फ़िल्म गुंजन सक्सेना: द करगिल गर्ल, पूर्व हेलिकॉप्टर पायलट और एयरफोर्स अधिकारी गुंजन सक्सेना ( रिटायर्ड) की बायोग्राफी है। फ़िल्म में गुंजन सक्सेना का किरदार जाह्नवी कपूर ने निभाया है। उनके अलावा पंकज त्रिपाठी उनके पिता की भूमिका में हैं। मानव विज, विनीत कुमार सिंह और अंगद बेदी भी इस फ़िल्म में सपोर्टिंग रोल में हैं। सीधे तौर पर अगर कास्ट को देखें तो गुंजन सक्सेना के जीवन को दिखाने में चार मर्दों को प्रमुख रूप से जाह्नवी के इर्द- गिर्द रखा गया है। गुंजन के पिता, उनके भाई और उनका कमांडिंग अफ़सर। एक सशक्त महिला के किरदार में गुंजन की मां की भूमिका लगभग नगण्य ही है। यह बात सीधे तौर पर खटकती है।
गुंजन सक्सेना: द करगिल गर्ल की कहानी एक कुशल पायलट और एयरफोर्स अधिकारी की कहानी है, जिसके केंद्र में खुद गुंजन और उसके पिता हैं। गुंजन अपने सपनों को पिता से साझा करती है, उनका सहयोग लेती है और टूटने पर बिखरती नहीं है क्योंकि उनके पिता उनके साथ हैं। यह कहीं से भी स्त्री उन्मुक्तता में कमज़ोर पहलू नहीं है। नारी मुक्ति पुरूष के ख़िलाफ़ अथवा पुरुष के बगैर समाज की कल्पना से उपजी अवधारणा नहीं है। नारी मुक्ति मर्दवाद और रूढ़िवादी नियमों को तोड़ने से होगी और इस फ़िल्म में गुंजन अपने पिता के साथ रूढ़ियों को तोड़ती है।
यह कहानी ऐसी लड़की की कहानी है, जो सपने देखती है,सपनों को पूरा करने का हौसला रखती है,टूटती है और उठकर फिर से जूझने का जज़्बा रखती है। बचपन में प्लेन में बैठने के बाद गुंजन पायलट बनने का सपना देखने लगती है। तब उसका भाई पितृसत्ता के कारण मज़ाक उड़ाते हुए कहता है कि गुंजन की जगह किचन में है। जहां गुंजन के पिता अनूप सक्सेना (पंकज त्रिपाठी) अपने बेटे को रोकते हुए बताते हैं कि ‘प्लेन चाहे लड़का उड़ाए या लड़की कहलाता पायलट ही है, और जब प्लेन को फ़र्क़ नहीं पड़ रहा तो तुमको क्यों पड़ रहा है बरखुरदार’। असल में यह केवल डायलॉग भर नहीं है, यह शुरुआती दौर में ही पितृसत्ता और भेदभाव को एक पिता द्वारा रोकने और बच्चों को पितृसत्ता से अलग करने का प्रयास है। यह समानता स्थापित करने की ओर बढ़ाया गया एक कदम है, जिसकी शुरुआत केवल घर से ही हो सकती है क्योंकि शोषण का प्राथमिक केंद्र परिवार ही है। यहां पिता के रूप में पंकज त्रिपाठी हमेशा की तरह बेहतरीन लग रहे हैं। सामान्य डायलॉग के साथ उनकी बात आसानी से दर्शकों पर पहुंचती है।
गुंजन के पिता (पंकज त्रिपाठी) अपने बेटे को रोकते हुए बताते हैं कि ‘प्लेन चाहे लड़का उड़ाए या लड़की कहलाता पायलट ही है और जब प्लेन को फ़र्क़ नहीं पड़ रहा तो तुमको क्यों पड़ रहा है बरखुरदार’।
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फ़िल्म देशभक्ति पर अलग तरह से अपना पक्ष रखती दिखती है। वर्तमान समय में विश्व भर में दक्षिणपंथी सरकारों का उदय हो रहा है। अमेरिका से लेकर ब्राज़ील तक और भारत में भी देशभक्ति के पैमाने तय किए जा रहे हैं। मीडिया,अकेडमिया और सार्वजनिक रूप से ‘एंटीनेशनल’ जैसे शब्द बड़ी तेज़ी से प्रयोग में लाए जा रहे हैं। स्थिति यह हो गई है कि कभी अगर कोई ‘स्वघोषित देशभक्त’ आपको भारत माता की जय बोलने के लिए कहे और आप न बोलें तो आपकी लिंचिंग’ हो जाना भी अप्रत्याशित नहीं है। ऐसे में पंकज त्रिपाठी का यह कहना कि देशभक्त होने का मतलब ‘भारत माता की जय’ चिल्लाते रहना भर नहीं है बल्कि अपने काम के प्रति ईमानदार और जिम्मेदार होना है। आज का दौर जब सत्ता पर कब्ज़ा जमाए समूह और लोग अपने आप को देश का पर्याय बताने लगे हैं और सच बोलने, लिखने और पढ़ने वालों को देश की सुरक्षा का तर्क देकर गिरफ़्तार किया जा रहा है, विरोध और अभिव्यक्ति की आवाज़ें राष्ट्र के नाम पर दबाई जा रही हैं, पंकज त्रिपाठी का यह संवाद बहुत ज़रूरी संदेश दे जाता है।
जाह्नवी कपूर ने गुंजन के किरदार को बख़ूबी निभाने की कोशिश स्पष्ट तौर पर दिखती है। एयरफोर्स अधिकारी के रूप में वो खटकती नहीं हैं। हालांकि एकाध जगह पर कहानी में ग़ैर ज़रूरी नाटकीयता बोझिल लगती है। मसलन, एक कैंडिडेट जो पायलट बनने के लिए सभी मुश्किलों से लड़ रही है, उसे ज़रूरी नियम तक मालूम नहीं हैं या एयरफोर्स के उम्मीदवार को अपने देश के मौजूदा हालात की कोई जानकारी न होना भी खटकता है।
