बीते साल जून की 22 तारीख को मद्रास हाई कोर्ट ने तिरुपुर ज़िले में हुए ‘ऑनर किलिंग’ केस में ऐसा फैसला दिया, जिसने सर्वाइवर कौशल्या को हैरान कर दिया। हुआ दरअसल यूं था कि इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई के दौरान कौशल्या को अपने साथ पढ़ने वाले शंकर से प्रेम हो गया, कौशल्या जहां पिछड़े वर्ग (ओबीसी) से आती थी, वहीं शंकर अनूसूचित जाति (शेड्यूल्ड कास्ट) से था। कौशल्या के परिवार ने इसपर आपत्ति जताते हुए उसे मारा-पीटा और शंकर से संबंध खत्म करने की चेतावनी दी। परिवार की नकारात्मक प्रतिक्रिया के कारण वे दोनों 12 जुलाई 2015 भाग गए और शादी कर ली। बाद में, 23 जुलाई को कौशल्या के परिवार ने उसका अपहरण कर लिया और उसे दोबारा धमकाया। शंकर की तहरीर पर कौशल्या वापस लौटी। एक साल बाद, तिरुपुर ज़िले के उडुमलपेट में दोनों बस का इंतज़ार कर रहे थे, तभी उनपर हमला हुआ, जिसमें शंकर की हत्या कर दी गई। कौशल्या को मृत समझकर छोड़ दिया गया, जो लगभग 6 महीने तक चले इलाज के बाद ठीक हुई। हाईकोर्ट ने इस मामले में आरोपी कौशल्या के पिता को बरी कर दिया।
यह इस तरह की पहली घटना नहीं है, बल्कि भारत में इस तरह के मामलों की बाढ़ है, जिनमें प्रेमी जोड़ों को मार दिया जाता है, और अधिकतर मामलों में उन्हें न्याय नहीं मिलता। विश्वविद्यालयों और बड़े शहरों की तरह छोटे शहरों और कस्बों की लड़कियों के लिए प्रेमी का हाथ पकड़कर सड़क पर चलना, किसी पार्क में बैठकर बहसें करना और चूम लेना उसकी जान जोख़िम में डालने वाली घटना हो सकती है। हालांकि प्रेमियों के लिए बड़े शहरों में भी स्वछंदता सीमित जगहों पर ही है, फिर भी छोटे शहरों, कस्बों और गांवों की तरह जान का ख़तरा अपेक्षाकृत रूप से कम होता है। असंगत रूप से ‘ऑनर किलिंग’ कही जाने वाली इस तरह की घटनाओं के पीड़ित छोटे शहरों के प्रेमी जोड़े होते हैं। ऐसे में यह सोचना ज़रूरी हो जाता है कि आख़िर भारतीय समाज में प्रेम संबंधों को लेकर इतनी क्रूरता और नकारात्मकता क्यों हैं?
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इस विमर्श में उतरने पर सीधा जवाब मिलेगा- जीवन में धर्म का हस्तक्षेप। भारतीय मुख्यधारा का जीवन धर्म और धार्मिक ग्रन्थों द्वारा गढ़ी गई नैतिकताओं से संचालित है। धर्म और धार्मिक संस्थाएं सामंतवादी दौर में समाज की केंद्रीय नियंत्रक शक्ति बनकर उभरे जिन्होंने औरतों को हमेशा पुरुषों से कमतर कहा और उनकी भूमिकाएं सीमित की। पूंजीवाद के आने पर धार्मिक कुलीन तबके और अधिक मज़बूत हुए क्योंकि यह हमेशा सामंतवाद की आड़ में आया। जैसे भारत में औपनिवेशवाद के रास्ते आए पूंजीवाद ने आर्थिक क्षेत्र में तो नवीन वैज्ञानिक तरीकों का समावेश किया लेकिन सार्वजनिक जीवन को नियंत्रित करने के लिए यहीं के धर्म-ग्रन्थों और धार्मिक ठेकेदारों द्वारा सुझाए गए माध्यमों का सहयोग लिया। इस तरह समाज में धर्म की मौजूदगी बनी रही।
लड़कियों को शुरू से ही पराया धन मानकर पाला जाता है और भाई की तुलना में उनके अधिकार सीमित होते हैं।
