शबाना आज़मी और नंदिता दास स्टारर दीपा मेहता की फ़िल्म फ़ायर साल 1996 में रीलीज़ हुई थी। यह बॉलीवुड में समलैंगिक संबंधों पर बनी मुख्यधारा की फिल्मों में से एक है। यह फ़िल्म मूल रूप से पितृसत्तात्मक तंत्र में स्त्री के स्थान और महिलाओं के यौन-संबंधों के बारे में है। यह फिल्म जैसे ही बड़े पर्दों पर आई, वैसे ही यह देश के धर्मोउन्मुखों और परंपरावादियों की भीषण उपेक्षा की शिकार बनी। हालांकि भारत से बाहर फ़िल्म फ़ायर को सराहा गया और दर्जन भर से अधिक पुरस्कार मिले। यह फ़िल्म दो महिलाओं राधा और नीता के बारे में है, जिन्होंने यह महसूस किया कि जीवन पति को खुश रखने और समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे को बनाए रखने से ज़्यादा है। यह फ़िल्म शोषण प्रवृत्तियों जैसे ‘पत्नी धर्म’, पतिव्रता स्त्री और ‘त्यागशील स्त्री’ की अवधारणा को तोड़कर अपने बारे में सोचने और स्त्री के चयन के बारे में है। सदियों से समाज औरतों को खुद को त्यागकर दूसरों के बारे में सोचने के लिए विवश करता रहा है और दमनशील नैतिकता से उसके अस्तित्व को कुचलता रहा है। यह फ़िल्म उन सभी नैतिकताओं को त्यागकर नई नैतिकताएं गढ़ने के बारे में है, ऐसी नैतिकताएं जो चयन से उपजी हैं, जिनके पीछे किसी का दबाव नहीं है बल्कि एक स्त्री का अपना फ़ैसला है।
फ़िल्म फ़ायर के किरदार के बारे में बात करें तो राधा (शबाना आज़मी) और नीता (नंदिता दास) मुख्य भूमिका में हैं। राधा नीता की जेठानी है। राधा और नीता की भूमिका में शबाना आज़मी और नंदिता दास बेहद सधी हुई नज़र आती हैं। राधा के पति अशोक (कुलभूषण खरबंदा), मुंडू (नौकर) और नीता का पति जतिन (जावेद जाफ़री) इत्यादि ने भी कुशलता से अपने किरदार निभाए हैं। राधा का पति धार्मिक व्यक्ति है। वह एक स्वामी जी के पास जाता है जहां वह यह सीखता है कि इच्छाएं सारे दुखों की कारक हैं। अपनी इच्छाओं को त्यागकर व्यक्ति पवित्र हो जाता है। वासना पाप है और स्त्री और पुरुष के बीच में संभोग केवल बच्चे (पुत्र) पैदा करने के लिए किया जाना चाहिए।
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वहीं, दूसरी ओर राधा का पति सामान्य भारतीय पुरुष की तरह ही है जिसके लिए स्त्री पति का हुक्म मानने वाली एक इंसान हैं। पति से इतर उसका कोई जीवन नहीं है। राधा बांझ है, उसे डॉक्टरों ने बताया कि उसकी ओवरी में दिक्कत के कारण वह मां नहीं बन सकती। इस स्थिति में उसकी भूमिका घर के सभी कामकाज करने तक सीमित हो जाती है। वह बीजी का ध्यान रखती है, होटल का काम संभालती है और रात को पति के बगल में लेटकर उनके संयम की परीक्षा में साथ देती है। उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। यह पूरी प्रक्रिया राधा को भीतर से तोड़ देती है, वह निराश जीवन जी रही होती है।
यह फ़िल्म दो महिलाओं राधा और नीता के बारे में है, जिन्होंने यह महसूस किया कि जीवन पति को खुश रखने और समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे को बनाए रखने से ज़्यादा है।
वहीं, नीता पढ़ी लिखी और परंपराओं को चुनौती देने वाली स्त्री है। वह कुछ भी ऐसा ही नहीं मानती। उसे ‘चयन’ के अधिकार का महत्व मालूम है। वह सीधे तौर पर अपने पति से कह देती है कि वह उसका इंतज़ार नहीं करेगी। ससुराल में आकर वह ब्लॉउज़ और पैंट में पॉप गाने बजाकर झूमती है। वह राधा से बात करती है और इच्छा होने पर उसे चूम लेती है। वह अपने पति-परमेश्वर की छवि को तोड़ती है और पति द्वारा झकझोरे जाने पर विरोध करना जानती है। वह राधा के प्रति अपनी भावनाओं को भी स्पष्टता से सामने रखती है। उसे समाज का भय नहीं है बल्कि वह अपने फैसले खुद लेती है और राधा से कहती है कि हम यहां से कहीं और चले जाएंगे और होटल खोल लेंगे। नीता राधा से अपनी भावनाएं खुलकर व्यक्त करती है। मन होने पर उसे चूम लेती है, बातें साझा करती है, उसे सुनती है। ऐसे में राधा, जो प्रेम से अछूती थी और अकेलेपन से जूझ रही थी, नीता के सहज प्रेमभाव को नकार नहीं पाती है। दोनों ही महिलाएं एक दूसरे का संबल बन पितृसत्ता के बरक्स खड़ी हो जाती हैं। नीता की बातें सुन राधा सोचती है और फिर फैसला लेती है। जहां वह अपने और नीता के रिश्ते को चुनती है, जहां वह अपनी शर्तों पर जीना चुनती है।
