बलात्कार के ख़िलाफ हमारे देश में मौजूद कानून को दिल्ली में साल 2012 में हुए गैंगरेप की घटना के बाद से बेहद सख्त बनाने की जो शुरुआत हुई थी, वह कवायद अब तक जारी है। हालांकि सख्त कानून बनाए जाने के बाद भी हमारे देश में बलात्कार की घटनाओं में कमी देखने को नहीं मिल रही है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक भारत में पिछले 17 सालों में बलात्कार के मामलों में 103 फ़ीसद की बढ़ोतरी हुई। जहां साल 2001 में बलात्कार के 16,705 मामले थे, वहीं 2017 में ये आंकड़ा 32,559 तक पहुंच गया था।
एनसीआरबी के आंकड़े यह भी कहते हैं कि हर दिन औसतन 67 औरतें बलात्कार की शिकार हुई है। दूसरे शब्दों में कहे तो, पिछले 17 सालों में हर घंटे 3 औरतों का बलात्कार हुआ है। ये आंकड़े पूरी सच्चाई नहीं बताते। इन आंकड़ों में बलात्कार की कोशिश से जुड़े मामलों को शामिल नहीं किया जाता। ये सिर्फ वह आंकड़े होते हैं जिनके ख़िलाफ शिकायत दर्ज की जाती है। साल 2018 में हुए थॉम्पसन रॉटर्स फाउंडेशन के सर्वे के अनुसार, लैंगिक हिंसा के भारी जोखिम की वजह से भारत पूरे विश्व में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों के मामले में पहले पायदान पर था।
रिसर्च बताती है कि बलात्कार के बढ़ते हुए इन मामलों के पीछे कई सारी वजह है। मसलन ढीली न्याय प्रणाली, कम सजा दर, महिला पुलिस की कमी, फ़ास्टट्रैक अदालतों का अभाव, दोषियों को सज़ा का न मिलना आदि। इन सबके बीच एक बहुत बड़ी वजह है महिलाओं की तरफ हमारे समाज और देश का नज़रिया, जो आज भी लड़कियों को लड़कों से कम समझता है। इसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह है हमारे घरों में बचपन से होने वाला लैंगिक भेदभाव। बचपन से ही हमारे घरों में लैंगिक असमानता की यह भावना पैदा की जाती है। यह सिखाया जाता है कि लड़कियां बोझ होती हैं। इसलिए मां-बाप को लड़कियां बेटों से कम भाती है। यही बात बच्चे भी बचपन से ही सीख जाते हैं। लड़कियां चुपचाप सब की बात मानना सीख जाती हैं और लड़के अपने मन में ये मान लेते है कि उनकी इच्छाएं, उनके विचार, लड़कियों की तुलना में ज्यादा महत्पूर्ण हैं। अपनी इसी भावना को वो बलात्कार जैसे अपराध करके जाहिर करते है।
आज भी ये मानसिकता है कि अगर कोई लड़की अपने मन-मुताबिक अपना जीवन व्यतीत करना चाहेगी जो समाज की सोच से मेल न खाती हो, तो फिर बलात्कार करना मानो लड़कों का अधिकार बन जाता है।
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इसके अतिरिक्त बढ़ते हुए इन मामलों के पीछे एक बहुत बड़ी वजह है हमारी पुलिस व्यवस्था। आज भी हमारे देश में पुलिस पर 1861 का कानून लागू होता है। इस कानून को अंग्रेज़ों ने इसलिए बनाया था ताकि भारतीयों पर पुलिस की लाठी की मदद से ठीक प्रकार से शासन किया जा सके। अंग्रेज़ तो चले गए लेकिन ये कानून नहीं गया और आज इस कानून की मदद से भारतीय सरकार देश की जनता को नियंत्रित करती है। जिस कानून का मकसद पुलिस को एक माध्यम के तौर पर उपयोग करना हो, क्या उस देश में पुलिस आम व्यक्ति की मदद कर पाएगी ? उनके पास वक़्त ही नहीं बचता अपराधों की ठीक प्रकार से जांच-पड़ताल करने का और अगर कोई पुलिस वाला करना भी चाहे तो उसे हतोत्साहित करने के लिए काफी है – हमारी न्यायिक व्यवस्था।
