पीरियड्स को लेकर नाक-भौं सिकोड़ने वालों की संख्या आज भी कम नहीं है। सदियों पूर्व पीरियड्स को लेकर महिलाओं के लिए नियमावली बनाई गई जिसे धीरे-धीरे अंधविश्वास में बदल दिया गया, जिसके चलते उन्हें अलग-अलग तरह की जटिल समस्याओं का सामना आज भी करना पड़ रहा है। ये समस्याएं शारीरिक पीड़ा ही नहीं बल्कि मानसिक तनाव भी देती हैं। पुरुषों द्वारा स्त्रियों के लिए गठित नियमावली आज भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही हैं। शास्त्रीय लेखन, धर्म का हवाला देकर उसे महिलाओं के माथे मढ़ दिया गया। ये मसला तब और भी पेचीदा हो गया जब धर्म का आवरण डाल इसे अंधविश्वास में बदला गया। तब तो समझिए भारतीय महिलाओं की शामत ही आ गई। आज भी ये नियम सख्ती से लागू हैं। कुछ ऐसे भी धर्म हैं जहां पीरियड्स से जुड़े ये मिथक,अंधविश्वास नहीं हैं और होना भी नहीं चाहिए।
उदाहरण के तौर पर बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि कई इलाकों में महिलाओं को पीरियड्स की स्थिति में घर के बाहर सोना पड़ता है। दैनिक भास्कर की एक खबर बताती है कि छत्तीसगढ़ के कोरकट्टा गांव की बच्चियों और महिलाओं को गांव के बाहर झोपड़ियों में भेजा जाता है। यही नहीं छिंदवाड़ा में पीरियड्स के चलते कुर्मा घर में रह रही एक महिला की मौत भी हो गई। ऐसा शहरी क्षेत्रों में तो देखने को नहीं मिलता लेकिन यह कहना गलत होगा कि यहां रहनेवाली औरतें पूरी तरह इससे निजात पा चुकी हैं। पीरियड्स के समय क्या-क्या झेलना पड़ता है इसका अंदाजा भी आपको नहीं होगा। वे शारीरिक दर्द ही नहीं बल्कि मानसिक तनाव से भी गुजरती हैं। शातिर पुरुषवादी समाज ने इनकी खातिर पूरी लिस्ट बना दी और स्त्रियों को अंधविश्वास की आग में झोंक दिया। नियम बने कि वे पूजा नहीं करेंगी वरना भगवान अपवित्र हो जाएंगे, प्रसाद ग्रहण नहीं करेंगी, रसोईघर में प्रवेश निषेध रहेगा क्यों कि खाना अशुद्ध, विषैला हो जाएगा। तुलसी को नहीं छुएंगी, केले के पेड़ को नहीं छूएंगी। ऐसा करना पाप है, धर्म का सरासर उल्लंघन होगा। पीरियड्स के समय बाल न धोएं, प्रेम संबंध न बनाएं, पति को छुएंगे तो पति भी दूषित। ऐसे तमाम दकियानूसी नियमों के कारण पीरियड्स के समय जब उन्हें परिवार के साथ की सबसे अधिक आवश्यकता होती उन्हें एक कोठरी की कैद दे दी जाती है जिसके परिणाम स्वरूप वे यातनाएं झेलती रहती हैं।
और पढ़ें : बात आदिवासी इलाकों में मौजूद पीरियड्स प्रॉडक्ट्स की पहुंच और टैबू की
पीरियड्स से जुड़े इन अंधविश्वासों को पुख्ता करने के लिए लोगों ने तो ये तक कह दिया कि ऐसा करने पर वह अगले जन्म में कुतिया बनेगी। जबकि अत्यधिक रक्तस्त्राव से परेशान महिलाओं की स्थिति उस समय चिंताजनक होती है। अचार को छूने से उसमें फंगस होगा, कीटाणु फैलेंगे, खट्टा नहीं खाना आदि। आज भी इस देश की शिक्षित महिलाओं का बहुत बड़ा तबका इन अंधविश्वासों पर भरोसा करता है। मस्तिष्क को पाप, अनहोनी के भय ने पूरी तरह जकड़ रखा है, जो शिक्षित होने के बावजूद भी मुक्ति पर निषेध लिखता है। बहुत सी महिलाओं को हम देखते हैं कि इन ढकोसलों और पाखंड चक्कर में आकर इतनी मंद बुद्धि हो गई हैं कि उनकी बात का अनुसरण न करें भला ऐसा कैसे हो सकता है? विज्ञान क्या मजाल जो टिक सके इनके ज्ञान के आगे। विज्ञान की दृष्टि से देखें तो पीरियड्स पूरी तरह एक सामान्य जैविक प्रक्रिया है।
पीरियड्स के समय क्या-क्या झेलना पड़ता है इसका अंदाजा भी आपको नहीं होगा। वे शारीरिक दर्द ही नहीं बल्कि मानसिक तनाव से भी गुजरती हैं। शातिर पुरुषवादी समाज ने इनकी खातिर पूरी लिस्ट बना दी और स्त्रियों को अंधविश्वास की आग में झोंक दिया।
पीरियड्स के दौरान करीब 35 मिलीलीटर खून निकल सकता है। अधिक मात्रा में रक्त स्राव या किसी अन्य तकलीफ़ की स्थिति में डॉक्टर की सलाह ली जानी चाहिए।इस अवस्था में उन्हें एक अलग कमरे में छोड़ देना कहां तक उचित है जबकि उन्हें उस वक्त देखभाल की जरूरत होती है। इक्कीसवीं सदी में पेशेवर स्त्रियां अपने घर परिवार की सभी ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए रसोई तक तो चली गई हैं लेकिन धार्मिक दायरे, नियमावली, पाप-पुण्य के हेर-फेर में पड़ी ख़ुद को आज़ाद घोषित करने वाली यही स्त्रियां धार्मिक दायरों को तोड़ने में असफल रही हैं और कब तक रहेगी कुछ कहा नहीं जा सकता। यह चिंतन और विमर्श का विषय है। प्रयोगात्मक दृष्टि से जांच कर देखा जाए तो पीरियड्स के दौरान किसी भी चीज को छूने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। न खाने की कोई चीज़ खराब होती है और न ही पेड़ पौधे सूखते हैं। पीरियड्स को लेकर धर्म के नाम पर भयभीत होकर हीनता बोध करना, अंधविश्वास पैदा कर बरगलाना, एक बड़ी आबादी को प्रताड़ित करना नहीं तो और क्या है? अब समय है कि महिलाओं को भ्रांतियों में जीना छोड़ वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। मिथकों को खंडित कर इस मुद्दे पर तार्किक रूप सोचने की ज़रूरत है। निर्णय आपका है,अंधविश्वासी बन दंश झेलना है या विज्ञान,तर्कशील बन स्वच्छंद जीवन जीना है
और पढ़ें : पीरियड्स : हमें अपने पैड्स छिपाकर न रखने पड़ें, इसके लिए ज़रूरी है घरों में इस पर बात हो
यह लेख डॉ. राजकुमारी ने लिखा है जो एक सहायक प्रवक्ता हैं। जनसत्ता, हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अखबारों, ब्लॉग्स में उनके कई समसामयिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें साल 2019 में ओम प्रकाश वाल्मीकि सम्मान से भी नवाज़ा गया है
तस्वीर साभार : The Conversation