संस्कृतिख़ास बात ख़ास बात : बीएचयू की समाजशास्त्र विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर प्रतिमा गोंड से

ख़ास बात : बीएचयू की समाजशास्त्र विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर प्रतिमा गोंड से

मुझे कई बार कहा गया कि मैं जाति की राजनीति करती हूं। तो मेरी हर चीज़ में कहीं न कहीं ये जाति का फैक्टर ज़रूर जोड़ा जाता है। चूंकि मैं एक प्रोफेसर हूं, आर्थिक रूप से सशक्त हूं इसलिए मुझे सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहा जाता पर अप्रत्यक्ष तौर पर यह हर बार एहसास दिलाया जाता है।

हाल ही में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की समाजशास्त्र विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर प्रतिमा गोंड ने विश्वविद्यालय को ईमेल लिखकर एक सवाल उठाया है कि महिला प्रोफेसरों के नाम के आगे मिस या मिसेज़ क्यों लगाया जाता है? आखिर महिला प्रोफेसरों की वैवाहिक स्थिति का ज़िक्र क्यों ज़रूरी है? फेमिनिज़म इन इंडिया ने प्रतिमा गोंड के इसी सवाल और कार्यस्थलों में व्याप्त लैंगिक असंवेदनशीलता के मुद्दे पर उनसे की ख़ास बात।

सवाल: पहले हमें अपने बारे में कुछ बताइए।

प्रतिमा गोंड : मेरा जन्म बनारस में हुआ था। मेरी कुछ पढ़ाई आज़मगढ़ और कुछ गाज़ीपुर में हुई। पढ़ाई के दौरान मुझे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। उस इलाके में अकेली मैं ही थी जो गोंड जाति से थी और साइंस पढ़ रही थी। जब मैं पढ़ने जाती तो लड़के बेहद परेशान किया करते थे। गांव में जातिगत भेदभाव भी बहुत ज़्यादा था लेकिन धीरे-धीरे इन मुश्किलों का सामना करते हुए मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ही ली। फिलहाल में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हूं।

सवाल : आपने हाल ही में बीएचयू के कुलपति को एक ईमेल लिखा था जिसमें यह लिखा गया था कि बीएचयू में महिला प्रोफेसरों के नाम के आगे मिस या मिसेज़ लगाते हैं जबकि पुरुष प्रोफेसरों के नाम के आगे सिर्फ डॉक्टर लगा होता है। क्या आपके इस ईमेल पर कोई जवाब आया या विश्वविद्यालय ने कोई कदम उठाया?

प्रतिमा गोंड : अब तक विश्वविद्यालय की तरफ से मुझे कोई जवाब नहीं आया।

सवाल : क्या विश्वविद्यालय में महिला प्रोफेसरों को किसी और तरह की लैंगिक असमानता का सामना करना पड़ता है?

प्रतिमा गोंड : सामान्य हालात में आपको यह नहीं लगता कि कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव या असमानता जैसी कोई चीज़ भी है। इसका एहसास आपको तभी होता है जब आप किसी मुद्दे पर आवाज़ उठाती हैं या अपने विचार रखती हैं तब आपको काफी अलग तरीके से वर्गीकृत कर दिया जाता है।। विश्वविद्यालय में हमउम्र, युवा सहयोगी प्रगतिशील विचार के हैं लेकिन कुछ उम्रदराज़ सहयोगी रूढ़िवादी मानसिकता के हैं। उदाहरण के तौर पर कार्यस्थल कभी हंसी-मज़ाक होता है जो कई बार महिला-विरोधी होता है लेकिन हम इस मुद्दे पर आवाज़ नहीं उठा पाते क्योंकि इसमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि यहां के पढ़े-लिखे लोगों को भी एहसास ही नहीं होता कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है, उन्हें पता ही नहीं होता कि यह लैंगिक भेदभाव ही है।

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सवाल : बतौर एक दलित महिला और प्रोफेसर आपका इस मुकाम तक पहुंचना कितना चुनौतीपूर्ण था?

