स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य क्यों अनदेखा किया जाता है मेनोपॉज के दौरान महिलाओं का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य

क्यों अनदेखा किया जाता है मेनोपॉज के दौरान महिलाओं का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य

एक रिसर्च में पाया गया कि जिन शादीशुदा महिलाओं के पार्टनर्स को उनके मेनोपॉज के बारे में जानकारी थी, वे मेनोपॉज़ के बारे में सहज और जागरूक थे

भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधित मुद्दों पर जागरूकता की बेहद कमी है। संयुक्त राष्ट्री की एक रिपोर्ट में भारत को मध्य आय वाले देश की श्रेणी में रखा गया है। वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम के अनुसार लैंगिक असमानता वाले देशों की सूची में भारत का नाम ऊपरी पायदान पर कहीं आता है। लैंगिक असमानता आप अपने आसपास, घर, दफ़्तर, निज़ी, सार्वजनिक, हर स्पेस में महसूस कर सकते हैं। यह असमानता साक्षरता दर, वेतन में असमानता, स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता जैसे ज़रूरी आंकड़ों और ज़मीनी हक़ीक़त दोनों में ही मौजूद है। जेंडर के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण इस असमानता को बढ़ाने में कारगर रहे हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य को लंबे समय तक नज़रअंदाज़ किया गया है। हेल्थकेयर सुविधाओं का लाभ बहुत सीमित तरीक़े से उन तक पहुंचता है। अपने घरों में जब औरतें बीमार पड़ती हैं तो उनकी बीमारी को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। बुखार या कोई तकलीफ होने पर बगल की दुकान से दवाई लाकर खा लेना, फिर रसोई और घर के कामों में लग जाना हमारे घरों में। ऐसा करता अपने आसपास की औरतों को देखना एक सामान्य घटना बना दी गई है। ऐसे में मेनोपॉज, इससे जुड़ी अन्य जानकारियों का महिलाओं और उनके साथ रहने वाले बाकी लोगों में भारी अभाव है। इस पर बातचीत करने से समाज इसलिए भी बचता आया है क्योंकि यह उनके प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ा है। महिलाओं का प्रजनन स्वास्थ्य अपने आप में एक सबसे अहम लेकिन सबसे उपेक्षित विषय है।

मेनोपॉज शब्द लैटिन भाषा से आता है। ‘मेनो’ अर्थ महीना, ‘पॉज़िया’ अर्थ रूकना। मेनोपॉज (रजोनिवृत्ति) मतलब पीरिड्स का ख़त्म होना। सामान्य रूप से 45-50 के उम्र में महिलाओं को मेनोपॉज हो जाता है। मेनोपॉज के बाद उनके ओवरी में एग सेल का बनना बंद हो जाता है जिसका मतलब है महिला गर्भ धारण नहीं कर सकती है। कभी-कभी पीरियड्स अचानक बंद होता को कभी-कभी एक से दो साल का समय लग जाता है। प्रजनन स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से ऐसा होना औरत के जीवन की एक सामान्य घटना है। मेनोपॉज के बाद महिला जो बदलाव महसूस करेगी वह हर महिला के लिए अलग-अलग हो सकते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह पीरियड्स के अनुभव हर महिला के लिए अलग-अलग होते हैं।

शरीर के दो मुख्य हार्मोन, एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन के बनने की मात्रा कम हो जाती है। शारीरिक कमजोरी, सिर में दर्द, चक्कर आना, पेट संबंधित समस्याएं जैसी दिक्क़तें सामने आती हैं। इस शारीरिक बदलाव की व्यक्तिगत चुनौती उठाते हुए अधिकतर महिलाओं को कोई भावनात्मक सहारा नहीं मिलता। उनकी दिक़्क़तों पर उन्हें सुनने, उनके हिस्से के काम कामों में हाथ बंटाने, ज़रूरत पड़ने पर सही समय पर डॉक्टर के पास ले जाने के पास ले जाने की कोई व्यवस्था नहीं होती। इसका असर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। मेनोपॉज के दौरान व्यवहार में होने वाले बदलाव को ‘चिड़चिड़ापन’ कहकर उनके बर्ताव को खारिज़ कर दिया जाता है। ये ‘चिड़चिड़ापन’ इस बात पर बहुत हद तक निर्भर करता है कि महिला के आसपास के लोगों के साथ उसके कैसे संबंध हैं?

