समाजख़बर तलाक़ का फ़ैसला हो स्वीकार क्योंकि ‘दिल में बेटी और विल में बेटी’| नारीवादी चश्मा

तलाक़ का फ़ैसला हो स्वीकार क्योंकि ‘दिल में बेटी और विल में बेटी’| नारीवादी चश्मा

टीना डाबी के फ़ैसले पर अपनी राय का रायता फैलाकर उसे हल्का नहीं बल्कि उसका स्वागत करिए और अपनी बेटियों को दिल और विल में रखना शुरू करिए।

पड़ोसी के घर से बदलाव की शुरुआत हो। इस विश्वास में जीने वाले हमारे समाज में हर नज़र का नज़रिया किसी भी क्रिया-प्रतिक्रिया में अपनी राय देने के लिए तत्पर रहता है। पहले के समय में ये राय बस घर और गली-मोहल्ले के कानों तक सीमित रहा करती थी, लेकिन सोशल मीडिया की उपलब्धता के बाद से किसी भी मुद्दे पर राय देना और भी आसान हो गया है।आजकल सोशल मीडिया का यह मंच आईएएस टीना डाबी और उनके पति अतहर आमिर के तलाक़ के मसले को लेकर राय की मज़बूती का अखाड़ा बना हुआ है। साल 2015 में सिविल सेवा परीक्षा टॉप करने वाली टीना अपने पति अतहर से अलग होने का फैसला किया है। इसके लिए दोनों ने आपसी सहमति से एक फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी दाखिल की है। दोनों ने साल 2018 में शादी की थी और इनका विवाह काफी सुर्खियों में भी रहा था। 

उल्लेखनीय है कि साल 2015 की सिविल सेवा परीक्षा में टीना डाबी ने जहां शीर्ष स्थान हासिल किया था वहीं, जम्मू-कश्मीर के रहने वाले आमिर अतहर उल शफी ने दूसरा स्थान प्राप्त किया था। अर्जी में दोनों ने कहा है कि वह आपसी सहमति से अलग होने का फैसला कर रहे हैं। फिलहाल दोनों जयपुर में तैनात हैं। बता दें कि टीना, वित्त विभाग में संयुक्त सचिव हैं तो आमिर सीईओ ईजीएस के पद पर तैनात हैं। टीना और आमिर की शादी जब होने वाली थी तब हिंदू महासभा ने इस पर एतराज जताते हुए इसे लव जिहाद की साजिश करार दे डाला था।

ये पहली बार नहीं है जब किसी के निजी फ़ैसले को अपनी-अपनी वैचारिकी से कभी लव जिहाद तो कभी चरित्र और न जाने कौन-कौन से पहलुओं से जोड़ा जा रहा है। अब तो ऐसा होना रोज़ का क़िस्सा हो गया है। इसी बहाने आइए आज बात करते हैं ‘तलाक़’ पर।

तलाक़ की वजह ‘अनेक’, पर महिला के चरित्र का सवाल ‘एक’

‘तलाक़’ यानी कि शादी के बाद पति-पत्नी का अपनी सहमति से अलग होने का फ़ैसला। वो फ़ैसला जिसे हमारा समाज स्वीकार नहीं कर पाता है। अगर ‘तलाक़’ के फ़ैसले की पहल पुरुष करता है तो इसे स्वीकारना समाज के थोड़ा आसान होता है, क्योंकि ऐसे में महिला के चरित्र पर सवाल खड़े करना उसके अस्तित्व को कठघरे में लाना आसान होता है। लेकिन अगर तलाक़ के फ़ैसले की पहल महिला ने की होतो ये हमारे समाज के गले नहीं उतरता है और वो दोगुनी गति से महिला के चरित्र पर सवाल उठाता है।

टीना डाबी के फ़ैसले पर अपनी राय का रायता फैलाकर उसे हल्का नहीं बल्कि उनके फ़ैसले का स्वागत करिए और अपनी बेटियों को दिल के साथ-साथ विल में रखना शुरू करिए।  

