समाजख़बर मरती जनता, कोविड-19 और सत्ता की ‘टॉक्सिक पॉज़िटिविटी’

मरती जनता, कोविड-19 और सत्ता की ‘टॉक्सिक पॉज़िटिविटी’

इस भयावह दौर में भी सकारात्मक रहने की सलाह देना एक विशेषाधिकार है और सत्ता इस विशेषाधिकार से भरी हुई है। वह जनता के अंदर इस मंत्र को फीड करना चाहती है, "जो हुआ उसे भूलकर आगे बढ़ें।"

अंग्रेज़ी का एक शब्द है, ‘टॉक्सिक पॉज़िटिविटी।’ आसान शब्दों में अगर इसका मतलब समझने की कोशिश करें तो टॉक्सिक पॉज़िटिविटी का मतलब है, चाहे स्थिति कितनी भी गंभीर क्यों न हो लोगों को एक सकारात्मक रवैया अपनाए रखना चाहिए, सिर्फ अच्छी बातों के बारे में सोचना चाहिए। अगर इस शब्द की परिभाषा पर हम ध्यान दें तो पाएंगे कि यह शब्द कोविड-19 महामारी के दौरान मोदी सरकार के सबसे पसंदीदा शब्दों में से एक रहा होगा। तभी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर हर केंद्रीय मंत्री गाहे-बगाहे पॉज़िटिव रहने, हिम्मत बनाए रखने की सलाह देता नज़र आता है। सकारात्मक रहने और ऐसा करने की सलाह देने में कोई बुराई नहीं है। ऐसा करना तब गैरज़िम्मेदाराना हो जब आप उस देश के सरकार में शामिल हो, खासकर उस देश के जो कोविड-19 की दूसरी लहर के कारण पस्त पड़ चुका है। ऐसा करना असंवेदनशील है, तब है जब आप उस देश के प्रधानमंत्री हो जहां लगातार एक महीने तक अलग-अलग राज्यों में ऑक्सीज़न की कमी के कारण हज़ारों मरीज़ों की मौत हुई हो। ऐसा करना तब तर्कहीन नज़र आता है, जब जिस सत्ता को लोगों के सवालों के जवाब देने चाहिए, उन्हें राहत पहुंचानी चाहिए थी तब वह जनता को कहती रही है, ‘सकारात्मक रहो।’

हमारे देश में फिलहाल टॉक्सिक पॉज़िटिविटी सिर्फ सकारात्मक सोचने तक ही सीमित नहीं रह गई। सत्ता सकारात्मक रहने का उपदेश देने की आड़ में देश की एक बड़ी आबादी जिस मानवीय संकट से गुज़र रही है उसे लेकर हमेशा ही ‘डिनायल मोड’ में रही है। इससे पहले भी मोदी सरकार ने इसी प्रक्रिया को अपनाया है। नोटबंदी, कश्मीर का मानवाधिकार संकट, सेंट्र विस्टा प्रॉजेक्ट में पैसे की बर्बादी, कोविड के कारण हो रही मौतें। इन सब समस्याओं में सरकार की जबावदेही तय होनी चाहिए थी लेकिन हमारी सरकार बड़ी चालाकी से इन सब समस्याओं को लेकर डिनायल मोड में चली जाती है। आप लाख सवाल पूछें, चीखें-चिल्लाएं लेकिन सरकार वही सुर अलापती रहेगी और आपकी समस्या के अस्तित्व को ही झुठला देगी।

मरते लोगों के बीच अपनी छवि बचाने की जुगत

अपनी छवि को हमेशा सकारात्मक रखना, हेडलाइन मैनेजमेंट, ज़मीनी स्तर पर काम न करने के बावजूद भी हमेशा सरकार का डंका बजता रहे, ये दोनों ही केंद्र सरकार के लिए हमेशा ज़रूरी रहे हैं। इस महामारी के दौर में भी सरकार ने अपनी इस दोंनो प्राथमिकता को पीछे नहीं छोड़ा। देश का तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया भले ही सरकार के दबाव में हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया पर तो ऐसा कोई दबाव नहीं है। हाल ही में न्यूज़ वेबसाइट द कॉन्वर्सेशन द्वारा ट्विटर पर करवाए गए एक पोल के मुताबिक भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोविड-19 की स्थितियों को संभालने में दुनिया का सबसे खराब नेता चुना गया। इस पोल में पीएम नरेंद्र मोदी को सबसे अधिक, करीब 90 फीसद वोट्स मिलें।