बहन के हिस्से का दूध भाई को पिला देना, ‘घरेलू नुस्खे’ अपनाकर महिलाओं बुख़ार जल्दी उतारना ताकि घर के पुरुषों को खाना पकाकर देने लायक़ ‘स्वस्थ’ हो जाए, यह सभी औरतों को सहनशीलता सिखाए जाने की सोच से उपजा व्यवहार है। मेनोपॉज पर ना के बराबर जागरूकता भी इसी का एक पहलू है। 

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एक रिसर्च में पाया गया कि जिन शादीशुदा महिलाओं के पार्टनर्स को उनके मेनोपॉज के बारे में जानकारी थी, वे मेनोपॉज़ के बारे में सहज और जागरूक थे, उन्हें अन्य महिलाओं की तुलना में कम मानसिक स्वास्थ्य की तकलीफ़ें उठानी पड़ी। ग्रामीण क्षेत्रों में, छोटे शहरों-क़स्बों के न्यूनतम आमदनी वाले तबक़ों में, सामाजिक ढांचे के निचले पायदान पर खड़ी जनसंख्या के बीच मानसिक स्वास्थ्य एक अपरिचित मुद्दा है। थेरेपी या काउंसिल की सहायता उन तक नहीं पहुंची है, जागरूकता की कमी है। ग्रामीण घरों में 40 से 50 वर्ष में महिलाओं घर के साथ-साथ बाहर भी काम करने जाती हैं। खेती-बाड़ी, रोपनी, मंडी में सब्जी बेचना, कपड़े सिलना जैसे अन्य काम करके परिवार में आर्थिक साझेदारी देती हैं। ऐसी महिलाएं भी अपने स्वास्थ्य पर कम से कम पैसे ख़र्च करने तक को अपना मूल हक़ नहीं मानती। उन्हें शुरू से अपने शरीर पर जरूरत के लिए किया गया ख़र्च विलासता, गैर-जरूरी ख़र्च की तरह देखना सिखाया गया होता है। इसके अलावा कई बार अर्ली मेनोपॉज की समस्या आती है जिसमें पीरिड्स समय से पहले बंद हो जाते हैं। इसका कारण पौष्टिक आहार नहीं मिल पाना है। भारत जैसे देश में कुपोषण एक बड़ी समस्या है। यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट के अनुसार अपने प्रजनन काल में भी आज चौथाई महिलाएं कुपोषण की शिकार होती हैं। उनका बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) 18.5 किलो प्रति मीटर से कम पाया गया है।

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एक तरफ़ मेनोपॉज़ के समय शरीर को अधिक कमज़ोरी या बाकी परेशानियों से दूर रखने के लिए खान-पान में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा, ताज़े फल, सब्जी को जरूरी रूप से शामिल किए जाने के तरह-तरह के फायदेमंद सुझाव हैं। वहीं, दूसरी तरफ महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर समाज का एक बहुत ही पक्षपात से भरा व्यवहार है। इस व्यवहार के नुकसान उठाने वाले छोर पर हमेशा महिलाओं को रखा जाता है। बहन के हिस्से का दूध भाई को पिला देना, ‘घरेलू नुस्खे’ अपनाकर महिलाओं बुख़ार जल्दी उतारना ताकि घर के पुरुषों को खाना पकाकर देने लायक़ ‘स्वस्थ’ हो जाए, यह सभी औरतों को सहनशीलता सिखाए जाने की सोच से उपजा व्यवहार है। मेनोपॉज पर ना के बराबर जागरूकता भी इसी का एक पहलू है। 

दफ़्तर जाने वाली कामकाजी महिलाओं की बात करें तो उम्र के इस पड़ाव पर उन में से अधिकतर अपने कार्यस्थल पर सीनियर पदों पर पहुंच चुकी होती हैं। हार्वर्ड बिज़नेस रिव्यु के मुताबिक वे मेनोपॉज के कारण ऑफिस में उनका समय मुश्किल हो जाता है या वे नौकरियां तक छोड़ देती हैं। ज्यादातर कार्यस्थलों में महिला स्वास्थ्य ख़ासकर मेनोपॉज को लेकर कोई नीति या एक गठित सुचारू ढ़ांचा नहीं बना हुआ है। जागरूकता की कमी से ज्यादा उनके प्रति ऑफिस कल्चर के रवैये का नुकसान महिलाओं को अपने करियर में पाई गई उप्लब्धधियों को गंवाकर चुकाना पड़ता है। इसका गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव उन पर पड़ता है। विनीता सिंह और एम. सिवकामी के एक जर्नल पेपर के अनुसार विकसित देशों में मेनोपॉज को नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है चूंकि इसके बाद महिलाएं फर्टाइल नहीं रहती, इसलिए कथित तौर पर कम ‘आकर्षक’ मानी जाती हैं। मेनोपॉज़ की बात किसी भी समाज में करें, लैंगिक असमानता और उससे उपजी बाकि बातों के कारण महिलाओं को अधिक को खामियाज़ा भुगतना पड़ता है। ज़रूरत है कि स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दे पर इससे मुक्ति पाए जाने की हर संभव पहल हो।

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तस्वीर साभार : intimina

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