मर्दानगी क्या होती है? कुछ ऐसी विशेषताएं या गुण जो हम एक लड़के या पुरुष में होने की उम्मीद रखते हैं। जैसे कि बहादुर होना, गुस्सा होना, आक्रामक होना, कठोर होना, भावनाहीन होना, आदि। इसी प्रकार की रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक सोच ही हिंसक मर्दानगी की अवधारणा को बढ़ावा देने की जड़ है। जब परिवार और समाज मिलकर पुरुषों से ये उम्मीद रखता है कि वे ही रक्षा करेंगे, वे ही सबका पेट भरेंगे, वे ही सारी जिम्मेदारियां उठाएंगे, वे ही सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर घर का नेतृत्व करेंगे। तब हमारा घर और समाज हिंसक मर्दानगी की परिभाषा को मज़बूती देता है। मर्दानगी की यह परिभाषा हमारे समाज के मर्दों को ‘एक इंसान’ के तौर पर नहीं देखती।
“लड़के रोते नहीं हैं“
हमारे घर से शुरू हुई मर्दानगी की परिभाषा लड़कों को मजबूर करती है अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त न करने के लिए। ऐसा तो है नहीं कि लड़के के अंदर भावनाएं नहीं होती हैं। दूसरों की तरह वे भी अपनी भावनाओं को अनुभव करते हैं लेकिन बचपन से उन्हें उनकी भावनाओं को दबाने का, न बताने का ज्ञान दिया जाता है। उनसे ये उम्मीद ही नहीं की जाती कि वे खुलकर रो सके। अगर कभी ऐसा हो भी जाए, तो सब मिलकर उस बच्चे/ लड़के को ऐसा महसूस करवाते है कि जैसे कोई उसने गलत काम कर दिया हो। साथ ही साथ, बच्चे घर में ये कभी नहीं देखते कि पापा रो रहे हैं, या पापा अपनी परेशानी खुलकर बता रहे हैं या परिवार के अन्य सदस्यों के साथ पापा अपना दुख बांट रहे हैं। नतीजन, न चाहते हुए भी लड़के सख्ती और कठोरपन का लिबास ओढ़ लेते हैं। उन्हें कभी यह समझने ही नहीं दिया जाता कि भावनाएं प्राकृतिक होती हैं। भावनाओं को व्यक्त करने की जगह घर और परिवार उन्हें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना और उनसे भागना सीखाते हैं।
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पितृसत्ता की इस सोच का दुष्प्रभाव न सिर्फ लड़कों पर और उनके रिश्तों पर पड़ता है, बल्कि उनके नज़रिये पर भी पड़ता है। अक्सर वे ऐसे पूर्वाग्रह भी बना लेते हैं कि सिर्फ लड़कियों में ही भावनाएं होती हैं, भावनाओं को व्यक्त करना लड़कियों का काम हैं, जो भावनात्मक होते हैं वे कमज़ोर होते हैं। परिणामस्वरूप, मर्दानगी की मौजूदा परिभाषा समस्त रूप से समाज के लिए हानिकारक साबित होती है।
मर्दानगी की मौजूदा व्याख्या सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, इसके हाथ तो कानून से भी लंबे हैं। मसलन लड़कों को 11वीं में विज्ञान विषय लेने के लिए मजबूर करना। मेहंदी लगाने, नेल पॉलिश लगाने या बाल बड़े करने पर उनका मजाक उड़ाना। उदाहरण के तौर पर, अगर कोई लड़का/ पुरुष बटुआ नहीं, लड़कियों के लिए डिज़ाइन किए गए पर्स का इस्तेमाल करे, तो क्या घरवाले खुद ही उसका मजाक नहीं बनाते? इसके साथ, अभिभावकों का बेटों को खिलौनों के नाम पर कार दिलाना, ‘रफ़ एंड टफ’ वाले खेलों में ही उन्हें भाग लेने देना, उन्हें ये मानने पर मजबूर करना कि कुकिंग जैसे क्षेत्र उनके लिए नहीं बने हैं। बचपन के ये अनुभव जिंदगी भर तक लड़कों को मर्दानगी का पाठ पढ़ाते है।
यही नहीं, मर्दानगी की परिभाषा को कई बार इससे भी जोड़कर देखा जाता है कि लड़का/ पुरुष अब तक कितनी लड़कियों के साथ सेक्स कर चुका है। मर्दानगी की ऐसी परिभाषा लड़कियों को ‘कामुकता पूरा करने की वस्तु’ के तौर पर भी देखती है। जिस समाज में किसी पुरुष का ‘मर्द होना’ इस पर निर्भर करता है कि वो औरत को किस चश्मे से देखता है, उस समाज में ‘मर्दानगी’ और ‘लैंगिक समानता’ ये दोनों एक साथ कभी टिक नहीं पाते। या तो मर्दानगी होगी या लैंगिक समानता होगी और मर्दानगी की इस अवधारणा खत्म सिर्फ तभी हो सकती है जब हमारे घरों में बचपन से ही लैंगिक समानता का पाठ पढ़ाया जाए।
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घर से शुरू हो लैंगिक समानता का पाठ
हिंसक मर्दानगी का पाठ लड़के मुख्यतौर पर अपने घर के पुरुष सदस्यों से सीखते हैं। जब पूरे परिवार के सामने एक पुरुष अपनी पत्नी का मुंह बंद करता है तो उनका बच्चा ये सीखता है कि लड़कियों की तुलना में लड़कों की बात ज्यादा मायने रखती है। बेडरूम की दीवारों के पीछे जब एक पुरुष मैरिटल रेप को अंजाम देता है तो उनका बच्चा ये सीख जाता है सेक्स करने के लिए सामने वाले की सहमति की जरुरत नहीं होती। जब एक पुरुष अपनी पत्नी पर आक्रामकता दिखाता है, हिंसा करता है तो उनका बच्चा ये सीख जाता है कि लड़कों के लिए हिंसक होना सामान्य बात है। घरवालों के बीच जब एक पुरुष अपनी पत्नी पर हाथ उठाता है, तब उनका बच्चा ये सीख जाता है कि महिलाओं पर हाथ उठाना गलत नहीं है। छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा, घर का हर फैसला जब पिता करता है तो बच्चा ये सीख जाता है कि महिलाओं की राय को ज्यादा अहमियत देने की जरूरत नहीं है। मर्दानगी का यह पाठ पूरी तरीके से महिला-विरोधी है। अफ़सोस की बात तो ये है कि हमारे घरों में ही सबसे ज्यादा इस प्रकार की मर्दानगी का पाठ पढ़ाया जाता है। इसीलिए हमें सख्त जरूरत है मर्दानगी की जगह लैंगिक समानता का पाठ पढ़ाने की।
मर्दानगी की अवधारणा को तोड़ते हुए हमारे घरों में यह सिखाना चाहिए कि मर्द होने का मतलब औरत को दबाना या औरत का मुंह बंद करवाना नहीं है। एक ऐसी परिभाषा जहां मर्द होने का मतलब कठोर और भावनारहित होना न हो, जहां मर्द होने का मतलब छोटी छोटी बातों पर चीखना न होना हो, जहां मर्द होने का मतलब औरों पर अपना हुक्म चलाना न हो। जहां मर्द होने का मतलब हिंसा करना न हो, जहां मर्द होने का मतलब रोबीला या गुस्सैल, आक्रामक होना न हो।
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तस्वीर साभार : सुश्रीता भट्टाचार्जी