समाजख़बर कोरोना टीकाकरण : क्या प्रिविलेज्ड समूह की सुरक्षा ही सरकार की प्राथमिकता है

कोरोना टीकाकरण : क्या प्रिविलेज्ड समूह की सुरक्षा ही सरकार की प्राथमिकता है

सरकारों को इसमें पोलियो के टीका मॉडल से सीखने की ज़रूरत है, जहां गांवों में कैम्प लगाया जाए, लोगों को जागरूक किया जाए और सबका टीकाकरण जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर विभेद किए बिना किया जाए।

कोरोना की दूसरी लहर से जूझते भारत के हालात दिन-ब-दिन बदतर होते जा रहे हैं। मुसीबतें सिर्फ़ इतनी नहीं हैं, विशेषज्ञों का मानना है कि जल्द ही देश कोरोना की तीसरी लहर का सामना कर रहा होगा और अत्यधिक नुकसान से बचने और ख़तरे को कम करने का एकमात्र उपाय मास वैक्सीनेशन यानि सामूहिक टीकाकरण है। इस हिसाब से, देशभर में व्यापक स्तर पर टीकाकरण सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए, लेकिन इस समय महत्वपूर्ण यह जानना है कि टीकाकरण के लिए सरकार की प्राथमिकता क्या है। इस बारे में सरकार की नीति पर ग़ौर करें तो 16 जनवरी से पहले चरण के तहत फ्रंटलाइन वर्कर्स को टीका लगवाने की सुविधा दी गई। वहीं दूसरे चरण में 60 साल से अधिक लोगों को अवसर दिया गया। इसी दौरान 20 मार्च के क़रीब जब देश के कुछ हिस्सों में आंकड़ों में उछाल आना शुरू हुआ था, तब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने अपनी कूपमंडूकता में डूबकर कहा  ‘सामूहिक प्रतिरक्षा’ (Universal Immunization) की कोई आवश्यकता नहीं है, हालांकि कुछ समय बाद ही सरकार ने इसकी जरूरत महसूस की और 45 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए 1 अप्रैल से टीकाकरण की सुविधा प्रदान की। इस समय तक भारत दूसरी लहर की चपेट में आ चुका था और फिर 18 अप्रैल को सरकार ने घोषणा की कि 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोगों के लिए 1 मई से टीकाकरण की सुविधा खोली जा रही है।

इस प्रकार, हम देखते हैं कि कोरोना से जूझने के लिए सरकारी नीति आयु वर्ग के हिसाब से तय की गई है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इस देश मे एक आयु वर्ग के सभी लोगों के पास एक समान अवसर मौजूद हैं? क्या महानगरों और गांवों की स्थितियां एक समान हैं और क्या किसी भी आपदा का असर सभी जाति समूहों पर एक समान पड़ता है? अगर ऐसा नहीं है तो आयु वर्ग को प्राथमिक आधार बनाकर टीकाकरण करने वाली सरकारी नीति न्यायसंगत नहीं है। ऐसे में भारतीय समाज की अलग-अलग संरचनाओं को नकारकर केवल ऊपरी दर्जे को फ़ायदा पहुंचाने वाली यह सरकारी नीति देखकर साफ़ हो जाता है कि प्रिविलेज्ड क्लास ही सरकार की प्राथमिकता है। 

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क्या है टीकाकरण की आधिकारिक प्रक्रिया ?

CDSCO यानी सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन द्वारा कोविड-19 के ख़िलाफ़ दो टीकों को मंज़ूरी दी गई है, जो सेरम इंस्टीट्यूट द्वारा विकसित ‘कोविशील्ड’ और भारत बॉयोटेक की ओर से विकसित ‘कोवैक्सीन’ है। आम जनता को टीका लगवाने के लिए पहले अपने आप को सरकार की कोविन वेबसाइट पर पंजीकृत करना होगा। उन्हें अपना एक सरकारी पहचान पत्र अथवा आधार अपलोड कर अपनी पहचान की पुष्टि करनी होगी। पंजीकरण के बाद टीकाकरण के लिए एक निश्चित तारीख़ और समय तय किया जाएगा। इस प्रकार, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि किसी नियत जगह जैसे ब्लॉक, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अथवा ज़िला अस्पताल जाकर टीकाकरण किया जा सकता है। टीका लगवाने के लिए अपने आप को कोविन ऐप पर पंजीकृत करना अनिवार्य है।

संक्रमण की श्रृंखला तोड़ने के लिए और कामकाजी वर्ग की सुरक्षा के लिए सरकार की इस जाति-वर्ग भेदभाव निहित नीति को बदलना ज़रूरी है।