यह फ़िल्म इस्मत चुग़ताई की किताब लिहाफ़ (1942) पर आधारित है और डायरेक्टर दीपा मेहता की ‘एलिमेंट ट्राइलॉजी’ की पहली फ़िल्म है। इस कड़ी की अन्य फिल्में ‘अर्थ’ और ‘वॉटर’ हैं। इस कड़ी की तीनों ही फिल्मों में दीपा मेहता ने भारतीय समाज के सबसे अधिक विवादित मुद्दों पर फिल्में बनाई हैं तथा इन फिल्मों में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हैं। फ़ायर को सेंसर बोर्ड ने बिना किसी काट-छांट के पास किया था लेकिन भारत के सबसे अधिक साक्षर राज्य केरल में स्क्रीनिंग के दौरान ही भारतीय दर्शकों का रुख साफ़ हो गया था। एक साक्षात्कार के दौरान नंदिता दास बताती हैं कि दर्शकों ने बिना तुक वाली जगह पर तालियां बजायी और सीटियां मारी और कुछ लोगों ने फिल्म के विरोध में वहां आग भी लगा दी। भारत के सबसे साक्षर राज्य में भी दर्शकों की यह प्रतिक्रिया भारतीय समाज में धर्म और रूढ़ परंपराओं की गहराई का परिचय देती है।
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फ़ायर के रिलीज़ होने के बाद भारत की अधिकांश जगहों पर इसका विरोध हुआ। मुंबई में शिवसेना आग-बबूला होकर इस फ़िल्म के समर्थकों के पीछे पड़ चुकी थी। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने अपनी पार्टी के सदस्यों का समर्थन करते हुए कहा था “उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसके लिए मैं उन्हें बधाई देता हूं। यह फ़िल्म हमारी संस्कृति के प्रतिकूल है।’ दिल्ली में फ़ायर के ख़िलाफ विरोध प्रदर्शन कर रही मीणा कुलकर्णी ने कहा, “अगर औरतों की शारीरिक ज़रूरत समलैंगिक संबंधों के ज़रिए पूरी हो जाएगी तब शादी की संस्था ही ख़तरे में पड़ जाएगई।’ कई बार विरोध के दौरान यह भी कहा गया कि ‘भारत में लेस्बियन महिलाएं नहीं होतीं और इस तरह का पाश्चात्य दानव भारतीय सभ्यता में लाकर इसे दूषित नहीं करना चाहिए।”
इस तरह से समाज द्वारा समलैंगिकता को सीधे तौर पर ख़ारिज करने की कोशिश हुई लेकिन इसके समानांतर तमाम समलैंगिक लोग उठ खड़े हुए और गे और लेस्बियन अधिकारों के समर्थन में भाषण देने लगे। इसी दौरान कलेरी (CALERI) कैम्पेन फ़ॉर लेस्बियन राइट्स नाम से एक संगठन भी बना। हालांकि कुछ लोग यह भी सवाल उठाते हैं कि उन दोनों के बीच प्रेम अपने पतियों की उपेक्षा से उपजा था, अगर उन्हें उनके पतियों से प्रेम मिलता तो वे समलैंगिक नहीं होती। उनका कहना था कि फ़ायर में समलैंगिकता प्राकृतिक नहीं बल्कि परिस्थिति जन्य थी। जबकि इस फ़िल्म में नीता लेस्बियन होती है और क्योंकि समाज इन सभी संबंधों के लिए तैयार नहीं होता है इसलिए उसकी शादी कर दी जाती है जबकि राधा ( शबाना आज़मी) बाईसेक्सुअल होती है और पति की उपेक्षा के बाद जब नीता से उसे प्रेम मिलता है तो वह सहजता से उसकी ओर आकर्षित होती है।
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फ़ायर पितृसत्ता को चुनौती देती है। जब राधा के पति अशोक को मालूम चलता है कि दोनों औरतें प्रेम में हैं तो वह उसे ईश्वर की नज़र में पाप बताता है और कहता है कि उन दोनों को शुद्धिकरण की ज़रूरत है। साथ ही राधा को उसके चरणों मे गिरकर माफ़ी मांगनी चाहिए। दरअसल, पितृसत्ता के लिए इससे बड़ी चुनौती कुछ और हो ही नहीं सकती कि महिलाएं यह कहें कि उन्हें पुरुषों की ज़रूरत नहीं है। उसका पति जो धार्मिकता के आवरण में सज्जन बनकर घूमता है, राधा का एक प्रतिकार नहीं सह पाता। फ़िल्म के आख़िर में दोनों नायिकाएं पितृसत्ता के संसार को छोड़कर अपने नए शोषणमुक्त संसार को गढ़ने के उद्देश्य से चली जाती हैं।
2016 में ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टिट्यूट ने फ़ायर को 10 बेहतरीन नारीवादी फिल्मों में से एक माना। नंदिता दास के अनुसार भारतीय सिनेमाई इतिहास में यह फ़िल्म एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह फ़िल्म भारत के समलैंगिक लोगों के लिए एक ऐसी फिल्म है, जिसके माध्यम से वे अपनी सार्वजनिक अभिव्यक्ति कर सकते हैं। हालांकि कानूनी रूप से एलजीबीटीक्यूआई+ संबंधों को मान्यता मिलने में उन्हें बहुत लंबा समय लग गया और आज भी कानूनी मान्यता के बावजूद समाज मे उनकी उपेक्षा की जाती है। अभी भी समाज उनको सहजता से स्वीकार नहीं पाया है, हालांकि धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है।
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तस्वीर साभार : Indian Express