हाल ही में एमज़ॉन प्राइम पर रिलीज़ हुई फ़िल्म शकुंतला देवी ने लगभग हर उम्र के दर्शकों का दिल जीत लिया। जहां बच्चे इस फ़िल्म को अचंभे से देखते हैं वहीं बड़े इस फ़िल्म में ढेर सारा मनोरंजन पाते हैं। लेकिन ये मेरा नारीवादी चश्मा ही है जिसके ज़रिये मैं फ़िल्म के हर पहलू को समझ पाने की कोशिश में लगी रही। यह फिल्म भारत की पहली मशहूर महिला गणितज्ञ शकुंतला देवी के जीवन पर आधारित है। फिल्म में दिखाया गया है कि किस प्रकार एक साधारण दिखने वाली लड़की असाधारण रूप से गणित के कठिन से कठिन सवाल कंप्यूटर से भी तेज़ हल कर लेती है और इंसानी कंप्यूटर होने की उपाधि पाती हैं।
इस फ़िल्म की शुरुआत फ़्लैशबैक से की जाती है जहां हम एक नाराज़ बेटी को देखते हैं और सभी दर्शक मन में सोचते हैं की ये मां और बेटी का रिश्ता गणित के बीच कैसे गया? आगे बढ़ते हुए हम बचपन की शकुंतला देवी को देखते हैं जो बेफ़िक्र घर के चबूतरे पर खेलती हुई एक मिनट में गणित का कठिन सवाल ज़ुबानी हल कर लेती है। उस सीन को देख कर हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किस प्रकार शकुंतला देवी को एक दिन अपनी इस योग्यता का आभास हुआ होगा।
जब शकुंतला देवी के पिता उसकी इस प्रतिभा को घर की कमाई का एकमात्र साधन बना लेते हैं तो हम देखते हैं की पहले से निडर और बेबाक़ शकुंतला और अधिक निर्भीक होकर पितृसत्ता पर पहला सवाल अपनी मां से करती हैं। वह अपनी मां से पूछती हैं कि पिता के आगे उनका मुहं बंद क्यों रहता है? एक दृश्य में बचपन की शकुंतला देवी यह कहते हुए नज़र आती हैं कि ‘वो मेरे अप्पा नहीं हैं, मैं उनकी अप्पा हूं, दूसरे घरों में अप्पा कौन होता है? जो काम करता है पैसे कमाता है, घर चलाता है, तो हमारे घर के अप्पा कौन?’ इस सवाल ने मुझे अंदर तक भेद दिया, कई कारणों से।
मैं शकुंतला देवी के जवाब तक तो खुश थी, लेकिन इस डायलॉग ने मुझे यही बताया की आख़िर सत्ता का लेना-देना आर्थिक स्थिति से होता है, पूंजीवादी पितृसत्ता से। जब छोटी शकुंतला देवी समझती है की उनकी प्रतिभा के पैसों से घर चल रहा है तो वह स्वयं को अप्पा मानती हैं। हालाकि समाज के बनाए ये पितृसत्तात्मक नियम आज भी मर्दों को ही कमाने के लिए प्रेरित करते हैं, उकसाते हैं इसीलिए जो कमाता है वही घर का ‘पुरुष हुआ’ वाली सोच पैसे कमाने की प्रक्रिया को एक ही जेंडर को सौंप देती है।
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मर्दों के स्पेस में महिला की जगह
फ़िल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं हम देखते हैं की कैसे अकेली शकुंतला देवी पुरुषों के सामने जब अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करती हैं तो ये पुरुष असहज दिखते हैं और खिल्ली उड़ाकर महिला को नीचा दिखाने में समझदारी समझते हैं। हालांकि शकुंलता देवी जब सवाल हल करती हैं तो यही मर्द ताली बजाते हुए भी नज़र आते हैं। इस फ़िल्म में दिखता है कि किस प्रकार समाज को एक निडर और आत्मनिर्भर महिला रास नहीं आती। एक दृश्य में ताराबाई यह सच बयान करती हैं कि ‘एक लड़की जो अपने मन की सुनती है, दिल खोल के हंसती हैं मर्दों के लिए उस से ज़्यादा डरावना और क्या हो सकता है?’ बेशक क्योंकि सामाजिक सतह तक जाती इस फ़िल्म ने बताया कि आमतौर पर लड़कियां बस घर चलाती हुई नज़र आती हैं पैसे कमाते हुए नहीं। इस फ़िल्म की खासियत में और भी कई चीज़ें शुमार होती हैं।
एक दृश्य में ताराबाई ये सच बयान करती हैं कि ‘एक लड़की जो अपने मन की सुनती है, दिल खोल के हंसती हैं मर्दों के लिए उस से ज़्यादा डरावना और क्या हो सकता है?’