प्रतिमा गोंड : जैसा कि मैंने बताया कि मैंने अपनी पढ़ाई साइंस से की। मैं बचपन से ही डॉक्टर बनना चाहती थी लेकिन यह इतना आसान नहीं था। जब मैं पढ़ने जाती थी तो लड़के बहुत परेशान करते थे। जब मैं साइकिल से जाती तो अक्सर वे मेरा पीछा करते और मुझसे छेड़छाड़ की कोशिश करते थे। एक बार तो मेरा एक बड़ा एक्सीडेंट भी हो गया था। मेरी शादी भी इसीलिए जल्दी कर दी गई क्योंकि समाज में जब लड़कियां इन परेशानियों से गुज़रती हैं तो परिवार वाले शादी ही को एकमात्र उपाय मानते हैं। शादी के बाद भी मेरे परिवार और पति का बेहद समर्थन था तो मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की और बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर बीएचयू में मेरी पहली जॉइनिंग हुई। साफ़ तौर पर कहूं तो मेरे साथ उतना भेदभाव नहीं हुआ लेकिन हां यह ज़रूर है कि मुझे कई छोटी-छोटी चीज़ों में इस बात का एहसास कई बार दिलाया गया है कि मैं किस जाति से तालुक्क रखती हूं। उदाहरण के तौर पर मैंने महिला प्रोफेसरों के नाम के आगे मिस या मिसेज़ लगाने की बात उठाई तो इस मुद्दे को किसी का समर्थन नहीं मिला लेकिन अगर यही बात कोई हाई-प्रोफाइल महिला किसी मंच से बोल दे तो उन्हें कोट किया जाने लगेगा। इससे साल 2015 में विज्ञापनों में जिस तरीके से महिलाओं को दिखाया जाता है उसके ख़िलाफ एक मुद्दा शुरू किया गया था लेकिन मुझे कहा गया कि मैं दलित जाति से तालुक्क करती हूं इसलिए बस नाम कमाने के लिए ऐसा कर रही हूं। मुझे कई बार कहा गया कि मैं जाति की राजनीति करती हूं। तो मेरी हर चीज़ में कहीं न कहीं ये जाति का फैक्टर ज़रूर जोड़ा जाता है। चूंकि मैं एक प्रोफेसर हूं, आर्थिक रूप से सशक्त हूं इसलिए मुझे सीधेतौर पर तो कुछ नहीं कहा जाता पर अप्रत्यक्ष तौर पर यह हर बार एहसास दिलाया जाता है। ऐसा हर महिला के साथ होता है अगर वह आवाज़ उठाए तो लेकिन अगर वह महिला एससी या एसटी जाति से हो तो लोग एक अलग तरह का व्यवहार करते हैं। अगर कोई महिला लम्बाई में थोड़ी छोटी है या शारीरिक विकलांग है तो उन्हें केंद्रित कर उनपर टिप्पणी की जाती है। लेकिन मैं बीचएयू में हूं तो लोग मेरी योग्यता पर सवाल नहीं उठाते, इसलिए उन्हें सवाल उठाने के मिलती है मेरी जाति, जिसे लेकर मुझे टारगेट किया जाता है।बात अगर बीएचयू की करें तो मेरा मानना है कि यहां हमें महिला एकता और लैंगिक संवेदनशीलता को लेकर वह चेतना देखने को नहीं मिलती जो हमें जामिया, जेएनयू, इलाहाबाद या दिल्ली विश्वविद्यालय में देखने को मिलती है।

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मुझे कई बार कहा गया कि मैं जाति की राजनीति करती हूं। तो मेरी हर चीज़ में कहीं न कहीं ये जाति का फैक्टर ज़रूर जोड़ा जाता है। चूंकि मैं एक प्रोफेसर हूं, आर्थिक रूप से सशक्त हूं इसलिए मुझे सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहा जाता पर अप्रत्यक्ष तौर पर यह हर बार एहसास दिलाया जाता है।

सवाल : आपके अनुसार, लैंगिक भेदभाव से जुड़े मुद्दों पर जब भी महिलाएं सवाल उठाती हैं खासकर अपने कार्यस्थल पर तो कहा जाता है कि ये राजनीति है, बेवजह के मुद्दे को तूल दी जा रही है..इस पर आपका क्या कहना है?

प्रतिमा गोंड : जब हम इस समस्या की जड़ में जाते हैं तो पाएंगे कि भारत आज भी एक सामंतवादी देश है। लोगों की वेश-भूषा तो आधुनिक हो गई है लेकिन सोच आज भी सामंती ही है। लैंगिक असमानता की बातें लोगों को छोटी बातें लगती हैं। हमारे समाज के लिए बड़ी बात वही होती है जब किसी महिला का बलात्कार हो जाए या किसी को दहेज के नाम पर जला दिया जाए। यह संवेदनशीलता समाज और और शिक्षा के ज़रिए आती है जो कि हमारे समाज में है नहीं। उदाहरण के तौर पर आज भी व्याकरण की कई किताबों में हम यही पढ़ते हैं- राम स्कूल जा रहा है, सीता किचन में खाना बना रही है। हम इसी तरह के उदाहरण पढ़ते हुए बड़े होते हैं जहां लैंगिक संवेदनशीलता या समानता होती ही नहीं। समाज और शिक्षा एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों में ही हमारे देश में कई कमियां मौजूद हैं। जब मैंने ही अपने महिला प्रोफेसर्स के नाम के आगे मिस या मिसेज़ लगाने का मुद्दा उठाया तो कई लोगों ने कहा कि ये तो कोई मुद्दा ही नहीं है, इसमें आखिर दिक्कत क्या है। मेरा कहना है कि हम विवाहित हैं, नहीं है या विधवा हैं यह जानने की ज़रूरत ही क्या है।

