आज बड़े दिनों बाद अपने स्कूल की तरफ ध्यान गया तो सोचने लगी कि कैसे मेरे स्कूल ने मुझे एक पहचान दी। महज़ मुझे ही क्यों? आप सभी के स्कूल ने आपको एक पहचान दी होगी। एक पहचान के साथ आपको दिया होगा सोचने का एक नज़रिया। नज़रिया दुनिया को देखने का। आपके भी आसपास की कई लड़कियों ऑल गर्ल्स स्कूल में पढ़ती होंगी। अब मेरे दिमाग में तुरंत यह सवाल उठा कि क्या ये लड़कियों वाले स्कूल को-एड स्कूलों के मुकाबले लैंगिक रूप से अधिक जागरूक और संवेदनशील होते हैं? क्या जो लड़कियां केवल लड़कियों के स्कूल में पढ़ी हैं, उन्होंने कभी यह सोचा कि आखिर यह लैंगिक अंतर क्यों मौजूद है? इसका जवाब खोजना शायद मेरे लिए या आपके लिए एक आसान बात होगी। इसका सीधा-सीधा संबंध हमारे समाज में पितृसत्तात्मक सोच से है। कहने का मतलब यह है कि अगर लड़कियां केवल लड़कियों के स्कूल में पढ़ेंगी तो वे लड़कों से एक उचित दूरी पर रहेंगी और उनके ‘बिगड़ने’ की संभावना भी कम होगी। यह बात मैंने अपने आस-पास के तमाम उन लोगों से सुनी हैं जिनकी बेटियां मेरी तरह एक लड़कियों के स्कूल में पढ़ती हैं। बहरहाल, जब मैंने इस विषय को लेकर अपने माता-पिता से बात की तो मेरा लड़कियों वाले स्कूल में पढ़ने का कारण कुछ और था।
अगर सह-शैक्षिक (को-एड) स्कूलों की बात की जाए तो वहां भी लैंगिक असमानता साफ़-साफ़ देखी जा सकती है। कक्षा में लड़के और लड़कियों को अलग बैठाकर या उनकी कक्षा अलग करके लैंगिक अंतर आसानी से महसूस किया जा सकता है। समाज में जहां बच्चों को बचपन से ही लड़का और लड़की होने के मायने समझा दिए जाते हैं। अगर मेरे स्कूल यानि लड़कियों की स्कूल की बात करें तो यह आसानी से देखा जा सकता है कि कैसे मेरा यह ‘ऑल गर्ल्स स्कूल’ भी लैंगिक भेदभाव की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। कैसे शिक्षकों का बात- बात पर यह याद दिलाना की हम लड़कियां हैं और हमें लड़कियों की तरह रहना चाहिए। वैसे यह लड़कियों की तरह रहना हमारे घरवालों के साथ-साथ हमें स्कूल वालों ने भी बखूबी सिखाया। जहां, लड़कों से घर में बात करने पर मनाही आम बात है लेकिन अगर कोई लड़की स्कूल की छुट्टी के बाद स्कूल से बाहर किसी लड़के से बात करती नज़र आ जाती थी तो अगले दिन उसे ‘बिगड़ी’ लड़की घोषित करना जैसे सबका अधिकार हो जाता था। लड़कियों के स्कूल का भी पितृसत्तात्मक वातावरण हमें यही सिखाता है कि लड़कियों को लड़कों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए जिससे की आगे जाकर हम भी इस बात में विश्वास करने लग जाते हैं। स्कूलों में दी गई यही सोच हमारे समाज में पहले से मौजूद लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देती है। लड़कियों के स्कूल में केवल महिला टीचर और लड़कों के स्कूल में पुरुष टीचर का होना भी एक लैंगिक आसमानता को दर्शाता है।
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लड़कियों के स्कूल में अनुशासन की बात करें तो अनुशासन का दूसरा नाम दो चोटियां और रिबन हैं। क्या आपके अंदर अनुशासन दो चोटियों से आता है? क्या वाकई इन सब से फ़र्क पड़ता है कि आखिर हमारे बाल हमने कैसे बनाए हैं या हमने अपनी आखों में काजल लगाया है या नहीं या फिर हमारे बालों में रिबन है या नहीं। क्या ये सब चीज़ें हमारी ज़िंदगी में अनुशासन लाती हैं? दूसरी तरफ देखा जा सकता है कि बच्चों को उनके रंग, रूप, वेश और भाषा के आधार पर जज करना जैसे स्कूल में एक आम बात