शादी के सबंध में अपनी पहचान ढूंढ़ना
शादी के बाद जब शकुंतला देवी अपनी बेटी की तरबियत में मसरूफ़ हो जाती हैं तब अचानक से उन्हें अपन अस्तित्व खोता नज़र आता है। उन्हें एहसास होता है कि कब कैसे उन्होंने अपनी खुद की बनाई हुई शख्सियत को खो दिया। लेकिन वह यह तय करती हैं की ऐसा नहीं होगा, इसलिए एक बार फिर से वह निकल पड़ती हैं अपने नंबरों की दुनिया में! लेकिन एक दिन अपने मातृत्व के कारण शकुंतला देवी फ़ैसला करती हैं की वह अब अपनी बेटी से और दूर नहीं रहेंगी चाहे वो जहां भी जाए उनकी बेटी उनके साथ जाएगी।
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मां-बाप के फ़ैसलों के बीच जूझता बचपन
अचानक से इस फ़िल्म ने मुझे ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा दिया जहां मैं सिर्फ़ अनुपमा (शकुंतला देवी की बेटी) के दुख से दुखी थी। मुझे लगा कि फ़िल्मी अंदाज़ में मेरे दिमाग़ को कहीं न कहीं मां के नाम पर गैसलाइट किया गया, ये समझाया गया कि मां तो ग़लत ही रहती है चाहे वो कैसी भी परवरिश करे। लेकिन मैंने जब मानसिक स्वास्थ्य की गंभीरता के चश्मे से इस फ़िल्म को देखना शुरू किया तो जाना की किस तरह एक बेटी का बचपन अपने पिता की चिट्ठियों के इंतज़ार में और अपनी मां को छोड़कर न जा पाने के एहसास में बीत जाता है! ऐसे में उस बच्चे के दिमाग़ पर क्या और कैसा असर हुआ होगा जिसे ममता की आड़ में हमारे सामने पेश किया गया। जब शकुंतला देवी यह सवाल उठाती हैं कि अगर उनका पति एक मशहूर गणितज्ञ होता तो समाज उनसे उम्मीद करता उनके साथ रहने की और आख़िर क्यों उनके पति उनका साथ नहीं दे सकते? यह देखना की किस प्रकार बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को अक्सर मां-बाप के फ़ैसलों के तहत मुश्किलों से गुज़ारना पड़ता है मेरे लिए वह बहुत दुखद था।
मां को नहीं देखा औरत की नज़रों से
आगे चलकर जब शकुंतला देवी की बेटी शादी करती है और अपनी मां से सारे संबंध तोड़ देती है, तब शकुंतला देवी को अपनी मां से नाराज़गी का एहसास होता है कि वह कितनी ग़लत थी और कितने अरसे तक इस गुस्से में वह जीती रही क्योंकि उनकी विकलांग बहन के स्वास्थ्य पर उनका पितृसत्तात्मक घर खर्चा नहीं करता और न ही शकुंतला देवी की मां कभी इसका विरोध कर पाई। इस पछतावे में शकुंतला देवी आखिरकार अपनी खुद की बेटी से दोबारा जुड़ती हैं और हमें एक फ़िल्मी मिलाप दिखाया जाता है। अनुपमा कहतीं हैं ‘मैंने मां को मां की तरह देखा औरत की तरह नहीं।’ तब ये फ़िल्म मां-बेटी के रिश्ते में एक नारीवादी रिश्ता जोड़ देती है एक-दूसरे के संघर्षों को समझ पाने का रिश्ता।
एक्टिंग और डायरेक्शन
फिल्म में विद्या बालन का अभिनय बेहद पसंद किया जा रहा। फिल्म के सभी कलाकार अपने-अपने किरदार में रमे हुए से नज़र आते हैं। लेकिन कहीं न कहीं फ़िल्म पर बॉलीवुड का असर दिख ही जाता है। खासकर जहां शकुंतला देवी लंदन के तौर तरीके सीखते-समझते नज़र आती हैं। हालांकि असल ज़िन्दगी में भी शकुंतला देवी खुश-मिजाज़ रही हैं इसीलिए विद्या बालन का हंसमुख अभिनय वाकई इस किरदार के साथ इंसाफ़ करता है।
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