इंटरसेक्शनल भीमा कोरेगांव का इतिहास : दलितों का जीता हुआ पहला युद्ध

भीमा कोरेगांव का इतिहास : दलितों का जीता हुआ पहला युद्ध

भीमा कोरेगाव की लड़ाई भारत के इतिहास का एक ज़रूरी हिस्सा है, जिसने सदियों से लांछित, शोषित और वंचित होते वर्ग के शोषकों को करारा जवाब दिया।

1 जनवरी 2018 की बात है। महाराष्ट्र के पुणे से कुछ दूरी पर स्थित भीमा कोरेगाव में लाखों दलित एकत्रित हुए थे यहां पर 200 साल पहले लड़ी गई ऐतिहासिक जंग की स्मृति में। यहां स्थित विजय स्तंभ के सामने एकत्रित इन सभी के नेतृत्व में थे गुजरात के दलित युवा नेता जिगनेश मेवाणी और महाराष्ट्र के ‘वंचित बहुजन आघाडी’ के नेता, डॉ आंबेडकर के पोते, प्रकाश आंबेडकर।

एक दिन पहले ही, यानी 31 दिसंबर 2017 में पुणे में ‘एल्गार परिषद’ रखा गया था। इस जंग के 200 साल पूरे होने पर रखा गया सांस्कृतिक कार्यक्रम। शनिवारवाडा किले के ठीक सामने ये कार्यक्रम रखा गया, जो इस जंग में हारने वाले पेशवाओं का गढ़ हुआ करता था। इस कार्यक्रम में जिगनेश मेवाणी और प्रकाश आंबेडकर के अलावा मौजूद थे जेेएनयू के छात्र नेता उमर ख़ालिद, दलित छात्र शहीद रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला, आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी और कई और कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी जो दलित, बहुजन, आदिवासियों के हित में काम करते हैं। कार्यक्रम के हिस्से के तौर पर राधिका वेमुला ने कुछ मिट्टी के घड़े तोड़े, जो ब्राह्मणवाद के प्रतीक माने गए थे। जिगनेश मेवाणी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किताब ‘कर्मयोग’ से वो हिस्सा पढ़कर सुनाया जहां ये कहा गया था कि दलितों के लिए सवर्णों का शौच साफ़ करना एक ‘आध्यात्मिक अनुभव’ है और इसकी कठोर आलोचना हुई।

दूसरे दिन जब भीमा कोरेगाव के विजय स्तंभ के पास सब इकट्ठे हुए थे, अचानक भगवा झंडे लिए एक गिरोह ने उन पर हमला बोल दिया। इस भीड़ ने वहां मौजूद लोगों पर पत्थरबाज़ी की, जातिवादी गालियां दी और लाठियां बरसाईं। कई लोग घायल हुए और 26 वर्षीय राहुल फाटंगले को अपनी जान भी देनी पड़ी। इसके कुछ ही समय बाद जिगनेश मेवाणी पर भड़काऊ बयान देने के आरोप में एफ़आईआर दर्ज किया गया और एल्गार परिषद में मौजूद कई कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को UAPA क़ानून के तहत गिरफ्तार किया गया। भीमा कोरेगाव में हिंसा से जुड़े दो नाम सामने आए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) कार्यकर्ता संभाजी भिडे और स्थानीय हिंदू नेता मिलिंद एकबोटे।

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क्या है भीमा कोरेगाव का इतिहास? क्यों ये दलित इतिहास का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है और क्यों कट्टर हिंदुत्ववादी ताक़तों से ये हज़म नहीं होता?

19वीं सदी तक महाराष्ट्र में पेशवाओं का शासन था। पेशवा ब्राह्मण थे और राजा यानी छत्रपति के मंत्री हुआ करते थे। धीरे-धीरे जब छत्रपतियों का शासन कमज़ोर होता गया, पेशवाओं का वर्चस्व बढ़ता गया और जल्द ही वही शासक बन गए। शासक के तौर पर पेशवा बहुत क्रूर थे। उनके शासनकाल में दलित बहुजनों को ख़ासकर ‘महार’ जात के लोगों को, जाति के आधार पर कठोर भेदभाव और अन्याय का सहन करना पड़ा। उनके साथ जानवरों से बदतर व्यवहार किया जाता था। इसी वजह से कई दलित बहुजन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के वफ़ादार हो गए। वे ब्रिटिश सेना में सिपाहियों के तौर पर काम करने लगे क्योंकि अंग्रेज़ों के कारण न सिर्फ़ उन्हें जातिवादी ज़ुल्मों से छुटकारा मिला था बल्कि इन ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ खुद की रक्षा करने और खुद को सशक्त करने का मौका भी मिला। अंग्रेज़ सेना में रहते उन्होंने लड़ना सीखा। आधुनिक हथियारों का प्रयोग सीखा, जिसके ज़रिये वे पेशवाओं को करारा जवाब दे सकते थे। जो करने का मौक़ा उन्हें मिला साल 1818 में।