है। जब मैं ग्यारवीं कक्षा में थी, तो मुझे मेरे स्कूल का एक किस्सा अभी भी याद है कि कैसे मेरी दोस्त को डांस ग्रुप से यह कहकर निकाल दिया गया कि वह पतली दिखती है। हम कैसे दिखते हैं, क्या इससे कोई असर पड़ता है हमारी काबिलियत पर। इसके साथ ही शिक्षकों का बच्चों के शरीर पर टिप्पणी करना, उनमें आत्मविश्वास की कमी को बढ़ावा देता है और वही बच्चा अपने आप को दूसरों से कम आंकने लग जाता है। जहां हम अपने स्कूलों से एक समावेशी सोच की उम्मीद रखते हैं, वहां ऐसे किस्सों का होना एक आम बात है।
अगर कोई लड़की स्कूल की छुट्टी के बाद स्कूल से बाहर किसी लड़के से बात करती नज़र आ जाती थी तो अगले दिन उसे ‘बिगड़ी’ लड़की घोषित करना जैसे सबका अधिकार हो जाता था।
स्कूल में लड़कियों को कभी भी ‘नो मैरिज कॉन्सेप्ट’ से रूबरू नहीं कराया गया। टीचर यह ताने देने में लड़कियों को कभी भी पीछे नहीं छोड़ती कि आगे जाकर जब शादी होगी या बच्चे होंगे फिर पता चलेगा। शिक्षकों का ऐसे बात करने का तरीका कहीं न कहीं बच्चों को उनसे दूर ले जाता है। हमारे स्कूल में कभी भी लैंगिक अध्ययन, यौन शिक्षा, प्रजनन शिक्षा के बारे में न के बराबर बात होती। लैंगिक शिक्षा के अभाव के चलते एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के बारे में हमें कुछ पता ही नहीं होता और हम अपने पूर्वाग्रहों के साथ बड़े होते चले जाते हैं। लड़कियों का स्कूल होने के बावजूद स्कूल में कभी भी पीरियड्स और महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर खुलकर बात नहीं की गई। स्कूल में बच्चों से जब इन सब मुद्दों के बारे में खुलकर बात नहीं होती तो हम यह कैसे बच्चों से उम्मीद कर सकते हैं कि वे आगे जाकर अपनी एक समावेशी सोच का निर्माण कर सकेंगे। साथ ही स्कूल में मौलिक अधिकारों या महिलाओं के अधिकारों की बात किताबों तक ही सीमित रही| स्कूल में सिर्फ बच्चों की किताबी पढ़ाई पर ध्यान दिया जाता है लेकिन कभी भी उनके शारीरिक, मानसिक और खासकर सामाजिक विकास की बात नहीं की जाती है।
घरों के साथ- साथ स्कूलों में भी पितृसत्ता की पकड़ को आसानी से देखा जा सकता है कि कैसे लड़कियों को स्कूल में शिक्षा के साथ- साथ उन्हें एक ‘अच्छी लड़की’ बनने की ट्रेनिंग दी जाती है। वहीं, अगर कोई लड़की एक अच्छी लड़की बनने से इनकार कर दे तो उसके व्यक्तित्व, उसकी सोच को पितृसत्ता के विचारों तले कुचल दिया जाता है। शिक्षकों का लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देना, बच्चों के बीच लैंगिक अंतर की दीवार को और बड़ा कर देता है। दूसरी ओर सारा भार शिक्षकों के ऊपर डालना भी स्वाभाविक बात नहीं होगी क्योंकि कहीं न कहीं वे भी इस पितृसत्तात्मक सोच का शिकार हैं और इसी समाज का हिस्सा लेकिन बच्चों को इस पितृसत्तात्मक सोच के तले दबाना भी एक सही बात नहीं है। स्कूल में पढ़ी हुई गिनती जैसे हमें हमारे जीवन भर काम आती है तो वहां सीखे गए लैंगिक भेदभाव, उससे जुड़ी गतिविधियां हमारे आगे के व्यक्तित्व में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। अगर हमारे बचपन में हमें एक समावेशी सोच रखने की सीख दी जाती तो आगे जाकर शायद हम समाज के एक समावेशी नागरिक बनने के लिए तैयार हो पाते लेकिन स्कूल में इन सभी चीजों के बारे में विचार न होना हमें, हमारे विचारों को बेहद प्रभावित करता है।
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तस्वीर साभार : Counterview