 

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वहीं, द कॉन्वर्सेशन द्वारा इसी मुद्दे पर छापे गए लेख के मुताबिक नरेंद्र मोदी के बाद इस लिस्ट में ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेर बोलसनारो, बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर लुकाशेंको, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और इसके बाद मेक्सिको के राष्ट्रपति एंड्रेस मैनुअल लोपेज ओब्रेडोर का नाम शामिल है। इस लेख में नरेंद्र मोदी सरकार के बारे में कहा गया कि मार्च में भारत के स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि कोविड-19 अपने खात्मे पर पहुंच रहा है, लेकिन भारत ने आने वाले संक्रमण की कोई तैयारियां नहीं की थी। इस लेख में मोदी सरकार द्वारा कोविड-19 के बीच आयोजित की गई चुनावी रैलियों, कुंभ मेले का भी ज़िक्र किया गया है।

सकारात्मक रहने और ऐसा करने की सलाह देने में कोई बुराई नहीं है। ऐसा करना तब गैरज़िम्मेदाराना हो जब आप उस देश के सरकार में शामिल हो, खासकर उस देश के जो कोविड-19 की दूसरी लहर के कारण पस्त पड़ चुका है।

हालांकि यह पहली बार नहीं है जब किसी अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान ने कोविड-19 को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना की है। अप्रैल से लेकर अब तक कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने कोविड-19 को लेकर भारत सरकार की नीतियों, प्रधानमंत्री मोदी की जमकर आलोचना की है। हालांकि, हमेशा की तरह इस आलोचना को भी भारत की छवि खराब करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश ही करार दिया गया। जब अंतरराष्ट्रीय और वैकल्पिक मीडिया भारत की असली हकीकत दुनिया के सामने ला रहे थे, तब भारत सरकार ने ‘सरकारी’ मीडिया की पहुंच बढ़ाने का फैसला किया। भारत सरकार ने दूरदर्शन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लॉन्च करने का फैसला किया है। ऐसा करने के पीछे का उद्देश्य है दुनिया के सामने भारत का पक्ष रखना। दुनियाभर में कोविड-19 की स्थिति को लेकर हुई आलोचना के बाद सरकार के इस फैसले का सामने आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सरकार की छवि को राष्ट्रीय स्तर पर ‘पॉज़िटिव’ बनाए रखने के लिए मेनस्ट्रीम मीडिया मौजूद है ही। अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार अपने इसी ‘पॉज़िटिव’ नैरेटिव को बनाए रखने में कितनी सफल होती है, यह तो आनेवाला वक्त बताएगा।

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छवि को सकारात्मक बनाए रखने की पराकाष्ठा देखिए, हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट कहती है कि देश के करीब 300 वरिष्ठ अधिकारियों ने उस वर्कशॉप में हिस्सा लिया जिसका उद्देश्य था, सरकार की सकारात्मक छवि बनाना, सरकार को संवेदनशील, मज़बूत, मेहनती, त्वरित, उत्तरदायी दिखाना। इन सभी शब्दों को ध्यान से देखा जाए तो कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान केंद्र सरकार इनमें से एक भी शब्द की परिभाषा में दूर-दूर तक फिट नहीं बैठती। अगर ऐसा होता को आज भारत उन तीन देशों में शामिल न होता जहां कोविड-19 के कारण अब तक तीन लाख से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई है। ध्यान रहे कि तीन लाख का यह आंकड़ा सरकारी आंकड़ा है। ग्रामीण इलाकों में हो रही मौत, गंगा के रेत में दबी लाशें अब तक इन आंकड़ों का हिस्सा नहीं बन पाई हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान रॉटर्स समेत कई अन्य संस्थान उत्तर भारत के ग्रामीण हिस्सों में कोरोना संक्रमण की गंभीरता को तस्वीरों को सामने लेकर आए। अचानक से गंगा में उतराती लाशें, रेत में दबी पड़ी लाशें कोरोना की भयावहता का सबूत हैं।