प्रेम धर्म और इसकी सामंतवादी प्रवृत्ति पर प्रहार करता है और समाज में बनाए गए अलग-अलग ढांचों को अस्वीकार करता है। मसलन, धर्म समाज के संचालन के लिए शादी की संस्था गढ़ता है, जिसमें पुरुष सर्वोच्च होता है और स्त्री उसकी दासी। ये संबंध परिवार नामक संस्थान की भागीदारी से निश्चित किए जाते हैं जो धर्म की गढ़ी नैतिकताओं को आधार मानकर पूरे किए जाते हैं। ये सभी संस्थान एक ही तरह के नियम से संचालित हैं और इसलिए विवाह, परिवार और समाज―हर जगह औरतें दोयम दर्जे की मानी जाती हैं और उनका शोषण होता है। ऐसे में प्रेम करने और प्रेमी चुनने में स्त्री चयन करती है और निर्णय लेती है। वह किस पुरुष के साथ अपना जीवन बिताना चाहती है, यह परिवार या समाज से परे पूरी तरह से उसका निर्णय होता है। यह लड़की के लिए महत्वपूर्ण रिश्ता होता है क्योंकि पहली बार वह किसी को एक अलग भूमिका में देखती है, जहां सब कुछ उसके अधिकार क्षेत्र में है, वह अपने साथी के बराबर होती है और उसपर कुछ भी थोपा नहीं गया है।
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लड़कियों को शुरू से ही पराया धन मानकर पाला जाता है और भाई की तुलना में उनके अधिकार सीमित होते हैं। ऐसी जगहों की लड़की को हमेशा उपेक्षित किया जाता है, उसे बड़े भाई से डांट मिलती है, मां से ससुराल जाने की ट्रेनिंग और पिता की टेढ़ी भौहों से इज़्ज़त का हवाला। ऐसे में उसके लिए किसी पुरुष द्वारा कोमल भावना में लिप्त व्यवहार किया जाना, हाथ का सहज स्पर्श और दुलार अथवा चिंता का भाव जीवन में अपनी तरह का पहला वाकया होता है, यहां वह खुलकर जीने के बारे में सोचती है और फिल्मों में देखे जीवन को सच करना चाहती है। इस तरह के संबंध लड़कियों को पहली बार अपने लिए ‘स्टैंड’ लेने की ताकत देते हैं। वे अपने अधिकारों को लेकर मुखर होती हैं और सामाजिक नियम और मूल्यों के ख़िलाफ़ विद्रोह करती हैं। साथ ही, बचपन से भेदभाव झेल रही लड़कियों के लिए उनके प्रेम संबंध सामाजिक परिप्रेक्ष्य में पहली दफा उनके लिए वह माहौल तैयार करते है, जहां वे अपना रोष-क्रोध प्रकट कर सकती हैं, रूठ सकती हैं और अपने साथी पर चिल्ला सकती हैं। प्रेम संबंध चूंकि आपसी समझ और बातचीत का स्थान देते हैं, ऐसे में लड़कियों के ‘कंसेंट’ यानी सहमति का महत्व होता है, जबकि वैवाहिक संस्थान में लड़कियों के ‘कंसेंट’ और ‘चॉइस’ का कोई महत्व नहीं होता।
दरअसल, यह समझना होगा कि समाज में औरतों की भूमिका ऐतिहासिक रूप से खत्म की गई है। आज हम उत्तर-आधुनिक विश्व में जी रहे हैं, जहां उदारवाद की अवधारणा में निहित पूंजीवाद अपने पांव पसार रहा है और लोक-कल्याणकारी राज्य का झूठ गढ़ रहा है। अब अगर समाज के संचालन तंत्र के अनुक्रम पर ग़ौर करें तो ऐसा माना जाता है कि आदिम साम्यवादी समाज के बाद दासता की व्यवस्था आई जिसके बाद सामंतवाद और आख़िर में पूंजीवाद की अवधारणा विकसित हुई। आदिम साम्यवादी समाज में लैंगिक आधार पर किसी भी तरह का विभेद नहीं था, इस तरह बाद के समाज में औरतों को जिस तरह के सामाजिक भेदभाव से गुजरना पड़ा, वह समाज के शुरुआती दौर में नहीं था। बाद में, श्रम विभाजन हुआ तब पुरुषों ने महिलाओं की सामाजिक भूमिकाओं को सीमित करते हुए उन्हें घरेलू काम सौंप दिए और बाहरी कार्यक्षेत्र, जिसे अपेक्षाकृत अधिक मुश्किल व महत्वपूर्ण माना गया, जैसे