गुंजन के रास्ते में बहुत सारी रुकावटें हैं। भारत में सदा से महिलाओं को कमतर आंका जाता रहा है। वे ‘नर्चरिंग’ स्वभाव की मानी जाती हैं। खाना बनाने से लेकर सेवा करने और ध्यान रखने तक ही उनकी भूमिकाएं सीमित की गई हैं। भले ही इंदिरा गांधी ने दो दशक पहले ही देश का सर्वोच्च शक्तिशाली पद संभाला हो, तब भी भारतीय जन मानस महिला को सेवाधर्मी स्वभाव से इतर देखने का आदी नहीं हो पाया था। अक्सर ही, महिलाओं की गाड़ी चलाने के तरीके को लेकर मज़ाक बनाया जाता है। आज भी इसपर ‘मीम’ शेयर किए जाते हैं। आज भी आम जनमानस में महिलाओं को बौद्धिक रूप से कमतर और मानसिक रूप से अस्थिर माना जाता है। निश्चित तौर पर गुंजन को तमाम रूढ़ियां झेलनी पड़ी होंगी। उधमपुर बेस पर तैनात वे पहली महिला अधिकारी थीं। वे जगहें, जिन्हें पुरुषों का स्पेस माना गया हो, वहां गुंजन के ‘स्पेस रीक्लेम’ करने की यात्रा आसान नहीं रही होगी, लेकिन यह उनके आत्मविश्वास,पिता का भावनात्मक सहयोग और अन्य प्रगतिशील पुरुषों की सहायता से संभव हुआ होगा,इसमें कोई दो राय नहीं है। इन सभी चीज़ों को फ़िल्म में दिखाने का प्रयास किया गया है।
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फ़िल्म सुरक्षा का हवाला देकर महिलाओं की स्वतंत्रता को सीमित करने जैसे प्रचलित पारिवारिक मान्यताओं को भी उभारती है। गुंजन का भाई अंशुमन सक्सेना (अंगद बेदी) उसके पिता से कहता है कि उन्होंने अपनी बेटी को असली दुनिया नहीं दिखाई है,देर रात तक बाहर रहना या घर से दूर किसी शहर में रहना सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है। वह गुंजन से भी कहता है कि दुनिया नहीं बदल सकती, यह गुंजन को समझना चाहिए। यह सोच भारत के अधिकतर परिवारों की है,जो सुरक्षा के सहारे अपने घर की महिलाओं की स्वतंत्रता बाधित करते हैं और अपनी कुंठाओं को अभिव्यक्त करते हैं।
यह फ़िल्म भाई और अन्य पुरुषों की ‘सेवियर’ भूमिका को भी चकनाचूर करती है। वहीं, गुंजन की मां जो उसके पायलट बनने के सपने के साथ नहीं हैं लेकिन वे पितृसत्तामक भी नहीं हैं, वे चाहती हैं उनकी बेटी पढ़ाई पूरी करे। असल में, उनका अपना दर्द उभरकर सामने आता है,जब वे कहती हैं,’हमें पढ़ने का मौका नहीं मिला।’ यह आज के भारत की हर मिडल क्लास मां का डर है,जो चाहती है उसकी बेटी उसका जीवन न जिए बल्कि किसी पर आश्रित न होकर अपने लिए रास्ते बनाए। उनका डर ही है जो शिक्षा की कमी के कारण ज्योतिष के पास जाकर मन को तसल्ली करना चाहता है। वहीं जब बेटी मेडल पहनती है तो वे निडर होकर खिलखिला देती हैं।
सबसे बड़ी बात जो खटकती है, वह यह है कि गुंजन सक्सेना करगिल गर्ल कही जाती हैं, करगिल में भारत-पाक युद्ध के दौरान वहाँ तैनात पहली महिला थीं, उन्होंने 500 से अधिक घायल सैनिकों को द्रास इत्यादि जगहों से निकालने, सेना को ज़रूरी सामग्री पहुंचाने और दुश्मनों के ठिकाने ढूंढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसे विस्तृत रूप से दिखाया जाना चाहिए था। गुंजन सक्सेना की इन कामयाबियों के बारे में बमुश्किल से तीन से चार मिनट का सीन फ़िल्म में है,जो भारत की पहली महिला पायलट के समर्पण को आखिर में लाकर छोड़ देता है। असल में, एक पुरूष का समूचा श्रम अपने आप को स्थापित करने भर का होता है जबकि एक महिला को परिवार,समाज से जूझना होता है,तब कहीं जाकर वह अपने लक्ष्य को पाने के बारे में सोच पाती है, इसीलिए करगिल में उनकी भूमिका और मज़बूती से दिखाई जानी चाहिए थी।
गुंजन सक्सेना पहली महिला हैं जिन्हें करगिल में उनके योगदान के लिए शौर्य चक्र से नवाज़ा गया है। फ़िल्म में यह नहीं दिखाया गया है। मूल रूप से, कई चीज़ें जिनका गुंजन सक्सेना के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है, वे फ़िल्म में आने से रह गई हैं। यह निश्चित तौर पर एक बार देखी जाने लायक फ़िल्म है लेकिन कहानी और निर्देशन के मामले में निश्चित तौर पर मैरी कॉम जैसी बायोग्राफी से पीछे रह जाती है।
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तस्वीर साभार: cinemaexpress
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