रमाबाई आंबेडकर की चर्चा शायद उतनी नहीं होती जितनी होनी चाहिए इसलिए आज हम अपने इस लेख में प्रेरणादायक और दृढ़-निश्चयी महिला रमाबाई के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलूओं से रूबरू होंगे। रमाबाई भीमराव आंबेडकर वह थी जिन्होंने बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के जीवन में एक प्रेरणा का काम किया। उन्हें आज भी लोग ‘मातोश्री’ रमाबाई या रमाई के नाम से जानते हैं। रमाबाई आंबेडकर के ज़िक्र के बगैर बाबासाहेब की सफ़लता की कहानी अधूरी है।
रमाबाई का जन्म 7 फ़रवरी 1898 को एक गरीब परिवार में हुआ था। वह अपने पिता भिकु धुत्रे और माता रुक्मिणी के साथ दाभोल के पास वंणदगांव में नदी किनारे महारपुरा बस्ती में रहती थी। उनकी तीन बहनें और एक भाई शंकर था। भिकु दाभोल मछलिओं से भरी हुई टोकरियां बाज़ार में पहुंचाकर अपना और अपने परिवार का पेट भरते थे। बचपन में रमा की मां की मौत बीमारी के कारण हो गई थी। कुछ दिन बाद उनके पिता का भी निधन हो गया। जिसके बाद रमा के चाचा उन्हें और उनके सारे भाई-बहनों को लेकर बंबई चले गए और वलंगकर और गोविंदपुरकर ने ही मिलकर सभी बच्चों की देखभाल की।
वह साल 1906 था जब रमाबाई और बाबा साहब आंबेडकर की मुलाकात हुई और उनकी शादी एक साधारण समारोह में कर दी गई। शादी के वक्त दोनों ही बेहद छोटी उम्र के थे। रमाबाई तो उस वक्त महज़ नौ साल की थी। डॉ. आंबेडकर उन्हें प्यार से ‘रामू’ बुलाते थे और रमाबाई उन्हें ‘साहेब’। डॉ आंबेडकर के अनुयायी रमाबाई को रामाई कहते थे। उन दोनों में शैक्षिक योग्यता का काफी अंतर था पर फिर उनका वैवाहिक जीवन सम्मान और समानता से परिपूर्ण था। भले ही रमा इतनी पढ़ी-लिखी नहीं थी पर फिर भी उन्हें ये समझने में तकलीफ नहीं हुईं कि पिछड़े तबकों का उत्थान कितना आवश्यक है। शादी के बाद रमाबाई और आंबेडकर के चार बेटे हुए गंगाधर, यशवंत, रमेश, राजरत्न और एक बेटी इंदु हुई लेकिन उनके पुत्र यशवंत को छोड़कर उनके सभी बच्चे छोटी उम्र में ही इस दुनिया से चले गए।
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डॉ.आंबेडकर जब अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए लंदन चले गए थे तब रमाबाई यहां भारत में अकेले ही घर और बच्चे संभालती रही। उन्होंने अपना और बाबा साहेब का मनोबल कभी टूटने नहीं दिया। पैसो की तंगी में कभी-कभी तो भरपेट खाना भी नसीब नहीं हो पाता था। वह हर छोटा-बड़ा काम कर आजीविका कमाती थी और साथ ही, बाबासाहेब की शिक्षा पूरी करने में भी उन्होंने अपना पूरा समर्थन दिया था जबकि लोगों ने न जाने उन्हें कितनी बातें सुनाई थी । लेकिन उन्होंने किसी की एक न सुनी क्योंकि रमाबाई यह समझती थी कि बाबासाहब आंबेडकर का बाहर जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करना कितना ज़रूरी है ताकि वह वापस भारत लौटकर पिछड़ों को शिक्षित करें और उन्हें सामाजिक भेदभाव से सुरक्षित कर सकें। आंबेडकर लंदन चले गए थे, वह रमाबाई के साथ रहते हुए भी उनके साथ उतना अधिक समय नहीं बिता पाए। इस बीच आंबेडकर की सामाजिक-राजनीतिक कार्यों में उनकी सक्रियता के आधार पर लगाया जा सकता है। डॉ आंबेडकर के लंदन जाने के बाद रमाबाई के जीवन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, आर्थिक तंगी, अस्वस्थता 4 बच्चों की मृत्यु आदि।
रमाबाई यह समझती थी कि बाबासाहब आंबेडकर का बाहर जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करना कितना ज़रूरी है ताकि वह वापस भारत लौटकर पिछड़ों को शिक्षित करें।
रमााई एक धार्मिक प्रवृति की महिला थी। उन्हें पंढरपुर के प्रसिद्ध मंदिर विठ्ठल-रुक्मणी जाने की बहुत इच्छा थी। मगर उस समय उस मंदिर में दलितों के प्रवेश की मनाही थी। डॉ आंबेडकर रमा को समझाते कि ऐसी जगह जाने से उनका कल्याण नहीं हो सकता जहां उनका प्रवेश भी निषेध हो। इसके बाद आंबेडकर ने रमाबाई से वादा किया था कि वह उनके लिए एक अलग पंढरपुर बनाएंगे। इसी घटना ने आंबेडकर और उनके पूरे परिवार को हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने के लिए प्रेरित किया। जिंदगी में असहनीय कष्ट सहने और असीम कुर्बानियों के बाद 27 मई 1935 को सुबह के 9 बजे लंबे समय से बीमार होने के कारण रमाईबाई का निधन हो गया।
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उनके निधन के करीब छह साल बाद 1941 में प्रकाशित अपनी किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ (Thoughts on Pakistan) बाबासाहब आंबेडकर ने रमाबाई को इन शब्दों में समर्पित की है-“उसके सुन्दर हृदय, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।” भीमराव को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाबाई की बहुत बड़ी भूमिका रही है, जिन्होंने हर मुश्किल परिस्थिति में बड़ी हिम्मत और धैर्य से काम लिया और बाबा साहब का भी हौसला बनी रही। जब भी हम इतिहास को बेहतर बनाने वाले ऐसे पुरुषों की बात करते हैं तो हमें ऐसी महिलाओं को भी नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने इन पुरुषों को सफल बनाने में अपना पूरा जीवन त्याग दिया।
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