कितनी भेदभावपूर्ण है यह प्रक्रिया

सरकारी टीकाकरण के ‘सेल्फ रजिस्ट्रेशन मॉड्यूल’ के भेदभाव को समझने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद डिजिटल डिवाइड की प्रवृत्ति जो गांवों और शहरों के बीच नई तकनीकों और सूचनाओं के प्रसार संबंधी अंतर को दर्शाती है, उसे जानना ज़रूरी हो जाता है। इसी बीच, ईकॉनमिक सर्वे 2020-21इट की रिपोर्ट ज़ारी कर यह स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि ग्रामीण इलाकों में स्मार्टफोन और इंटरनेट की मौजूदगी के आंकड़ों में 25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। यहां दो ज़रूरी सवाल हैं, पहला, बची हुई ग्रामीण जनता जिसके पास स्मार्टफ़ोन नहीं है, उसके बारे में सरकार की क्या राय है और दूसरा यह कि क्या जिनके पास स्मार्टफोन हैं, वे सभी कोविन का एक्सेस जानते हैं? क्या वे शहरी मध्यवर्ग की तरह तकनीकी रूप से कुशल हैं? क्या वे टीके संबंधी ज़रूरी जानकारियों से अवगत हैं? इन सब का जवाब ‘नहीं’ में है।

टीकाकरण की मौजूदा नीति न केवल वर्ग व शहरी-ग्रामीण आधार पर भेदभाव करती है, बल्कि जातिवादी दीवार भी खड़ी करती है। इस नीति में जातिगत आधार पर शोषित तबके, जो बेहद तंग जगहों पर रहते हैं और जिन्हें पर्याप्त पोषण नहीं मिलता और हर समय जिनके सिरपर रोजी-रोटी का संकट मंडराता है, उनके हक़ों को सिरे से खारिज़ कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए दाह संस्कार में शामिल डोम समाज के लोग, जो मृतकों का दाह-संस्कार करवाते हैं, दूसरों के घरों में बर्तन-झाड़ू करने वाली औरतें, धोबी जैसे समूह जो लगातार दूसरी जगहों पर काम करने जा रहे हैं। इन जातिसमूहों के संक्रमित होकर वापस लौटने का ख़तरा ज़्यादा है, लेकिन फिर भी न तो उन्हें वैक्सीन की ठीकठाक जानकारी है, न ही वे पंजीकरण की प्रक्रिया से अवगत हैं।

सरकारों को इसमें पोलियो के टीका मॉडल से सीखने की ज़रूरत है, जहां गांवों में कैम्प लगाया जाए, लोगों को जागरूक किया जाए और सबका टीकाकरण जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर विभेद किए बिना किया जाए।

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इस प्रकार हम देखते हैं कि संक्रमण की श्रृंखला तोड़ने के लिए और कामकाजी वर्ग की सुरक्षा के लिए सरकार की इस जाति-वर्ग भेदभाव निहित नीति को बदलना ज़रूरी है। सबसे पहले तो ग्रामीण इलाकों में ब्लॉक व जिला स्तर पर अधिकारियों द्वारा जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए और इंटरनेट और स्मार्टफोन पर निर्भरता ख़त्म कर वैक्सीन सबके लिए उपलब्ध करवानी होगी। अभी की नीति ऊपर से नीचे की ओर चल रही हैं, जिनके पास जानकारी है, वे लाभ पा रहे है और बाकी छूट जा रहे हैं। एक लोकतंत्र में होना तो यह चाहिए कि जो सर्वाधिक एक्सपोज़्ड है, पिछड़ा है, प्रक्रिया से अनजान है, उसे भी जीवन जीने का अधिकार औरों के समान ही मिलना चाहिए। 

प्राथमिकता निचला व ग्रामीण तबका क्यों होना चाहिए

भारत में शहरों की अपेक्षा गांवों की स्थिति ज़्यादा ख़राब है। 12 मई 2021 को टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ शहरों के कोरोना संबंधी आंकड़ों में गिरावट आई है, वहीं ज़िला स्तर के आंकड़ें यह बता रहे हैं कि गांवों और कस्बों की हालत लगातार ख़राब हो रही है। आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि कोविड वेव अब शहरों से गांवों में स्थानांतरित हो गया है। इन पिछड़े इलाकों में पर्याप्त टेस्टिंग सुविधाएं नहीं हैं। इस स्थिति को दैनिक भास्कर में छपी रिपोर्ट से समझा जा सकता है, जहां एक गांव में लाशें बहाते लोगों से मौत का कारण पूछने पर लोगों ने जवाब दिया कि टेस्ट हुआ ही नहीं है, इसलिए नहीं मालूम कि मौतें कोरोना से हुई हैं। फिर भी कुछेक जगहों पर उपलब्ध स्त्रोत बता रहे हैं कि बहुत से ऐसे ग्रामीण- ज़िले हैं, जहां हर दूसरा टेस्ट पॉज़िटिव आ रहा है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश सहित छत्तीसगढ़ में भी 50 प्रतिशत से अधिक केसेज़ गांवों से आ रहे हैं, वहीं कर्नाटक में भी ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमण की दर 44 प्रतिशत हो गई है।

