हाल ही में मानवाधिकारों की वकालत और उनसे संबंधित अनुसंधान करने वाली अतंरराष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने भारत के संदर्भ में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली 95 फ़ीसद महिलाएं हर रोज़ अपने कार्यस्थल पर शोषण का सामना करती हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं नौकरी खोने के डर के कारण भद्दी टिप्पणियों से लेकर सेक्स की मांग जैसी यौन हिंसा को नज़रअंदाज़ करने के लिए मज़बूर हैं। स्ट्रीट वेंडर और फैक्ट्री में काम करने वाली महिलाओं से लेकर घरेलू कामगारों तक ये भारतीय महिलाएं शोषित की जाती हैं। जबकि हमारे देश में कार्यस्थल पर होने वाली यौन हिंसा के लिए पहले से ही कानून मौजूद है जिसके मुताबिक एम्प्लॉयर्स द्वारा उत्पीड़न की शिकायतों को हल करने के लिए कंपनी में आतंरिक शिकायत कमिटी का गठन करना अनिवार्य है।
कार्यस्थल पर महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ कानून की नींव
कार्यस्थल पर महिलाओं के उत्पीड़न से बचाव के लिए जो कानून बनाया गया उसका इतिहास 1992 में राजस्थान में सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी के सामूहिक बलात्कार से जुड़ा हुआ है। साल 1997 में विशाखा बनाम राजस्थान राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा दिशानिर्देश निर्धारित जारी किए थे। जिसमें कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने के लिए ठोस कदम उठाना अनिवार्य बना दिया गया। इसके बाद साल 2013 में औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों में कामगारों की सुरक्षा के लिए लागू किया।
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मीटू में असंगठित क्षेत्र की महिलाएं कहां हैं?
यह रिपोर्ट कहती है कि कार्यस्थलों पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम कानून मानो सिर्फ कागज़ों तक ही सीमित रह गया है। साल 2017, अक्टूबर में विश्व स्तर पर #MeToo आंदोलन शुरू हुआ था। इसमें भारत में मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं ने तो बढ़-चढ़ कर भागीदारी दिखाई और यौन उत्पीड़न से जुड़े अपने अनुभवों को सोशल मीडिया पर साझा किया लेकिन वो महिलाएं जो असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं और जो कम पढ़ी लिखी हैं उन तक शायद #MeToo जैसी कोई चीज़ कभी पहुंची ही नहीं।
असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं नौकरी खो दिए जाने के डर से भद्दी टिप्पणियों से लेकर सेक्स की मांग जैसी यौन हिंसा को नज़रअंदाज़ करने के लिए मज़बूर हैं।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार ह्यूमन राइट्स वॉच रिपोर्ट की कंसल्टेंट जयश्री बाजोरिया कहती हैं कि मीटू कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को उजागर करने में मददगार तो रहा है लेकिन 95 फ़ीसद वे महिलाएं जो भारत में गरीब तबके से हैं या जो असंगठित क्षेत्र से हैं वहां तो ये पहुंचा ही नहीं। ह्यूमन राइट्स वॉच रिपोर्ट में ही प्रकाशित वकील रेबेका जॉन का एक कथन है जो अपने आप में एक बड़ी बात कहता है। रेबेका कहती हैं, “हमने इस तथ्य को स्वीकार तक नहीं किया है कि फैक्टरी कर्मचारी, घरेलू कामगार, निर्माण मजदूर जैसे श्रमिकों का हर रोज यौन उत्पीड़न किया जाता है और उन पर यौन हमला होता है। लेकिन गरीबी के कारण उनके पास कोई विकल्प नहीं होता, वे जानते हैं कि जो भी वे कमाते हैं वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।”
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में शाहीन महिला संसाधन और कल्याण संघ और एक्शन ऐड ने ओल्ड सिटी, हैदराबाद में शहरी गरीब महिलाओं पर एक अध्ययन प्रकाशित किया। इन्होंने लगभग 100 महिलाओं का एक सैंपल साइज़ चुना। इनमें कॉटेज इंडस्ट्री, सेल्स वीमन, घरेलू कामगार, छात्राएं और दिहाड़ी मज़दूरी करने वाली महिलाएं शामिल थी। इनमें से 91 महिलाओं ने बताया कि वे अपने कार्यस्थल में असुरक्षित महसूस करती हैं। लगभग 80 महिलाओं द्वारा अवांछित शारीरिक संपर्क, 81 महिलाओं द्वारा सेक्सिस्ट टिप्पणियों का सामना, लगभग आधी महिलाओं का अश्लील इशारों का सामना और उनमें से 40 को अवांछित डिजिटल संदेश दिखाए गए थे। साथ ही 73 महिलाओं ने कहा कि उन्हें अपने कार्यस्थल जाते हुए और वापस आते हुए यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।
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यौन उत्पीड़न पर जागरूकता और प्रशिक्षण
ह्यूमन राइट्स वॉच की ये रिपोर्ट बताती है कि अभी तक भारत में ऐसा कोई अध्ययन भी नहीं सामने आया है जो ये बता सके कि यौन उत्पीड़न किस हद तक महिलाओं के नौकरी छोड़ने के पीछे की वजह है। भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में 26 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ता,10 लाख से अधिक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) और 25 लाख मध्याह्न भोजन रसोइए हैं। इन महिलाओं पर यौन उत्पीड़न का खतरा बना रहता है। यहां जरूरत है यौन उत्पीड़न पर जागरूकता और प्रशिक्षण की।
रिपोर्ट में भारत सरकार से महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ सिफारिशें भी की गई हैं। इनमें शामिल है कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के प्रभावी संचालन, निरीक्षण, जांच और अनुपालन पर खासा ध्यान दिया जाए और विफल नियोक्ताओं को दंडित किया जाए। ऐसे मामलों से संबंधित आंकड़े वार्षिक रूप से प्रकाशित किए जाएं। घरेलु कामगारों पर हिंसा और उत्पीड़न के जोखिम पर विशेष ध्यान दिया जाए। स्थानीय समितियों का राष्ट्रव्यापी ऑडिट किया जाए और निष्कर्ष प्रकाशित किए जाएं। साथ ही साथ श्रमिक संगठनों और नागरिक समाज समूहों के साथ सहयोग और संवाद बढ़ाया जाए।
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तस्वीर : अर्पिता विश्वास