हमारी न्यायिक व्यवस्था इतनी मजबूत ही नहीं है कि वह लगातार बढ़ते हुए इन बलात्कार के मामलों को निपटा सके। एक तरफ जहां न्यायाधीशों की कमी के चलते मामले सुनवाई तक पहुंच ही नहीं पाते। वहीं दूसरी तरफ सबूतों के अभाव में अपराधी बहुत आसानी से छूट जाते है। पूरी न्यायिक प्रणाली आज भी 20वीं शताब्दी के ढर्रे पर चलती नज़र आती है जो अब तक शायद तकनीक से दोस्ती नहीं कर पाई है।
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साल 2012 में दिल्ली में हुए गैंगरेप के मामले के बाद जहां सरकार ने फ़ास्ट-ट्रैक अदालतों को मंजूरी दी थी, वह भी अब तक पूर्ण रूप से मुमकिन नहीं पाया है। आज की तारीख में हमारी न्यायिक प्रणाली पूर्ण रूप से अक्षम नज़र आती है बढ़ते हुए इन मामलों को निपटाने में। इस आग में घी का काम करता है हमारी न्याय प्रणाली से जुड़े लोगों की पिछड़ी मानसिकता ने जो बार-बार मामले के सुनवाई के दौरान दिए जाने वाले तर्कों से झलक ही जाती है। ऐसे मामलों की सुनवाई के दौरान हमें कई बार न्याय प्रणाली की तरफ से ही ऐसे तर्क सुनने को मिल जाते हैं, ‘लड़की ही झूठ बोल रही होगी’, ‘लड़की की बात पर यकीन मत करो’, वगैरह-वगैरह। हमारी सुस्त न्याय प्रणाली और पुलिस व्यवस्था मिलकर अपराधियों को बेख़ौफ़ कर देते हैं। यही निडरता ऐसे मामलों को दिन-प्रतिदिन बढ़ा रही हैं।
हमारे देश का सामाजिक माहौल भी इन बढ़ते हुए मामलों के लिए जिम्मेदार हैं। आज भी ऐसे अपराधों के बाद पीड़िता की तरफ उंगली उठती हैं, जिससे ऐसे क्रूर अपराध करने वालों के मन में खौफ नहीं बल्कि हिम्मत और बढ़ती हैं। दिल्ली 2012 गैंग रेप के बाद समाज के एक बहुत बड़े वर्ग ने कुछ इस प्रकार के सवाल उठाए थे, ‘इतनी शाम को घर से निकली ही क्यों थी, जो लड़का उसका पति नहीं था, वह उसके साथ कैसे शाम को निकल गई।” बीबीसी के एक डाक्यूमेंट्री जिसमे पीड़िता का बलात्कार करने वाले आरोपियों से बात की गई थी, उसमें एक आरोपी ने यह कहा की 7 बजे के जो लड़कियां घर से बाहर निकलती हैं वे अच्छे लड़कियां नहीं होती और ऐसी लड़कियों का तो बलात्कार ही चाहिए। उनकी इसी बात का समर्थन करता नज़र आता है हमारा यह पितृसत्तात्मक समाज।’
साफ़तौर पर आज भी ये मानसिकता है कि अगर कोई लड़की अपने मन-मुताबिक अपना जीवन व्यतीत करना चाहेगी जो समाज की सोच से मेल न खाती हो, तो फिर बलात्कार करना मानो लड़कों का अधिकार बन जाता है। जब तक पुरुष बलात्कार करना अपना अधिकार मानेगा, तब तक इन मामलों में कभी कमी नहीं आ पाएगी। बदलाव की ज़रूरत है मानसिकता में जो हमारे समाज में बलात्कार की संस्कृति को सींचते हैं।
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तस्वीर साभार : अर्पिता विश्वास