1 जनवरी 1818 में अंग्रेज़ों ने पेशवाई पर हल्ला बोल दिया। तब पेशवा बाजीराव द्वितीय का शासनकाल था। आक्रमण की ख़बर सुनते ही बाजीराव ने 5000 पलटनें भिजवा दीं पर जैसे ही उन्हें पता चला कि अंग्रेज़ों के पास महज़ 800 पलटनें हैं, उन्होंने अपने सैन्यों को वापस बुलवा लिया और तक़रीबन 2000 या 2500 पलटनों को आगे भेजा। पर यही 800 पलटनें उन पर बहुत भारी पड़नेवाली थीं।

भीमा कोरेगाव की लड़ाई भारत के इतिहास का एक ज़रूरी हिस्सा है, जिसने सदियों से लांछित, शोषित और वंचित होते वर्ग के शोषकों को करारा जवाब दिया।

ब्रिटिश सेना की इन पलटनों में ज़्यादातर सैन्य महार जाति के थे। पेशवा के ख़िलाफ़ उन्हें अपना बदला लेने का मौक़ा मिल गया था। आधुनिक हथियारों में अपने प्रशिक्षण और सदियों के गुस्से और बदले की भावना का फ़ायदा उठाकर उन्होंने पेशवाई सेना को तहस नहस कर दिया। महाराष्ट्र में पेशवाई शासन वहीं ख़त्म हुआ और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का राज शुरू हुआ। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था कि दलितों की सेना ने ब्राह्मणों को युद्ध में हराया हो। ये जीत सिर्फ़ पेशवाओं पर ही नहीं बल्कि सदियों से चलती आ रही मनुवादी और ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था पर थी।

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जिस जगह पर ये जंग लड़ी गई थी, वहीं महार सैनिकों के स्मरण में एक विजय स्तंभ बनाया गया। 1 जनवरी 1927 में डॉ आंबेडकर इन सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए भीमा कोरेगाव आए थे और तभी से लेकर आज तक हर साल इस तारीख़ पर पूरे महाराष्ट्र से लोग इस ऐतिहासिक घटना को याद करने के लिए यहां पर आते हैं। ज़ाहिर है कि सवर्ण हिन्दुओं से ये चीज़ बर्दाश्त नहीं होती कि दलित बहुजन उनकी ग़ुलामी करने के बजाय अपनी पहचान का दावा कर रहे हैं। उनके अधीन रहने की जगह राजनैतिक और सामाजिक सत्ता हासिल करने के लिए एकजुट हो रहे हैं। इसीलिए हिंदुत्ववादी संगठन और नेता उन पर हमला करते हैं, उनकी जानें लेते हैं। और उनके पक्ष में बोलनेवाले नेताओं, कलाकारों, कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को राष्ट्र ‘देशद्रोही’ घोषित करके दण्डित करता है।

भीमा कोरेगाव की लड़ाई भारत के इतिहास का एक ज़रूरी हिस्सा है। इसे इस तरह से नहीं देखा जाना चाहिए कि भारतीयों ने अंग्रेज़ों की मदद लेकर अपने ही देशवासियों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी। बल्कि इसकी ख़ासियत ये है कि सदियों से लांछित, शोषित और वंचित होते आ रहे एक वर्ग ने अपने शोषकों को उन्हीं की भाषा में करारा जवाब दिया। जहां हमारे देश में ब्राह्मणवाद आज भी नस नस में भरा हुआ है, इन ऐतिहासिक घटनाओं को याद करते रहना बेहद ज़रूरी है जहां दलितों ने अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष किया हो और अपने सामाजिक अधिकार हासिल किए हों।

हमारे देश में इतिहास सिर्फ़ सवर्ण अभिजात हिंदुओं की नज़रों से ही पढ़ाया जाता है। हम दलित, बहुजन, आदिवासी या अल्पसंख्यकों के संघर्षों के बारे में बहुत कम जान पाते हैं। एक ख़ास तबके के नैरेटिव को ही असली इतिहास माना जाता है और बाकी समुदायों के अनुभव, उनकी कहानियां अनसुने रह जाते हैं। सामाजिक बराबरी हम तभी ला सकते हैं जब इन सबके संघर्षों और अनुभवों से हम वाक़िफ़ हों और एक ख़ास वर्ग के नैरेटिव को ही सच्चाई मानना बंद कर दें।

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तस्वीर साभार : livehindustan

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