बीते 17 मई को छत्तीसगढ़ के सुकमा के सिलगेर में नया सीआरपीएफ कैंप लगाए जाने के खिलाफ़ शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन करने वाले आदिवासियों पर सीआरपीएफ जवानों ने फायरिंग की। इस घटना में तीन लोगों की मौत के साथ 18 गम्भीर रूप से घायल हुए। बस्तर पुलिस का दावा है कि मारे गए लोग नक्सली थे। इसके अगले ही दिन शहर के अखबारों और देशभर के मेनस्ट्रीम मीडिया में खबर आती है कि ‘मुठभेड़ में तीन नक्सली मारे गए।’ जबकि स्थानीय लोग और एक्टिविस्ट्स इस दावे को सिरे से खारिज कर रहे हैं। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस घटना पर बनी फैक्ट फाइनडिंग टीम जिसमें एक्टिविस्ट बेला भाटिया और ज्यां द्रेज़ शामिल हैं, उनका कहना है कि पुलिस का यह दावा कि सीआरपीएफ कैंप के ख़िलाफ प्रदर्शन करने वाले आदिवासियों में माओवादी भी शामिल थे, अजीब है।
आपको बता दें, बस्तर पांचवी अनुसूची क्षेत्र में आता है जिसके अनुसार संविधान का अनुच्छेद 244 (1) लागू होता हैं जिसके मुताबिक इन इलाकों में विधानसभा या राज्यसभा द्वारा बनाया गया कोई भी सामान्य कानून लागू नहीं होता,आदिवासियों को पूर्ण स्वशासन और नियंत्रण की शक्ति विधि द्वारा प्राप्त है।” आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के कारण यहां किसी भी तरह के कार्य के लिए शासन और प्रशासन को पेशा कानून के तहत ग्राम सभा से प्रस्ताव पारित कराना अनिवार्य है, लेकिन सरकार ने इसे दरकिनार कर सीआरपीएफ जवानों को आदिवासियों की ज़मीन पर कैंप लगाने का आदेश दे दिया। साल 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने आदिवासियों को केंद्र में रखते हुए जन घोषणा पत्र तैयार किया जिसमें 36 लक्ष्य के साथ आदिवासियों के हित में काम करना उनका प्रमुख लक्ष्य था। इस घोषणापत्र में नक्सली इलाकों में फर्जी मामलों को रोकने का वादा करते हुए तीन महीने में मामलों की जांच की बात कही गई थी। साथ ही ऐसे तमाम संवैधानिक अधिकार जो आदिवासियों के हित में हैं उन पर भी ज़ोर दिया गया था। जैसे पेशा कानून, भूअधिकार, वन अधिकार पट्टा इत्यादि। सिलगेर में जो हुआ यह कोई नया मामला नहीं है। पिछले 15 सालों में बीजेपी की सरकार ने आदिवासियों पर दमनकारी नीतियों से जल जंगल जमीन हड़प वहां कई कैंप लगाए। आदिवासियों के साथ अन्याय और अत्याचार किया। कांग्रेस की जीत का बड़ा कारण पिछली रमन सरकार का आदिवासियों के खिलाफ़ दमनकारी नीति था। बस्तर के 12 विधानसभा सीटों में 11 सीट पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी। बस्तर की जनता ने बदलाव की उम्मीद से कांग्रेस की सरकार को चुना। सरकार बनते ही सीएम भूपेश बघेल ने कहा “नक्सलियों से बंदूक के बल पर नहीं लड़ा जा सकता हमें आदिवासियों को ध्यान में रखते कड़े फैसले लेने होंगे।”
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छत्तीसगढ़ में हर बार विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन, पेनठाना (देव स्थल) जंगल पहाड़ उजाड़कर पूंजीपतियों को खनिज माइनिंग के लिए दिया जा रहा है और इसके लिए फोर्स का सहारा लिया जाता रहा है। आदिवासियों का अस्तित्व जंगल से जुड़ा है। वे उन जंगलों को पूजते हैं। जंगल ही उनके जीविकोपार्जन का साधन है और ज्यादातर चीज़ों के लिए वे अब भी जंगल पर ही निर्भर हैं। गांव के लोग जब जंगल में वनोपज (महुआ तेंदू साल बीज) एकत्र करने जाते हैं तब सीआरपीएफ के जवान नक्सली कहकर आदिवासियों के साथ मारपीट करते हैं। आखेट और सुखी लकड़ियां के लिए जाते आदिवासियों के तीर, धनुष, टंगिया को छीनकर कहा जाता है कि यह पारंपरिक हथियारों से लैस नक्सली हैं। पिछले साल मार्च में है महुआ इकट्ठा करते 22 वर्षीय बुधरू मंडावी को फर्जी एनकाउंटर में मारा गया। ग्रामीण न्याय की आस में ज़िद पर अड़े रहे कि वह नक्सली नहीं और उसकी हत्या की गई है। जिस सरकार ने सालों से जेल में बंद निर्दोष आदिवासियों की रिहाई के लिए टीम गठित की गई थी, वही सरकार इस टीम के सदस्यों को अब नक्सली समर्थक कहकर जेल भेज रही है।
छत्तीसगढ़ के ही एक हिस्से में जब डीएम आम नागरिक को मारता है उसका मोबाइल तोड़ देता है तब वायरल होते वीडियो को देखते हुए पूरा देश इसके खिलाफ आवाज बुलंद करता है और कुछ घंटों में सीएम भूपेश बघेल डीएम पर कार्रवाई करते हुए बर्खास्त करते हैं साथ ही उस लड़के को नया मोबाइल दे दिया जाता है।
आपने सलवा जुडूम (शांति यात्रा) के बारे में पढ़ा होगा जिसे बस्तर का अब तक का सबसे बड़ा नरसंहार माना जाता है। कैसे सरकार ने आदिवासी इलाकों में नक्सलियों के खात्मे और उन तक पहुंचने के लिए गांव के नाबालिग बच्चों को हथियार पकड़ाया था। सलवा जुडूम के ज़रिए हजारों गांव खाली करवाए गए, घरों को जलाकर गांव वालों को पुनर्वासन के लिए अस्थायी कैंपों में भेज दिया गया। जो इसके खिलाफ जाते उन्हें नक्सली समर्थक कह जेल में डाला जाता। कई आदिवासियों की निर्मम हत्या की गई। कई महिलाओं के साथ हिंसा हुई। इस विस्थापन में लाखों आदिवासी अपने पड़ोसी राज्यों के सीमा पर बस गए जिनका रिकार्ड शासन के पास नहीं है। अब भी बस्तर के कई आदिवासी गांव वीरान पड़े हुए हैं। बीजेपी शासन ने जिस आदिवासी नेता की अगुवाई में नक्सलियों के बहाने आदिवासियों का समूल नष्ट करने का अभियान चलाया उसी आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा के नाम अब वर्षों पुराने स्कूल कॉलेजों को इनका नाम देकर “आदिवासियों का मसीहा” बनाने में तुली हुई है।
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नक्सली उन्मूलन के नाम पर केंद्र सरकार से एक बड़ा फंड हर साल छत्तीसगढ़ सरकार को मिलता है। इस फंड को लेकर भी कई गड़बड़ियां सामने आई हैं। मुख्यधारा में शामिल करने के बहाने किसी गांव के आदिवासी को इनामी नक्सली या आत्मसमर्पण नक्सली कह कर पेश किया जाता है। लोन वार्रन्टु (घर वापसी) जैसी योजनाएं चलाकर 14–15 साल के बच्चों को चेक लिस्ट प्रदान करते हुए अखबारों में खबर छपवाई जाती हैं और कई बार इन्हीं 14 साल के बच्चों को नक्सली के नाम पर मार दिया जाता है। बस इसीलिए कि यह बच्चे अपनी जरूरतों के लिए जंगलों में भ्रमण करते नजर आते हैं। बहरहाल, बीजेपी के लिए आदिवासियों की समस्याएं कभी डिबेट का मुद्दा नहीं रहीं। सरकार में रहते बीजेपी ने उनके साथ अन्याय किया अब विपक्ष में रहते हुए भी सरकार से कोई सवाल नहीं कर रहा है। उनका मुख्य कार्य आदिवासियों में हिंदू धर्म का प्रचार प्रसार करना रहा है। बीते 15 वर्षों में कहीं ना कहीं उन्होंने यह कामयाबी हासिल की है। गांव के प्रारंभिक और अंतिम सीमा पर बजरंग दल के बोर्ड लगाएं साथ ही संघ का कार्य बस्तर के गांव में जाकर मिशनरी के खिलाफ आवाज बुलंद करना और हिंदू धर्म के खतरे के बारे में बताना रहा है।
