इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाओं की भागीदारी के बिना जलवायु संकट से निपटना मुश्किल है

महिलाओं की भागीदारी के बिना जलवायु संकट से निपटना मुश्किल है

यूएन की रिपोर्ट के अनुसार महिलाएँ सबसे अधिक पर्यावरण के प्रति जागरुक होती हैं। वे सतत तरीके से जीने में विश्वास रखती हैं।

बीता सितंबर महीना जलवायु परिवर्तन की बहस को लेकर काफी ख़ास और सुर्ख़ियों में रहा। पूरी दुनिया में एक साथ जलवायु संकट के खिलाफ पहली बार लाखों लोग सड़क पर उतरे और जलवायु हड़ताल में शामिल हुए। ऐसे वक्त में जब जलवायु परिवर्तन को लेकर बहस तेज है तो यह जरुरी हो जाता है कि महिला आंदोलनों को भी इस लड़ाई में शामिल किया जाये। यह समझना जरुरी है कि चाहे सामाजिक न्याय की बात हो, विकास या शांति का मुद्दा हो या फिर जलवायु परिवर्तन की बहस हो। इतना तय है कि हम अगर बदलाव लाना चाहते हैं तो इन सारी बहसों और संघर्षों में हमें महिलाओं को प्राथमिकता देना ही होगा।

कई ऐसे रिसर्च यह साबित कर चुके हैं कि जलवायु परिवर्तन का महिलाओं पर अधिक असर होता है। एक अध्ययन के मुताबिक साल 2050 तक जलवायु परिवर्तन से 150 मिलियन लोग प्रभावित होंगे, जिसमें 80 फ़ीसद महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर विकासशील देशों पर हो रहा है। ये देश सूखा, बाढ़, असामान्य मौसम, बढ़ता तापमान, भूंकप जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सबसे अधिक सामना कर रहे हैं। इन आपदाओं की वजह से इन इलाकों में रोजगार, पलायन और स्वास्थ्य का संकट भी तेज़ी से बढ़ रहा है। एक बड़ी आबादी जो गरीब है वो इन जलवायु संकटों की वजह से गंभीर स्थिति में पहुंच गयी है। आईयूसीएन की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के 70 फ़ीसद गरीब महिलाएँ हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर वे जलवायु संकट से सबसे अधिक प्रभावित होती हैं।

चिपको आंदोलन के दौरान महिला कार्यकर्ता

विकासशील देशों में हम पहले ही महिलाओं के साथ हर क्षेत्र में भेदभाव के गवाह रहे ही हैं। उन्हें नौकरी के अवसरों या शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर भी कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। विकासशील देशों में महिलाएं घरेलू श्रम पर अधिक समय देती है, जिससे स्कूली शिक्षा के लिए उन्हें समय नहीं मिलता। साथ ही रोजगार के अवसर भी उनके पास नहीं रहते। इससे तात्पर्य है कि उनके पास भूमि, धन और टेक्नोलॉजी पुरुषों की तुलना में कम पहुंच पाती है। संसाधनों पर भी महिलाओं का अधिकार न के बराबर है।

ऐसे में जलवायु संकट के समय महिलाएँ सबसे अधिक कमजोर स्थिति में खुद को पाती हैं। ऐसी आपदाओं के प्रति वे अधिक संवेदनशील होती हैं। पलायन या फिर जीविका के अभाव में उन्हें यौन उत्पीड़न, मानसिक यातनाएं, मौखिक दुर्व्यवहार और घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है।

ग्रामीण महिलाओं की बात करें तो ज्यादातर महिलाएँ खेती या फिर जंगल पर जीविका के लिए निर्भर होती हैं। मर्द ज्यादातर शहर की तरफ बड़ी नौकरियों के लिये पलायन कर जाते हैं। ऐसे में महिलाएँ ही खेती की जिम्मेवारी संभालती हैं। लेकिन लगातार जंगलों की कटाई और खेती की भूमि का खत्म होते जाने की स्थिति में उनकी जीविका पर संकट पैदा हो जाता है। ऐसी स्थितियों में उन्हें शहर की तरफ पलायन करना पड़ता है और वहां पर कथित स्किल नहीं होने की वजह से उन्हें बेरोजगारी का सामना करना पड़ता है।

