बचपन में हर बच्चे की तरह मैं भी हमेशा ही अपनी मां जैसी बनना चाहती थी पर सिर्फ बचपन में ही अब नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे समाज में मां की भूमिका इस तरह से तय की गई है जिससे हर कोई अनगिनत उम्मीदें लगाए बैठा रहता है, जिससे हमेशा त्याग, बलिदान मांगा जाता है। उससे मदर इंडिया बनने की उम्मीद रखी जाती है, जिसके पास कभी खुद की ख़ुशी के बारे में सोचने का हक़ ही नही होता है। अगर वह अगर वो ऐसा करेंगी तो वो एक आदर्श बहू, मां या पत्नी तो रह ही नहीं जाएंगी। एक औरत को लेकर हमारे समाज में लोगों के दिमाग में ऐसी ऐसी अवधारणाएं बनाना कि उसे कैसा होना चाहिए कैसा नहीं, उसमें ये गुण होने चाहिए ये नहीं, इसमें भारतीय टीवी सीरियल्स की भी बड़ी भूमिका रही है। एक ‘आदर्श भारतीय औरत’ की ऐसी छवि दिखाने वाला ये पितृसत्तात्मक टीवी जगत अपनी कहानियों की शुरुआत तो नारी सशक्तिकरण के नारों के साथ करता है पर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती हैं यह सशक्तिकरण पितृसत्ता के ही बनाए गए रास्ते पर चलने लगता है।
आज के दौर में स्टार प्लस, कलर्स, ज़ी टीवी आदि सभी चैनल अपने सीरियल्स के मुख्य किरदार के रूप में एक लड़की या औरत को ही रखते हैं। इसी किरदार के इर्द-गिर्द ही सीरियल्स की पूरी कहानी चलती है। सीरियल्स प्रोमो में तो इस पितृसत्तात्मक समाज में उसके संघर्षों को दिखाने की बात होती है पर वास्तव में ये कहानी पितृसत्तात्मक समाज में पितृसत्तात्मक सोच वाले ही एक किरदार को बढ़ावा देता नज़र आता है। इसका उदाहरण हमें तभी देखने को मिल जाता है जब लड़के के घरवाले लड़की के घर रिश्ता लेकर आते हैं और जब वह लड़की से उसके बाहर काम करने के बारे में पूछते हैं तो लड़की का ये जवाब देना कि वह शादी के बाद भी बाहर काम करना चाहेगी लेकिन तभी जब लड़के के परिवार को कोई ऐतराज़ ना हो। ये वही पितृसत्तात्मक सोच है जहां अपने सपनों के लिए रिश्ता ठुकरा देना तो एक बगावत माना जाएगा जो सीरियल्स की एक ‘आदर्श भारतीय नारी’ की परिभाषा में फिट नहीं बैठता। यह दृश्य हमें बालिका वधू जैसे नारी सशक्तिकरण के मुद्दों पर बनाए गए सीरियल में उसकी मुख्य किरदार से ही देखने को मिलता है क्योंकि बहू तो आखिरकार बस सुंदर, सुशील और घर का काम करने वाली ही होनी चाहिए।
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ऐसे ही अलग-अलग मुद्दों पर भी कहानी लिखी गई जैसे विधवाओं, तलाक़शुदा, डांसर और ट्रांसजेंडर किरदारों के सपने और उनके संघर्षों पर भी लिखी गई है पर कहानी का मुद्दा कुछ भी हो वह घूम-फिर कर लड़की की शादी पर ही आ अटकता है। इस समाज में उनका संघर्ष बस इस बात तक ही सीमित रह जाता है कि उनसे शादी कौन करेगा? उदाहरण के तौर पर हाल ही में शुरू हुए एक सीरियल ‘नमक इश्क़ का’ के प्रोमो में भी बस इतनी ही बात रखी गई कि सोचने वाली बात है कौन करेगा एक नचनिया से शादी? आखिर कौन बनाएगा उसे अपने घर की बहू? इसी तरह कई अन्य सीरियल्स भी है जिनमें लड़की का सपना बस एक अच्छा जीवनसाथी पाने तक ही दिखाया गया है। जैसे, ‘शक्ति ,अस्तित्व के एहसास की’ , ‘पिंजरा खूबसूरती का’ आदि। जिसका मुख्य कारण पितृसत्ता ही है जो एक औरत को हमेशा ही पुरुष की सहभागिता में ही देखता है और इस समाज में बिना किसी पुरुष के बिना एक स्त्री का अस्तित्व निरर्थक ही माना जाता है ।
छोटे परदे के कुछ सीरियल्स के नाम से ही पितृसत्तात्मक सोच का प्रदर्शन करते हैं जिसके कुछ उदाहरण हैं; ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, ‘सौभाग्यवती भवः’, ‘कुमकुम भाग्य’ आदि जिससे एक औरत का संबंध सीधा सीधा उसके ससुराल, पति आदि से ही जोड़ा गया यानी स्त्री को पितृसत्ता के आधार पर ही देखा गया। छोटे परदे पर दिखाई गई कहानियां पितृसत्ता के ढांचे में ही रची जाती हैं जिसमें औरतों को सिर्फ रसोई और घर के काम करते ही दिखाया जाता है या फिर डायनिंग टेबल पर पुरूषों को खाना परोसते हुए। क्या आपने किसी सीरियल में पुरूषों को औरतों के लिए खाना परोसते देखा है? टीवी जगत सालों से चली आ रही इसी पितृसत्तात्मक रुढ़ीवादि सोच को बढ़ावा देता है। अक्सर हम सभी घरों में ये देखते है कि अगर सुबह पति के ऑफिस जाने या बच्चों के स्कूल जाने से पहले नाश्ता या टिफ़िन वक़्त पर ना तैयार हुआ हो या थोड़ी देर हो गई हो तो सबका गुस्सा औरत पर ही निकलने लगता है, पर हमने कभी यह तो सोचा ही नहीं कि हमारे लिए सुबह सबसे पहले उठकर खाना बनाना यह उनकी ज़िम्मेदारी कब से बन गई?
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छोटे परदे पर मुख्य किरदार में रहने वाली लड़की को हमेशा सलवार सूट और साड़ी में ही दिखाया जाता है जबकि वैम्प या एक बिगड़ी हुई लड़की का किरदार हमेशा ऐसा ही दिखाया जाता है जो मॉर्डन सोच, रहन-सहन, पहनावे और बाहर काम करने वाली एक आत्मनिर्भर लड़की ही होती है। क्योंकि पितृसत्ता के अनुसार ये सब भारतीय नारी के आदर्शो के खिलाफ होता है और इस रुढ़ीवादि सोच को छोटे परदे के माध्यम से समाज में आज भी फैलाया जा रहा। वैसे तो छोटे परदे पर हर जगह पितृसत्ता ही देखने को मिलती है पर जहां घर की बहू के सामने लोग अपनी अपेक्षाएं रखनी शुरू करते हैं, वो उन्हें एक चुनौती के रूप में स्वीकार करती जाती है यह कहकर, “मैं एक अच्छी बहू बनकर ही दिखाऊंगी।” यानी खुद पर हो रहे अत्याचारों को वह परीक्षा का नाम दे कर प्रताड़ित होती रहती है। बीच-बीच में हमे ऐसे डायलॉग सुनने को मिलते रहते हैं जैसे, “एक औरत चाहे तो कुछ भी कर सकती है।”
एक औरत को उसके लिंग के आधार पर पुरुषों से कम समझना गलत है पर उसे पुरुषों से भी अधिक महान या उच्च दिखाना या दुर्गा-काली का रूप बताकर देवी दिखाना नारीवाद नहीं है। इसी तरह हमें छोटे परदे पर पितृसत्ता के कई अन्य उदाहरण भी देखने को मिलते हैं, जैसे अगर स्त्री और पुरुष दोनों काम करते हैं फिर भी घर आकर खाना बनाना भी औरत का ही काम होता है। सीरियल्स में हमेशा यह देखने को मिलता है कि औरतें ही सुबह जल्दी उठकर मर्दों को उठाती हैं। क्या आपने कभी औरतों को देर तक सोते देखा है? छोटे परदे पर पितृसत्ता का रूप कुछ इस कदर देखने को मिलता है कि औरते हमेशा ही मर्दों की उम्मीदों की बेड़ियों में बंधकर रोबोट की तरह सारा काम अकेले करती रहती है। नारीवाद का मतलब समानता होता है न कि किसी को महान दिखाना। हमें यह अक्सर सुनने को मिलता है, “लड़कियां देवी का रूप होती हैं”, नहीं, लड़कियां देवी नहीं बस एक आम इंसान ही होती हैं।
मै योगेन्द्र कुमार, शोध छात्र वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर उत्तर प्रदेश ।मै स्त्री विमर्श पर ज्यादा जानकारी जानना चाहता हूं।