लीला सेठ को भारतीय न्यायपालिका के एक सफल सदस्य के रूप में जाना जाता था। लीला सेठ कभी भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए बोलने से नहीं कतराती थी। लीला सेठ को यौन हिंसा और संपत्ति से जुड़े कानूनों को बदलने के लिए जाना जाता है। वह कानूनविदों और लोगों की एक आवाज़ थीं। लीला दिल्ली हाइकोर्ट की न्यायाधीश और, हिमाचल प्रदेश हाइकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश बनने वाली पहली महिला थीं। लीला सेठ का जन्म अक्टूबर 1930 में ऐसे परिवार में हुआ था जो दो लड़कों के बाद एक लड़की के पैदा होने पर बेहद खुश था। उनके पिता इंपीरियल रेलवे सर्विस में काम करते थे। लीला अपने पिता के काफी करीब थीं। जब वह 11 साल की थी तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी, जिससे उनका परिवार टूट गया था।
लीला सेठ के माता-पिता प्रगतिशील सोच के थे औऱ उन्होंने लीला और उनके भाइयों में कभी कोई अंतर नहीं किया। उन्होंने अपने तीनों बच्चों को समानता के मूल्यों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उनके पिता की मृत्यु के बाद उनकी मां ने पैसों की कमी के बावजूद लीला को दार्जिलिंग के लोरेटो कान्वेंट में पढ़ाया। स्कूली पढ़ाई खत्म होने के बाद लीला ने कोलकाता में स्टेनोग्राफर के रूप में काम करना शुरू किया। लीला सेठ की शादी प्रेम सेठ से हुई थी। शादी के कुछ साल बाद वह अपने पति के साथ लंदन चली गईं। उन्होंने लंदन में आगे की पढ़ाई करने का फैसला किया, उस समय तक वह एक बच्चे की मां बन चुकी थीं।
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लीला लंदन बार परीक्षा में टॉप करने वाली पहली महिला थीं। लीला के परीक्षा में उत्तीर्ण होते ही वह और उनके पति प्रेम सेठ भारत वापस आ गए। उन्होंने सिविल सेवाओं की परीक्षा में सफलता मिली जहां उन्हें आईएएस अधिकारी के रूप में चुना गया। हालांकि, कानून में करियर बनाने के बाद उन्होंने पटना में वकालत शुरू कर दी। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में वरिष्ठ वकील सचिन चौधरी के अधीन काम किया था। उन्होंने दस सालों तक पटना हाइकोर्ट में काम किया। शुरू में उन्हें हाइकोर्ट में ज्यादा काम नहीं मिलता और ज्यादातर पुरुष उन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाते थे। लीला को महिला होने के कारण अक्सर लोगों को ये समझाने में दिक्कत होती थी कि वह उनका केस अच्छे से लड़ लेंगी। इन धारणाओं के कारण उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब लीला को एक बलात्कार के मामले में अदालत में एकमात्र दूसरी महिला वकील के खिलाफ जाना पड़ा। पहले वह इस केस को लेकर काफी डरी हुई थीं लेकिन आखिरकार उन्होंने सर्वाइवर के पक्ष में इस केस को जीत लिया।
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लीला को महिला होने के कारण अक्सर लोगों को ये समझाने में दिक्कत होती थी कि वह उनका केस अच्छे से लड़ लेंगी।
पटना में 10 साल तक वकालत करने के बाद, उन्होंने 1972 में दिल्ली हाइकोर्ट में काम करने का फैसला किया। दिल्ली हाइकोर्ट में काम करने के साथ-साथ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं और आपराधिक मामलों को संभालना शुरू कर दिया था। कुछ ही सालों में उन्होंने अपनी एक पहचान बना ली थी। उन्होंने मुख्यधारा में कानूनी क्षेत्रों में बनी महिलाओं के प्रति कई धारणाओं को तोड़ा। 10 जनवरी, 1977 को उन्हें सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील की उपाधि मिली थी। साल 1978 में, उन्हें दिल्ली हाइकोर्ट की पहली महिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने जिमखाना क्लब की सदस्यता लेने से मना कर दिया था क्योंकि वह केवल पुरुष न्यायाधीशों के लिए था। साल 1991 में, जस्टिस लीला सेठ हाइकोर्ट की मुख्य न्यायधीश के रूप में नियुक्त होने वाली पहली महिला बनी थी और उन्हें हिमाचल प्रदेश के हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में चुना गया था।
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वह साल 1997 से साल 2000 तक भारत के 15वें लॉ कॉमिशन का हिस्सा थीं और उन्हें हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में बदलाव के लिए जाना जाता है। उन्होंने इस कानून में बदलाव कर पिता की संपत्ति में बेटियों को भी हक़ दिलाया था। वह जस्टिस वर्मा समिति की सदस्य भी थी, जिसे साल 2012 में दिल्ली में हुए गैंगरेप मामले के बाद भारत में रेप के कानून को देखने के लिए गठित किया गया था। न्यायमूर्ति लीला सेठ ने यह भी सिफारिश की थी कि रेप के कानून को लिंग के आधार पर ना बनाया जाए। समिति ने यह भी सुझाव दिया कि वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण किया जाए, लेकिन दुर्भाग्य से, इस सुझाव पर सरकार द्वारा सहमति नहीं दी गई। जस्टिस लीला सेठ ने चार किताबें लिखी हैं, जिनमें से एक उनकी आत्मकथा ‘ऑन बैलेंस’ है, जो उनके संघर्षों की कहानी है। उनकी किताब ‘हम भारत के बच्चे’ में उन्होंने देश के संविधान में निहित समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा के मूल्यों को बताया है। लीला सेठ निस्संदेह ही वह नारीवादी नायिका हैं, जिन्होंने पूरे देश में कई महिलाओं को कानून के क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया है। 5 मई, 2017 को लीला सेठ का 86 साल की उम्र में देहांत हो गया था। उनका उपलब्धियां उनके समर्पण औऱ दृढ़ता का परिणाम हैं। उनका जीवन हमारे लिए एक प्रेरणा है कि कभी हार मत मानो, कभी भी प्यार करना मत छोड़ो और समाज के बनाए नियमों पर सवाल उठाना बंद मत करो।
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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया
Kirti is the Digital Editor at Feminism in India (Hindi). She has done a Hindi Diploma in Journalism from the Indian Institute of Mass Communication, Delhi. She is passionate about movies and music.