बस्तर को “नक्सल गढ़ “की पहचान से उबारने के लिए सरकार ने बस्तर विकास प्राधिकरण का गठन किया जिसका मूल उद्देश्य बस्तर के आदिवासियों तक मूलभूत सुविधाएं की पहुंच सुनिश्चित करना था। कुपोषण, पेयजल बेरोजगारी, शिक्षा, पक्की सड़क स्कूल अस्पताल निर्माण करने के बजाए हर बार समीक्षा बैठक में पिछले कामों को ही पूरा करने का आदेश दिया जाता है। वैसे ही बस्तर के खनिज न्यास निधि का भी यही हाल हैं जो फंड राशि आदिवासी के विकास के लिए आता है वह भी उन तक नहीं पहुंच पाता। विपक्ष में रहते भूपेश सरकार के प्रतिनिधि, विधायक गांव में आदिवासियों के साथ धरना-प्रदर्शन में सम्मिलित होते उनके खिलाफ अन्याय को देख साथ खड़े नजर आते और आवाज उठाते। इसमें कांग्रेस के बड़े नेता भी शामिल होते उस दौर में ट्विटर से लेकर विधानसभा सत्र में सरकार से जवाब मांगा जाता और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ खड़े रहते। अभी हाल यह है कि सत्ता में आते ही भूपेश सरकार भी रमन सरकार के नक्शे कदम पर चल रही है और बेला भाटिया जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गांव में जाने से रोका जा रहा है।
पिछले साल जब नक्सली समस्याओं को लेकर गृह मंत्रालय से वार्ता शुरू हुई तब सीएम भूपेश बघेल ने सात अतिरिक्त सीआरपीएफ बटालियन की मांग रखी थी साथ ही बस्तर के स्थानीय आदिवासी युवाओं को भी रोजगार की दृष्टि से फोर्स में शामिल होने का आग्रह किया और बस्तर बटालियन कोया कमांडो गठित किया गया ताकि इनके जरिए नक्सलियों तक पहुंचने में आसानी हो और नक्सली समस्याओं को बेहतर परिणाम मिल सके। आदिवासियों का मरना तय है नक्सली उन्हें फोर्स में शामिल होने के लिए मारते हैं और पुलिस फर्जी एनकाउंटर या नक्सली मुखबिर के शक के आधार पर मारती है। छत्तीसगढ़ के ही एक हिस्से में जब डीएम आम नागरिक को मारता है उसका मोबाइल तोड़ देता है तब वायरल होते वीडियो को देखते हुए पूरा देश इसके खिलाफ आवाज बुलंद करता है और कुछ घंटों में सीएम भूपेश बघेल डीएम पर कार्रवाई करते हुए बर्खास्त करते हैं साथ ही उस लड़के को नया मोबाइल दे दिया जाता है। लेकिन वहीं जब सीआरपीएफ के जवान तीन आदिवासियों को कथित रूप से मार देते हैं तब पांच दिन बाद सरकार मुआवजा के नाम पर 10 हजार का तीन लिफाफा देती है क्या आदिवासियों की जान की कीमत किसी मोबाइल से भी सस्ती है?
देशभर के आदिवासियों ने बिना किसी बड़े समर्थन पर ट्विटर पे हैशटेग, ‘बस्तर में नरसंहार बंद हो’, ‘SaveBastar’ चलाया था ट्रेंडिंग पर होने के बावजूद यह खबर देश में चर्चा का विषय नहीं बन पाई ना ही इसकी खबर किसी बड़े नेता और नेशनल मीडिया तक पहुंच पाई।
ज्यादातर नागरिक मानते हैं कि छत्तीसगढ़ का नाम आदिवासियों ने खराब किया है। जंगलों को बचाने में आदिवासियों का कितना योगदान है वे यह बात भूल जाते हैं और उनका किसी भी प्रकार से समर्थन नहीं करते। वे न्यूज़ की हेडलाइंस पढ़कर मान जाते हैं मुठभेड़ में कोई आदिवासी नहीं नक्सली ही मारा गया होगा। फिलहाल सरकार ने देर से सही मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दे दिए हैं अब भी सरकार के लिए नक्सलियों से हर हाल में निपटना है प्रमुख मुद्दा है। आदिवासी सरकार के लिए सिर्फ वोट बैंक बनकर रह गए है।
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तस्वीर साभार : New Indian Express