मतलब ये कि तलाक़ चाहे किसी भी तरफ़ से लिया जाए, इसकी पहल चाहे जो भी करे महिलाओं के चरित्र पर सवाल होना तय है। अक्सर ये भी कहा जाता है ‘जब शादी नहीं सँभाल पायी तो परिवार क्या सँभालेगी।‘ ‘चार बातें सहनी नहीं सीखी तो रिश्ता कैसे चलेगा।‘ ये सब इतनी सहजता और परिपक्वता से कहा जाता है जैसे महिला की ज़िंदगी का अंतिम लक्ष्य ही शादी को ढोना और सहना है। बदलते समय के साथ हमें अब ये अच्छे से समझ लेना चाहिए कि शादी ज़िंदगी का हिस्सा हो सकती है। लेकिन पूरी ज़िंदगी या ज़िंदगी का लक्ष्य नहीं हो सकती है। इसलिए अब हमें शादी का महिमामंडन करके इसे खुद को दांव लगाकर ढ़ोने की सीख लड़कियों को देना बंद कर देना चाहिए।

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हिंसा से भला है तलाक़

‘बेटियों की अर्थी ही ससुराल से आनी चाहिए। वो ख़ुद कभी घर छोड़कर नहीं आनी चाहिए।‘ ससुराल में अपनी ज़िंदगी, आत्म, पहचान और अस्तित्व की आहुति देकर वहाँ बने रहने वाली सीख हर लड़की ने किसी न किसी रूप में ज़रूर सुनी होगी। ये वो सीख है जिसने घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, मैरिटल रेप और लैंगिक भेदभाव को वीभत्स रूप दिया है। आज जब हम आए दिन घरेलू हिंसा के बढ़ते स्तर को देख रहे हैं, ऐसे में अब समय है कि हम बेटियों को ये सीख दें कि ‘जिस घर या रिश्ते में आत्म की आहुति देनी पड़े वो छोड़कर आना चाहिए।‘ हमें समझना होगा कि हमें अपनी बहन-बेटियाँ तलाक़शुदा ज़िंदा पसंद है या फिर घरेलू हिंसा का शिकार होकर मौत के घाट में उतरती हुई।

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तलाक़ का फ़ैसला हो स्वीकार क्योंकि दिल में है बेटी और विल में है बेटी

टीना डाबी सिविल सेवा परीक्षा टॉपर रह चुकी है। उन्होंने अपने पसंद से अपने साथी को चुना और आज उन्होंने अपने साथी से अलग होने का फ़ैसला लिया है। टीना एक आत्मनिर्भर लड़की है, जो खुद के लिए बेहतर निर्णय ले सकती है और ले भी रही है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन हमें ये याद रखना चाहिए कि अपने पूरे देश की बेटियाँ टीना नहीं है, वे उनकी तरह आत्मनिर्भर नहीं है। इसलिए ज़रूरत है कि हम उन्हें आत्मनिर्भर बनाए।

सुप्रसिद्ध नारीवादी कमला भसीन के शब्दों में कहें तो अब ‘दिल में बेटी और विल में बेटी‘ रखने की ज़रूरत है। अगर हमें महिला हिंसा पर रोक लगानी है तो महिलाओं को आर्थिक रूप सशक्त करना बेहद ज़रूरी है, जिसकी शुरुआत हमें अपने घर से करनी होगी। हमें बेटियों के संपत्ति के अधिकार को सुनिश्चित करना होगा। ग़ौरतलब है कि जब महिलाएँ आर्थिक रूप से सशक्त होती है तो वे अपने निर्णय आत्मविश्वास के साथ ले पाती है। इसलिए टीना डाबी के फ़ैसले पर अपनी राय का रायता फैलाकर उसे हल्का नहीं बल्कि उनके फ़ैसले का स्वागत करिए और अपनी बेटियों को दिल के साथ-साथ विल में रखना शुरू करिए।  

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तस्वीर साभार : shortpedia

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