इस स्थिति को देखते हुए, निचले वर्ग को प्राथमिकता बनाते हुए ग्रामीण इलाकों में टीकाकरण इसलिए जरूरी है क्योंकि शहरी मध्य वर्ग की तरह इन लोगों के पास घरों में बैठने का प्रिविलेज नहीं है। अगर ग्रामीण जनता के काम को देखें तो यहां किसानी और मज़दूरी करने वाले लोग हैं, जिनका काम मौसमी और दिहाड़ी होता है। किसान की समूची आजीविका का आधार खेती है, जिसको छोड़कर घर में बैठना उसके लिए संभव नहीं है। उसी तरह, बाहर लॉकडाउन लगने के कारण मज़दूर के लिए स्थानीय स्तर पर रोज़ाना काम करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है यानी बहुसंख्यक ग्रामीण जनता को उसके अस्तित्व के लिए लिए बाहर निकलना ज़रूरी है। बाहर निकलकर ये लोग अलग-अलग ऐसी जगहों पर काम करते हैं, जहां सामाजिक दूरी का पालन करना संभव नहीं होता, मसलन घरों की जोड़ाई करने वाले मज़दूर या मिल पर गेहूं बेचने गए किसान। दूसरी बात, ग्रामीण इलाकों में अक्सर परिवार में एक ही व्यक्ति काम करता है, जिसकी कमाई से पूरे परिवार का पेट भरता है। ऐसे में, उसके कोरोना संक्रमित होने पर न केवल उनके सामने रोटी का संकट पैदा हो जाएगा, बल्कि वे मानसिक व भावनात्मक तौर पर किसी भी अन्य तबके की अपेक्षा अधिक खतरे में होंगे।

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इसी संदर्भ में उत्तर प्रदेश सरकार की कोविड संचालन संबंधी एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए  इलाहाबाद हाइकोर्ट ने मंगलवार को केंद्र व राज्य सरकार से पूछा कि यदि 18 वर्ष की उम्र से अधिक के अनपढ़ मज़दूर और अन्य ग्रामीण ऑनलाइन पंजीकरण नहीं कर पाते हैं तो उनका टीकाकरण कैसे किया जाएगा। हालांकि इस संबंध में अभी सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया है लेकिन तमाम विशेषज्ञ यह सलाह दे रहे हैं कि 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के टीकाकरण के लिए भी सरकारों को वही रुख अपनाना चाहिए, जो देर से 45 वर्ष की अधिक आयु के लोगों के लिए अपनाया गया है, यानी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर जाकर सीधा टीका लगवाने की सुविधा।अब ज़िम्मेदारी सरकारी तंत्रों पर है। समस्या हाथ से निकलती जा रही है। अगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य जहां एक बड़ी ग्रामीण आबादी निवास करती है, के मौजूदा हाल पर ध्यान दें तो यहां के 19 ज़िले हॉटस्पॉट बने गए हैं और 40 ज़िले ‘पोटेंशियल हॉटस्पॉट’ की श्रेणी में हैं। कुल मिलाकर, 75 प्रतिशत ज़िले के लोग खतरे से जूझ रहे हैं लेकिन फिर भी अधिकतर जगहों पर 18 वर्ष की उम्र से अधिक समूह के लोगों के लिए टीकाकरण शुरू नहीं हुआ।

इसी बीच, यह भी ध्यान रखना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में टीकाकरण को लेकर तमाम तरह के मिथक फैले हुए हैं। स्थानीय निवासी इसको लेकर सहज नहीं हैं। रोज़ उड़ती हुई अफवाहों से ग्रामीण संरचना के ऊपरी लेयर के लोग भी टीकाकरण को लेकर नकारात्मक धारणाएं बना चुके हैं। ऐसे में सरकारों को इसमें पोलियो के टीका मॉडल से सीखने की ज़रूरत है, जहां गांवों में कैम्प लगाया जाए, लोगों को जागरूक किया जाए और सबका टीकाकरण जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर विभेद किए बिना किया जाए।

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तस्वीर साभार : The Wire

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