“आपने जेंडर आधारित हिंसा की बात की, महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा पर विस्तार से चर्चा की पर पुरुषों के खिलाफ़ भी तो हिंसा होती है, उनपर भी अत्याचार हो रहा है, उसके बारे में क्या? ”
“महिलाओं के खिलाफ़ तो हिंसा होती ही आ रही है, इसपर तो आए दिन न्यूज़ चैनल में, न्यूज़ पेपर में भी बात होती है, हम लोग भी उसी पर चर्चा कर रहे हैं। पर अब पुरुषों पर भी अत्याचार होता है। हमें उसपर भी बात करनी चाहिए कि कैसे पुरुषों को इस हिंसा से बचाया जा सके।”
“मैं आपका ध्यान अब पुरुषों पर होने वाली हिंसा पर लाना चाहता हूं, हर कोई सिर्फ महिलाओं पर होने वाली हिंसा की बात करता है पर आज के जमाने में पुरुष भी हिंसा के शिकार हो रहे हैं। ऐसा न हो आगे चलकर हमें बेटियों को नहीं अपने लड़कों को सुरक्षा दिलानी पड़े|”
“महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए कई अहम कानून बनाए गए हैं, लेकिन इन कानूनों का कई महिलाएं कितना गलत फायदा उठाती है। झूठे केस में अपने ससुरालवालों को फंसा देती है, अपने पुराने प्रेमियों पर जबरदस्ती करने का इलज़ाम लगाती है, इसपर बात करना भी जरुरी है।”
जेंडर के मुद्दों पर काम करते हुए अक्सर ये बातें सुनने को मिलती है, ऊपर लिखे तीन कथन महिलाओं के हैं जिनमें से एक प्राइवेट स्कूल की अध्यापिका है, एक बी.एड की छात्रा है, जो खुद को नारीवादी मानती हैं और तीसरी एक समाजसेविका है जो महिलाओं के साथ रोजगार संबंधित काम करती हैं, चौथा कथन एक पुरुष अध्यापक का। इसमें कोई दोराय नहीं है कि पुरुषों के ऊपर अत्याचार होता है| मैं इसे नकार नहीं रही हूं पर ये चारों कथन काफी हैरान और परेशान करते हैं और मेरी समझ के मुताबिक पितृसत्तामक सोच दर्शाते है। सबसे पहले आकंडों पर एक नज़र डालते हैं –
लड़कियों को ये चुनने की आज़ादी नहीं होती कि वो खाना बनाना चाहती है या नहीं पर ये एक आवश्यक गुण होता है जिससे सीखना उनके लिए ज़रूरी माना जाता है।
पिछले साल एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘थॉमस रॉयटर फाउंनडेशन’ के सर्वे में भारत को महिलाओं के रहने के लिए सबसे खतरनाक देश घोषित किया गया- जिसमें उन्होंने यौनिक हिंसा, सांस्कृतिक हिंसा और मानव तस्करी के बढ़ते मामलों पर रोशनी डाली दी। जाहिर सी बात है कि इस रिपोर्ट पर काफी विवाद हुआ, आपत्ति जताई गई, सर्वे के मानकों, पद्धति पर सवाल खड़े किए गए। हालांकि अगर नेशनल क्राइम ब्यूरो के आकंडे देखें तो भारत में महिलाओं के खिलाफ़ लगातार बढ़ रहे अपराधों की स्थिति को नकारना बेहद कठिन हो जाएगा। राष्ट्रीय आकंड़ों के मुताबिक साल 2016 में हर घंटे में 39 महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा, हर 