आपने देखा होगा कि जब कोई महिला सवाल उठाती है तो समाज उसके अस्तित्व पर ही सवाल उठा देता है। जब समाज के पास औरतों के सवालों का जवाब नहीं होता तो वह उस सवाल को ही नकार देता है। जैसे बीएचयू के पास मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं है। लेकिन लोग यह समझते ही नहीं कि स्त्रियों की दासता विवाह और धर्म से ही जुड़ी है। विवाह के नाम पर औरतों पर कई ज़िम्मेदारियां लाद दी जाती हैं और वे उसी में दफ्न हो जाती हैं। हम विवाह की संस्था के ख़िलाफ नहीं है बल्कि उसके स्ट्रकचर के ख़िलाफ हैं। अगर किसी ने शादी ने नहीं की तो उस पर समाज लांछन लगाने में बिल्कुल देर नहीं करता। कई बार यूनिवर्सिटी में कई लड़कियों को अच्छा नहीं माना जाता लेकिन जब आप उन्हें देखेंगे तो पाएंगे कि उन्हें इसलिए खराब माना जाता है क्योंकि वे अपनी मर्ज़ी से जीना जानती हैं, उन्हें पता होता है कि आज़ादी के मायने क्या हैं, वे अपने फैसले खुद लेती हैं। इसलिए देखा जाए तो धीरे-धीरे बदलाव तो आ रहा है।

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सवाल : साल 2017 में जब बीएचयू में यौन हिंसा के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हुए थे, उस दौरान आप पर भी पुलिस ने लाठियां बरसाई थी। क्या उस व्यापक विरोध प्रदर्शन के बाद बीएचयू के माहौल में परिवर्तन हुआ है? वीवी प्रशासन छात्राओं की इन समस्याओं के प्रति संवेदनशील हुआ है?

प्रतिमा गोंड : विश्वविद्यालय पहले से अधिक संवेदनशील तो हुआ है लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं हुआ है क्योंकि आज भी यहां कई लोग छात्राओं के उस प्रदर्शन को एक राजनीतिक रूप से प्रेरित प्रदर्शन मानते हैं। उनके मुताबिक बाहर से लड़के आ गए थे और वे इसे एक आंदोलन नहीं मानते लेकिन छात्राओं ने अपने इस आंदोलन को हाईजैक नहीं होने दिया था। अगर विश्वविद्यालय खुद पहले कार्रवाई करता तो छात्राएं सड़क पर क्यों जाती। लेकिन इस प्रदर्शन के बाद हमारी छात्राओं में बहुत बदलाव आए। अब लड़कियां खुलकर बोल रही हैं। हमारे इलाके में ऐसा प्रदर्शन पहली बार हुआ था। अब लोगों के बीच एक डर नज़र आता है कि अगर कुछ हो गया तो ये बच्चियां फिर से धरने पर बैठ जाएंगी।

सवाल : विश्वविद्यालय के स्तर पर भी छात्रों को लैंगिक संवेदनशीलता की शिक्षा देना कितनी ज़रूरत है?

प्रतिमा गोंड : लैंगिक संवेदनशीलता की शिक्षा बेहद ज़रूरी है। बचपन से हमारी ट्रेनिंग होती है कि औरतें दोयम दर्ज़े की नागरिक हैं। सिमोन कहती हैं कि औरतें पैदा नहीं होती बनाई जाती हैं। लेकिन हमारे समाज में मर्द भी बनाए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर एक बच्चा अपने घर में यही देखते हुए बड़ा होता है कि उसका पिता उसकी मां पर हावी है, उसे डांट देता है तो उसे तो यही लगेगा कि वह मर्द है तो श्रेष्ठ है इसीलिए लैंगिक संवेदनशीलता ज़रूरी है। आप देखिए कि लड़कों को खिलौने के रूप में गन दी जाती है लड़कियों को क्लिप। हमें यह बताना होगा कि गन ताकतवर होने और क्लिप कमज़ोर होने की निशानी नहीं है। लड़के भी क्लिप लगा सकते हैं, यह जेंडर की बात नहीं बल्कि चॉइस की बात है। लैंगिक संवेदनशीलता के ज़रिए हमें उस विभाजन को खत्म करना होगा जो समाज ने मर्द और औरतों के बीच बनाई है। ज़रूरत है कि हमें छोटी-छोटी चीज़ों को खत्म करना होगा क्योंकि यही जेंडर असमानता आधार बनती हैं।

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तस्वीर साभार : प्रतिमा गोंड

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