”

कचरा प्रबंधन की व्यवस्था में रैग पिकर महिलाएं सबसे बुनियादी और जरूरी भूमिका निभाती हैं, लेकिन उनका अपना जीवन असुरक्षा, कम मजदूरी, बीमारी और सामाजिक भेदभाव से घिरा रहता है। कोई भी शहर हर दिन उनके श्रम पर टिका है, लेकिन उन्हें न तो सुरक्षित कार्यस्थल मिलता है, न पर्याप्त मजदूरी, न ही सम्मानजनक व्यवहार। उनकी कहानियां साफ दिखाती हैं कि यह केवल आर्थिक संघर्ष नहीं, बल्कि लैंगिक असमानता, सामाजिक बहिष्कार और नीतिगत उदासीनता का मुद्दा है। जब तक कचरा प्रबंधन में काम करने वाली इन महिलाओं को औपचारिक मान्यता, सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और बराबर मजदूरी नहीं मिलेगी, तब तक शहरों की सफाई व्यवस्था अधूरी ही रहेगी। उनकी मेहनत को पहचानना, उनके अधिकारों को मजबूत करना और उनके श्रम को सम्मान देना शहरी विकास की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होनी चाहिए।

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