13 मिनट में एक महिला बलात्कार की शिकार, हर रोज 6 महिलाओं के साथ गैंगरेप, हर घंटे में एक महिला दहेज-हत्या और हर महीने 19 महिलाएं एसिड अटैक के हत्थे चढ़ रही हैं। इसके अलावा घरेलू हिंसा, छेड़खानी, यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों में भी इज़ाफा हुआ है, गौर करने की बात ये है कि देश में महिलाओं के खिलाफ़ अपराध में 83 फीसद की बढ़ोतरी हुई है।
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ये आंकडें अपराध के रिपोर्टिंग पर आधारित है, हमें ये याद रखना चाहिए कि जिस समाज में हम रहते हैं वहां महिलाओं के लिए घर से बाहर निकलकर अपने ऊपर होनी वाली हिंसा के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज करना कितना मुश्किल है, कानून की जानकारी नहीं है, केस दर्ज कराना मतलब परिवार की इज्जत खराब करना, पुलिस का बेहद असंवेदनशील रवैया और बहुत कुछ। सबसे भयावक बात ये कि मेरे ऊपर हिंसा हो रही है इस बात को समझना और मैं इसके खिलाफ़ आवाज़ उठा सकती हूं और पुलिस में रिपोर्ट कर सकती हूं … को समझना और हिम्मत जुटाना बहुत ही कठिन हैं, क्योंकि बचपन से ही हमें एक अच्छी लड़की के ढांचे में रहकर अपने परिवार की प्रतिष्ठा बनाए रखने की ट्रेनिंग दी जाती है।
महिलाओं के खिलाफ़ होने वाली हिंसा पर बात करना क्यों जरुरी है? ये ऊपर दिए गए क्राइम ब्यूरो के आकंड़े साबित करने के लिए काफी है। फिर ऊपर दिए गए कथन से हम क्या समझें? क्यों महिलाएं अपनी जेंडर पहचान पर हो रहे अत्याचार को कम आंक रही है, क्यों वो इसे नार्मलाइज़ कर रही है? जब-जब मैं ये बातें सुनती हूं तो गुस्सा आता है, इन महिलाओं की नासमझी दिखती है, क्योंकि जब हम सामाजिक ढांचे की बात करते हैं तो हर कदम पर महिला और पुरुष में भेदभाव नज़र आता है चाहें वो खाना हो, गतिशीलता है, पहनावा हो, पढ़ने की बात हो, नौकरी करना, शादी की उम्र और पार्टनर का चुनाव हो- लड़कियों के पास लगभग किसी चीज का चुनाव करने का अधिकार ही नहीं है, ऐसे में अगर इस फर्क और हिंसा पर बातचीत नहीं होगी तो उसे कैसे चुनौती दी जाएगी? ये महिलाएं पितृसत्ता के ढांचे को देखकर भी नकारती है क्योंकि ढांचे में रहने के अपने फायदे हैं, जैसे ही ढांचा तोड़ा तो वो सवालों के घेरे में आ जाएंगे। पुरुष से स्वीकृति, एक अच्छी औरत बने रहने की फांस, जेंडर आधारित भेदभाव का हिस्सा बनकर वो महिला हिंसा से आंखे चुरा लेती है पर अपने आप को गैरबराबरी के चक्रव्यू में फंसा हुआ पाती है।
लड़कियों के पास लगभग किसी चीज का चुनाव करने का अधिकार ही नहीं है, ऐसे में अगर इस फर्क और हिंसा पर बातचीत नहीं होगी तो उसे कैसे चुनौती दी जाएगी?