जलवायु संकट के समय महिलाएँ सबसे अधिक कमजोर स्थिति में खुद को पाती हैं।

इसी तरह वायु प्रदूषण जैसी स्थिति में भी महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। रिपोर्ट बताते हैं कि महिलाओं और बच्चों पर खराब हवा की वजह से कई तरह की स्वास्थ्य संकट का खतरा रहता है। गर्भवती महिलाओं पर भी वायु प्रदूषण का असर अधिक है। भारत या विकासशील देशों में महिलाओं को ही घरेलू कामों से लेकर बच्चों तक की देखभाल की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में अगर बच्चे लगातार खराब हवा की चपेट में आकर बीमार पड़ते हैं तो पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर आ जाती है और उन्हें अपना काम या कैरियर छोड़कर बच्चों और परिवार की देखभाल करनी पड़ती है। 

लेकिन यूएन की रिपोर्ट के अनुसार महिलाएँ सबसे अधिक पर्यावरण के प्रति जागरुक होती हैं। वे सतत तरीके से जीने में विश्वास रखती हैं। अगर हम भारत के पर्यावरण आंदोलनों को देखेंगे तो पायेंगे कि सबसे अधिक महिलाओं ने ही पर्यावरण की लड़ाईयां लड़ी हैं। देश का पहला पर्यावरण आंदोलन माना जाने वाला चिपको आंदोलन महिलाओं के नेतृत्व में ही लड़ा गया। अभी भी देशभर में चल रहे जंगल-जमीन बचाने की लड़ाई में महिलाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। चाहे वो नर्मदा बचाओ आंदोलन हो, चाहे ओडिशा का नियामगिरी आंदोलन या पोस्को। हर जगह महिलाओं ने जंगल-जमीन बचाने की लड़ाई में अगुवाई की है। वे जेल गयी हैं, सड़कों पर विरोध जताया है और प्राकृतिक संसाधनो के दोहन पर आधारित विकास का मुखर विरोध किया है।

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लेकिन दिक्कत यह है कि जब बात जलवायु संकट से निपटने के लिए नीतियों को बनाने की होती है तो उसमें महिलाओं की हिस्सेदारी कम हो जाती है। कई ऐसे पर्यावरण से जुड़े सम्मेलनों की तस्वीरें देखने को मिलती है जिसमें शायद ही महिलाओं को जगह दिया जाता है। जरुरत है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बनाये जाने वाली नीतियों में, कार्यक्रमों या अभियानों में महिलाओं को अधिक से अधिक भागीदारी दी जाए उनके मुद्दे को प्राथमिकता दी जाये।

यह जरुरी है कि जलवायु नीतियों को बनाने में महिला और पुरूष दोनों को समान रुप से भागीदारी मिले।

आज जलवायु संकट से निपटने के लिए लोगों औऱ समुदायों को नीतियों में शामिल करना और उन्हें भागीदार बनाना बेहद अहम है। समुदाय को जागरुक करने से लेकर संवेदनशील बनाने तक महिलाओं की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। किसी भी तरह की कार्ययोजना को तबतक जमीन पर नहीं उतारा जा सकता, जब तक महिलाओं को उसमें शामिल नहीं किया गया हो। पारपंरिक रूप से भी महिलाएँ पर्यावरण को लेकर अधिक ज्ञान और सतत विकास का नज़रिया रखती हैं, इसलिये जरुरी हो जाता है कि उनको जलवायु परिवर्तन से निपटने वाली कार्ययोजना में शामिल किया जाये।

यह जरुरी है कि जलवायु नीतियों को बनाने में महिला और पुरूष दोनों को समान रुप से भागीदारी मिले। आर्थिक रुप से भी जलवायु संकट से निपटने में महिलाओं को अधिक सशक्त बनाने की जरुरत है और उन्हें सामान अवसर मुहैया कराने की जरुरत है।लेकिन फिलहाल जेंडर सामनाता को ही स्वीकार नहीं करने वाली पुरुष सत्ता, महिलाओं को जलवायु के बहस में अगुवाई देने के लिये शायद ही तैयार हो। बाक़ी उम्मीद पर तो दुनिया क़ायम है।

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तस्वीर साभार : baltimoresun

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