इस भयावह दौर में भी सकारात्मक रहने की सलाह देना एक विशेषाधिकार है और सत्ता इस विशेषाधिकार से भरी हुई है। वह जनता के अंदर इस मंत्र को फीड करना चाहती है, “जो हुआ उसे भूलकर आगे बढ़ें।”

सत्ता के पास हर चीज़ का स्पष्टीकरण है

ऑक्सीजन की कमी से लेकर कोविड-19 से हुई मौतों तक का स्पष्टीकरण सरकार और उसके प्रतिनिधियों के पास मौजूद है। उदाहरण के तौर पर बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय का यह ट्वीट देखिए, जिसमें वह पूछ रहे हैं कि क्या यह पहली बार है जब गंगा में लाशें बह रही हैं। संदर्भ के तौर पर उन्होंने साल 2015 की एक रिपोर्ट ट्वीट की है और तत्कालीन अखिलेश यादव की सरकार पर सवाल उठाए हैं। अगर इस तर्क की मानें तो चूंकि साल 2015 में ऐसा हो चुका है तो साल 2021 में भी ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं है। आप इस ट्वीट मात्र से सरकार की असंवेदनशीलता का अंदाज़ा लगा सकते हैं, आखिर अमित मालवीय सरकार का नैरेटिव तय करने में एक महत्वपूर्ण ओहदा रखते हैं तो उनकी असंवेदनशीलता, सरकार की ही असंवेदनशीलता मानी जानी चाहिए।

हरियाणा में भी बीजेपी की ही सरकार है। वहां के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कोविड-19 से जान गंवाने वाले लोगों के लिए कुछ इन शब्दों का इस्तेमाल किया था, “शोर मचाने से मरे हुए लोग वापस नहीं लौटेंगे। मर चुके लोगों के आंकड़ों पर बहस करने का कोई मतलब नहीं।” ऐसा मनोहर लाल खट्टर ने कोविड-19 से हुई मौत के आंकड़ों पर उठाए गए सवाल के जवाब में कहा था।  पॉज़िटिव रहने का आलम यह है कि आरएसएस की कोविड रेस्पॉन्स टीम ने ‘पॉज़िटिविटी अनलिमिटेड’ नाम के एक कार्यक्रम तक का आयोजन किया। इस कार्यक्रम के प्रमुख स्पीकर्स में से कुछ चंद नाम ये थे- सद्गुरु जग्गी वासुदेव, अज़़ीम प्रेमजी फाउंडेशन की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत आदि। ये सारे नाम वर्ग, जाति, ताकत सभी आधारों पर इस देश के सबसे प्रभावशाली लोगों में शामिल हैं। इन्हें अगर किसी स्वास्थ्य सुविधा की ज़रूरत पड़ेगी तो शायद ही ऐसा हो कि इनके परिवारजन एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भागते फिरे। इसलिए तो ऐसा मुमकिन हो सका कि ये इस दौर में भी सकारात्मक रहने पर उपदेश दे पाएं। ऐसे कार्यक्रम प्रिविलेज्ड लोगों द्वारा प्रिविलेज़्ड लोगों के लिए आयोजित करवाए जाते हैं।

इस भयावह दौर में भी सकारात्मक रहने की सलाह देना एक विशेषाधिकार है और सत्ता इस विशेषाधिकार से भरी हुई है। वह जनता के अंदर इस मंत्र को फीड करना चाहती है, “जो हुआ उसे भूलकर आगे बढ़ें।” सरकार कोई प्रवचनन का चैनल या सीडी नहीं है जिसकी जवाबदेही तय नहीं की जा सकती। सरकार का चुनाव ‘फील गुल’ के संदेश देने के लिए नहीं किया जाता। इसलिए सरकार के इस टॉक्सिक पॉज़िटिविटी वाले रूप को हमें नकारने की ज़रूरत है।

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तस्वीर साभार : Amit Dave, Reuters

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