सामाजिक बदलाव के एक सिद्धांत के मुताबिक समाज में गैरबराबरी की स्थिति इसलिए कायम नहीं रहती क्योंकि दमनकर्ता अत्याचार करता रहता है और दूसरा उसे सहता जाता है; बल्कि इसलिए भी क्योंकि पीड़ित इस अत्याचार को वैध मानने लगता और उसके खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठाता। पर जैसे ही वो अपने खिलाफ़ हो रहे अत्याचार को मान्यता नहीं देता और एक्शन लेता है तभी सामाजिक बदलाव की शुरुआत होती है। जाहिर सी बात है कि पितृसत्ता केवल पुरुषों के दम पर नहीं चलती इसमें महिलाओं का भी योगदान होता है – जिसपर हम शुरुआत से चर्चा कर रहे हैं, यानि महिलाओं पर होने वाली हिंसा को डाउनप्ले करना, नार्मलाइज़ करना और वहां से ध्यान हटाकर पुरुषों पर होने वाली हिंसा पर क्रेंदित करना।
एक रोचक उदाहरण दिल्ली की संस्था साहस द्वारा अध्यापकों के साथ जेंडर के मुद्दे पर आयोजित कार्यशाला से लेते हैं – जहां ‘घर में खाना पकाना, सिर्फ महिलाओं का काम है’ और ‘पुरुषों को रोना नहीं चाहिए’ पर चर्चा कर ये निर्णय लेने के लिए कहा गया कि क्या ये हिंसा है या नहीं? सभी ने एकमत होकर कहा, “पुरुषों को रोने नहीं दिया जाता तो भावनात्मक हिंसा है, अरे अगर कोई दर्द, तकलीफ होगी तो पुरुष रोएंगे ही, उन्हें अपनी भावनाएं दबाने के लिए कहा जाता है तभी तो वो कठोर हो जाते हैं और कई बार ये गुस्से में तब्दील हो जाती है। जैसे औरतों को अपनी भावनाएं व्यक्त करने का अधिकार है वैसे ही पुरुषों को भी है।”
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वहीं दूसरे समूह के मुताबिक “महिलाओं पर खाना बनाने की जिम्मेदारी होना हिंसा नहीं है, ये हिंसा तभी मानी जाएगी जब जोर जबरदस्ती उनसे खाना बनवाया जाए। अगर पुरुष नौकरी करेगा तो महिला क्या घर में खाली बैठेगी?”
सोचिए आज से दस साल तक आपको कह दिया जाता है कि आप तीन वक्त का खाना बनाएंगे, खाने का सामान खुद लाएंगे, हर मौसम में आप स्वस्थ्य हो, बीमार हो, कहीं बाहर जाएं या नहीं खाना आपको ही बनना है और इसके लिए आपको एक रुपया नहीं मिलेगा – तब क्या ये हिंसा में आएगा?
ये बात सुनते ही कमरे में सन्नाटा पसर जाता है, ऐसा लगा है मानो सांप सूंझ गया हो। जाहिर सी बात है बचपन से ही जब लड़कियों को बार-बार जताया जाता है कि ‘जाओ किचन में जाकर खाना बनाना सीख लो’, ‘पढ़ाई कर लो पर खाना बनाना भी आना चाहिए ससुराल वाले तुम्हारी पढ़ाई नहीं खाएंगे’ या फिर ‘पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है’– लड़कियों को ये चुनने की आज़ादी नहीं होती कि वो खाना बनाना चाहती है या नहीं पर ये एक आवश्यक गुण होता है जिससे सीखना उनके लिए ज़रूरी माना जाता है। सोचने वाली बात ये भी है कि घर में हर रोज सभी परिवारवालों के लिए तीन वक्त का खाना, अनगिनत बार चाय/कॉफी बनाने वाली महिला को एक रुपया नहीं मिलता पर वहीं जब पुरुष बड़े होटल में बतौर शैफ की तरह काम करते हैं तब पैसे के साथ साथ उन्हें काफी शोहरत भी मिलती है।
अगली बार जब कोई आपसे ये कहे कि ‘महिलाओं की हिंसा की बात तो कर रहे हैं पर पुरुषों के साथ भी तो हिंसा होती है’, मुझे पूरा विश्वास है कि आपके पास उन्हें बताने के लिए कई तर्क जरुर होंगे।
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तस्वीर साभार : The Citizen
Thank you for this article. I see a lot of people on the internet that downplay women’s struggle.
Some people these days don’t want to support feminism. After spending a lot of time on the internet I found 3 reasons why these people don’t support feminism:
1. It talks a lot about issues faced by women but not about issues faced by men.
2. Or they think that Women have already achieved equality.
3. Or they think that women are completely happy living under patriarchy so they don’t need feminism.
Even though women basically have to live like a maid in their houses, they have to always be vigilant when they go out, there are many rapes that happen everyday and still women are blamed if it happens to them, they are not safe in public transport from harassment and groping, they don’t have financial freedom and have to completely depend on their husband for money etc. they still don’t understand why we need feminism.