शिकार करना, वह अपने हिस्से में ले लिया। बाहरी क्षेत्र में रहने और सुरक्षा करने के लिए पुरुषों ने हथियार चलाने सीख लिए और बाहरी संसाधनों पर भी उनका कब्ज़ा हुआ। अब औरतें पुरुषों पर आश्रित हुईं और कमज़ोर कही गईं। सामंतवादी दौर में आर्थिक और सामाजिक रूप से स्त्रियों को और भी अधिक हीन और सीमित किया गया और उन्हें पहली पिता की, बाद में पति की संपत्ति बनाया गया। पूंजीवाद के आने और आधुनिक सभ्य समाज में प्रवेश करने पर भी सामंतवादी दौर में औरतों के लिए गढ़े मापदंड हटाए नहीं गए।
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इस प्रकार, व्यक्तिवादी व्यवस्था होने का इसका दावा तब खारिज़ हो जाता है, जब समाज आज भी औरतों को ‘व्यक्ति’ नहीं समझता। पुरुषों से इतर उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, आज भी उनके हर निर्णय को ‘परिवार के मान पर प्रहार’ मानकर दबा दिया जाता है और उन्हें कोई सम्मान नहीं दिया जाता। इसके साथ ही, सामंतवादी मूल्य धर्म और जाति के दायरों को अटूट बनाए रखना चाहते हैं। हिंदू ग्रंथ मनुस्मृति में सीधे तौर पर इस बात का उल्लेख किया गया है कि जातिगत दायरे नहीं तोड़े जाने चाहिए। ऐसा करने वाले स्त्री और पुरुषों को दंडित किए जाने और समाज से बहिष्कृत करने का विधान है। इस ग्रंथ में सामाजिक विधान तोड़कर शादी करने वाले जोड़ों के बच्चों को ‘चांडाल’ कहा जाता है। आज भी समाज में ख़ासकर छोटे शहरों में जातिगत विभेद बनाकर रखे जाते हैं। अलग-अलग धर्म अपने आप को दूसरी पहचान से पूरी तरह से अलग रखने की कोशिश करते हैं। ‘इज़्ज़त’ के दावे दरअसल, औरतों को नियंत्रित करने और उनकी आज़ादी को प्रतिबंधित करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। विवाह की संस्था असल में जाति व्यवस्था को मज़बूत करती है। इसलिए जातिगत आधार पर विवाह को बढ़ावा दिया जाता है और जो भी इसको चुनौती देता है, उसे हिंसात्मक प्रतिक्रिया मिलती है।
कौशल्या और शंकर के मामले में भी यही हुआ। अलग-अलग जाति से होने के कारण सामंतवादी मूल्यों के अनुगामी लोगों ने, उनके अपने परिवार ने उनकी हत्या की साज़िश की और ट्रायल कोर्ट में कौशल्या के परिवार के लोग दोषी भी पाए गए लेकिन सामंतवाद के वाहक राज्य (स्टेट) ने इस मामले में ट्रायल कोर्ट के ख़िलाफ़ अपील की और आखिरकार धर्म और उसकी सत्ता की जीत हुई और विद्रोह और स्वतंत्र चयन को कुचल दिया गया। लगातार कुचले जाने और सीमाओं के बावजूद प्रेम समाज मे निहित सामंतवादी मूल्यों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का स्वर बनकर उभरने से चूकता नहीं है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा 2018 में दिए गए आंकड़ो पर ग़ौर करने पर मालूम चलता है कि क़रीब 10,773 लोग अपने प्रेम संबंधों के ख़ातिर घरों से भाग गए थे। यह दर्शाता है कि लोग, ख़ासकर छोटे शहरों की लड़कियां दबाव के ख़िलाफ़ विद्रोह दर्ज कर रही हैं, हालांकि इसमें उन्हें अक्सर ही मार दिया जाता है और न्यायालयों में नए मामले चलते रहते हैं और कुछ नहीं बदलता।
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तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए