वैश्विक नारीवादी आंदोलन की एक बहुत बड़ी किरदार हैं- सिमोन द बोउवार। सिमोन का जन्म 9 जनवरी 1908 को एक अमीर घराने में, पेरिस में हुआ था। उनकी एक और बहन थी। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उनके घर की वित्तीय स्थिति बहुत ही कमजोर ही गई थी। जिसके चलते उनकी मां जो की एक बैंकर की बेटी थी और जिनके आस-पास हमेशा नौकर ही रहते थे ने खुद घर का काम करना शुरू किया, सिलाई शुरू की। सिमोन की पढ़ाई एक कैथोलिक स्कूल में हुई थी। काफी समय तक उन्होंने नन बनने का सपना देखा था। समय के साथ उनका ये सपना तो बदल गया। वक्त के साथ सिमोन एक नास्तिक बन गई। साथ ही उनके बहुत पढ़ने की, सोचने की, विश्लेषण करने की उनकी ये क्षमताएं और बढ़ती गई। उनकी इस विलक्षण प्रतिभा का आभास उनके शिक्षकों को और खुद सिमोन को काफी पहले ही हो चुका था। इसीलिए जो भी उन्होंने लिखा, भले ही वो उपन्यास हो, कहानी संग्रह हो, आत्मकथाएं हो, निबंध हो या और दूसरी किताबें हो, सब उनकी इन्हीं प्रतिभाओं को उजागर करते है।
वैसे तो उन्होंने काफी कुछ लिखा, लेकिन वह ख़ास तौर पर अपनी किताब, ‘द सेकंड सेक्स’ के लिए जानी जाती हैं। ये किताब उनके जीवन के निजी अनुभवों पर भी आधारित है। इस किताब कि वह लाइन बेहद मशहूर हैं जहां वह कहती हैं कि औरत पैदा नहीं होती है, बल्कि समाज औरत को गढ़ता है। वह बार-बार इस पर ज़ोर देती हैं कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति, हमारा समाज, लड़कियों को मजबूर करता है ‘स्त्री’ बनने के लिए। यही वजह रही थी कि वह आजीवन नास्तिक बन रही। वह कहती थी कि इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हमारे धर्म में औरतों की भी पूजा होती है। धर्म तो वास्तव में आदमियों के द्वारा बनाया हुआ एक तरीका है औरतों पर शासन करने का।
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यही नहीं, उनकी इस किताब के द्वारा वह प्लेटो के ऊपर भी प्रहार करती हैं। प्लेटो कहते हैं कि इंसान का लिंग उसके हाथ में नहीं है। दोनों ही लिंग वाले व्यक्ति योग्य वर्ग प्रिविलेजड क्लास का सदस्य बन सकते हैं, लेकिन उसके लिए उस इंसान को एक पुरुष की तरह खुद को प्रशिक्षित करना होगा, एक पुरुष की तरह जीना होगा। प्लेटो के इसी बिंदु की सिमोन आलोचना करती है। सिमोन के मुताबिक यह लैंगिक भेदभाव है। प्लेटो के अनुसार शासन वही कर सकता है जो पुरुष है या पुरुष की तरह व्यवहार करता है। सिमोन यह कहती हैं कि बराबरी पाने के लिए ऐसा करना उचित नहीं है। बावजूद इसके कि पुरुषों और महिलोंओं में जैविक अंतर है, दोनों लिंगों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। समान व्यवहार प्राप्त करने के लिए महिलाओं को पुरुषों की तरह व्यवहार करने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। वह आगे यह भी कहती हैं कि बराबरी और समानता एक नहीं है।
सिमोन द बोउवार के दौर में बार-बार यह कहा जाता था कि या तो महिलाएं और पुरुष बराबर हैं या वे दोनों अलग-अलग हैं। मूल रूप से कहें तो बराबरी वाला व्यवहार पाने के लिए महिलाओं को मजबूर किया जाता था पुरुषों की तरह जीने के लिए। इसके खिलाफ सिमोन अपनी किताब ‘द सेकंड सेक्स’ में कहती हैं कि महिलाओं की बराबरी की बात करते समय हमें उनके जैविक अंतर की वास्तविकता को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। वह कहती हैं, “महिलाओं और पुरुषों के बीच जो जैविक अंतर है उसके आधार पर महिलाओं को दबाना बहुत ही अन्यायपूर्ण और अनैतिक है।”
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वह यह भी कहती हैं कि सांस्कृतिक मान्यताओं के आधार पर औरतें अपने शरीर के बारे में कुछ धारणाएं बना लेती हैं जो उन्हें उनके शरीर की संभावनाओं से दूर कर देता है। उदाहरण के लिए ये माना जाता है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में कमज़ोर होती हैं। सिमोन इस मान्यता के पीछे की वजह पूछती हैं? वह पूछती है कि ये निर्धारित करने के लिए कौनसा लिंग ज्यादा ताकतवर होता है इसके लिए हम क्या मापदंड का उपयोग करते है। क्यों अच्छी ऊंचाई होना ही ताकत का संकेत माना जाता है? क्यों अच्छी-खासी छाती ही ताकत का संकेत माना जाता है? क्यों हम, कौन कितना लम्बा जीता है, इस आधार पर यह फैसला नहीं करते कि कौन सा लिंग ज्यादा ताकतवर है? अगर ऐसा किया जाएगा तो हम पाएंगे कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा ताकतवर है।
सिमोन अपनी किताब ‘द सेकंड सेक्स’ में कहती हैं कि महिलाओं की बराबरी की बात करते समय हमें उनके जैविक अंतर की वास्तविकता को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। वह कहती हैं, “महिलाओं और पुरुषों के बीच जो जैविक अंतर है उसके आधार पर महिलाओं को दबाना बहुत ही अन्यायपूर्ण और अनैतिक है।”
सार में कहें तो सिमोन इस पूरे उदाहरण के द्वारा ताकत के मापदंडो पर उंगली उठती हैं क्योंकि ये मापदंड पुरुषों के हितों को पूरा करने के लिए बने हुए हैं। अगर हम इन मापदंडो को ही बदल दें, तो जो औरतों को लेकर हमारी मान्यताएं है उन पर भी सवाल उठ जाएंगे। सिमोन इन्हीं मान्यताओं पर, इन्ही पूर्वाग्रहों पर सवाल उठाने का बार-बार आग्रह करती थी। द सेकंड सेक्स के अतिरिक्त उनके एक उपन्यास ‘द मैंडरिन’ के लिए उन्हें फ्रेंच साहित्यिक पुरस्कार, ‘द प्रिक्स गोंकोर्ट’ से भी नवाज़ा गया। सिमोन, जीन पौल सार्त्र, जो एक फ्रेंच लेखक थे उन के साथ भी अपने रिश्ते के लिए जानी जाती हैं।
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एक नारीवाद के साथ-साथ, सिमोन दार्शनिक भी थी जो यह चाहती थी कि औरतों के पास अपने लिए ‘चुनने की आज़ादी’ होनी चाहिए। वह यह मानती थी कि हर इंसान एक वजह के लिए पैदा होता है, इसी के साथ वह यह भी मानती थी कि सिर्फ यही सोचना गलत होगा। उनके मुताबिक, हर व्यक्ति बिना किसी खाके के, बस कुछ बन रहा है। जीन पौल सार्त्र से मिलने से पहले उनकी यही सोच थी। उन दोनों की दार्शनिक असहमतियां 1940 के दौरान प्रकाशित भी हुई थी। उस समय तक दोनों ही अपने विचारों के लिए फ्रांस में काफी प्रसिद्ध भी हो चुके थे। इस दौरान सिमोन नीति शास्त्र के बारे में भी अपने कुछ विचार बना चुकी थी। नीति शास्त्र के बारे में ये विचार आगे चलकर ‘द सेकंड सेक्स’ की नींव भी बने।
उनका ये कहना था कि यह इच्छा कि “मेरे अस्तित्व का कुछ मतलब हो” जिस तरीके से औरतों को प्रभावित करती है उस तरीके से पुरुषों को नहीं। औरत को अपने अस्तित्व का औचित्य साबित करने के लिए औरों से प्यार करना ही होता है, उनकी चिंता करनी ही होती है। तभी हमारा समाज एक औरत के जीवन को सार्थक समझता है।वह यह भी कहती है कि समाज, इतिहास, मनोविश्लेषण, जीवविज्ञान सब एक लड़की/ औरत को “उत्तम स्त्री” के मापदंडो पर खरा उतरने के लिए इतना मजबूर करते हैं कि एक लड़की/ महिला “मुक्त और गलती करने वाले इंसान’ के तौर पर कभी खुद को देख ही नहीं पाती।
साल 1949 में उनके आलोचकों ने उन्हें महिला-विरोधी, मातृ-विरोधी और विवाह विरोधी बताया। लेकिन सिमोन ये कभी नहीं सोचती थी कि शादी नहीं करनी चाहिए या माँ नहीं बनना चाहिए। उनका मानना था कि आर्थिक आत्मनिर्भरता औरत की मदद ज़रूर करती है लेकिन ये अपने आप में औरत को आजाद नहीं करती और ना ही शादी या मातृत्व करते हैं। इसीलिए वह अपनी किताब ‘द सेकंड सेक्स’ के ज़रिये औरतों के अंदर एक आत्मविश्वास जगाना चाहती थी, उन्हें खुद अपनी आजादी की कीमत समझना चाहती थी। उनका मानना था कि क्योंकि औरतें स्त्रीत्व के नामुनासिब मिथकों को तक नहीं पहुंच पाती थी, वे खुद को ‘असफल’ समझती है। खुद से यह पूछने कि जगह कि वे जिंदगी से क्या चाहती हैं, औरतें खुद को इसलिए गाली देती हैं क्योंकि वे वो नहीं कर पाती थी जो और लोग उनसे चाहते थे। इन सब के खिलाफ सिमोन ने ‘द सेकंड सेक्स’ में लिखा है। उन्होंने 14 अप्रैल 1986 को अपनी अंतिम सांसे ली। दुनिया उन्हें औरतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली, एक फ्रेंच लेखक, अस्तित्ववादी दार्शनिक, सामाजिक सिद्धांतकार, बुद्धिजीवी और राजनैतिक एक्टिविस्ट के तौर पर याद रखती है और याद रखेगी। ख़ास तौर पर नारीवादी अस्तित्ववाद और नारीवादी सिद्धांतों के बारे में उनके विचारों का हमेशा एक अलग ही स्थान रहेगा और नारीवाद की समझ उनके बगैर कभी पूरी नहीं हो पाएगी।
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Great Article Sonali. Very liberative and unbiased.